रविवार, 30 दिसंबर 2012

इंद्रेश प्रकरण की कवरेज



गतांक से आगे 7....
एशियन एज ने 11 नवंबर को दो खबरों के जरिए सुदर्शन पर हल्ला बोला है। पहली खबर का शीर्षक है सुदर्शन अपसेट्स बीजेपी, आरएसएस। दूसरी खबर कांग्रेस का पक्ष रखती है कांग हिट्स आउट ऐट आरएसएस एक्स चीफ।
इस घटना की अखबारों ने व्यापक कवरेज की। सबसे पहले नजर डालते हैं अंग्रेजी अखबारों की रिपोर्टों पर
13 नवंबर को द हिंदू ने इस सिलसिले में तीन खबरें प्रकाशित की हैं। एक कॉलम के सुदर्शन के फोटो समेत तीन कॉलम की खबर का शीर्षक है आरएसएस रिग्रेट्स रिमार्क्स अगेंस्ट सोनिया । दूसरी खबर दिल्ली से लिखी गई है, जिसके साथ कांग्रेसियों के झंडेवालान स्थित संघ कार्यालय पर प्रदर्शन की तीन कॉलम की फोटो भी प्रकाशित की गई है। इस खबर का शीर्षक है कांग्रेस प्रोटेस्ट अगेंस्ट आरएसएस लीडर्स रिमार्क। चार कॉलम की इस खबर को बेहतरीन डिस्प्ले दिया गया है। तीसरी खबर चंडीगढ़ डेटलाइन से है। इस खबर का भी शीर्षक वही है प्रोटेस्ट अगेंस्ट आरएसएस लीडर्स रिमार्क।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

उमेश चतुर्वेदी को महामना सम्मान



(विज्ञप्ति)
वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी को महामना पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इसके तहत उन्हें पांच हजार एक रूपए की राशि के साथ ही अभिनंदन पत्र और शाल से सम्मानित किया गया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक और महान स्वतंत्रता सेनानी महामना मदन मोहन मालवीय के जन्मदिवस के मौके पर उमेश चतुर्वेदी को उनके ओजस्वी लेखन के लिए प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। गौरतलब है कि उमेश चतुर्वेदी पहली ऐसी शख्सीयत हैं, जिन्हें उनके ओजस्वी लेखन के लिए इसी पुरस्कार से दूसरी बार सम्मानित किया गया है। उन्हें साल 2009 में भी सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें वरिष्ठ राष्ट्रवादी पत्रकार शिवकुमार गोयल, राम बहादुर राय और वरिष्ठ मार्क्सवादी पत्रकार शिवकुमार मिश्र के हाथों मिला। इस मौके पर शिवकुमार मिश्र ने कहा कि हिंदोस्थान का संपादन करके महामना मालवीय ने जिस राष्ट्रवादी पत्रकारिता की नींव रखी थी, आज के पत्रकार इस धारा को जरूर आगे बढ़ाएंगे। गौरतलब है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सक्रिय पत्रकारों को मेवाड़ संस्थान की तरफ से पिछले आठ सालों से ये पुरस्कार दिए जा रहे हैं। शिवकुमार मिश्र ने मेवाड़ संस्थान को धन्यवाद देते हुए कहा कि संस्थान का यह कदम पत्रकारिता के गिरते मूल्यों को रोकने में मददगार साबित होगा। इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में मशहूर पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के निदेशक जगदीश उपासने, अरविंद मोहन, प्रदीप सिंह और मशहूर कार्टूनिस्ट काक शामिल रहे। पुरस्कार हासिल करने के मौके पर उमेश चतुर्वेदी ने कहा कि शिवकुमार गोयल, राम बहादुर राय और शिवकुमार मिश्र जैसी हस्तियों के हाथों सम्मानित होकर उन्हें गर्व महसूस हो रहा है।

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

माफी मांगें अजीत अंजुम ....

9 जाने-माने साहित्यकारों द्वारा जारी किया गया संयुक्त वक्तव्य
विभिन्न माध्यमों से पता चला है कि पिछले दिनों हिंदी के वयोवृद्ध लेखक राजेन्द्र यादव के साथ उनके घर जाकर अजित अंजुम नाम के व्यक्ति ने, जो टीवी का पत्रकार बतलाया जाता है, बदसलूकी और गाली-गलौज किया। यह अत्यंत शर्मनाक और खेदजनक घटना है। हो सकता है अजित अंजुम की राजेन्द्र यादव से कुछ शिकायतें हों। हम उस मामले में कोई भी पक्ष नहीं ले रहे हैं। लेखक के रूप में हमारा मानना सिर्फ यह है कि जब विवाद लेखन को लेकर हो और दो पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोगों के बीच हो तो उसे लोकतांत्रिक तरीके से हल किया जाना चाहिए। हम इस तरह के व्यवहार की भर्त्सना करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि अजित अंजुम अपने इस व्यवहार के लिए अफसोस प्रकट करेंगे।
नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह,अशोक वाजपेयी,आनंदस्वरूप वर्मा,मंगलेश डबराल, मैत्रेयी पुष्पा, पंकज बिष्ट, प्रेमपाल शर्मा,भारत भारद्वाज (बयान पर आधारित विज्ञप्ति)

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

भगवा आतंकवाद या मीडिया का पूर्वाग्रह 6



पिछले साल यह सर्वे आधारित रिसर्च इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के सहयोग से किया गया था। कतिपय कारणों से यह प्रकाशित नहीं हो पाया। इसे क्रमश: यहां स्थान दिया जा रहा है।)
गतांक से आगे...

जनसत्ता ने 12 नवंबर को सुदर्शन के बयान प्रकरण को लेकर तीन खबरें प्रकाशित कीं। अखबार ने पहली खबर दो कॉलम स्पेशल डिस्प्ले में प्रकाशित की। संसद का एक और दिन हंगामे की भेंट चढ़ा शीर्षक वाली इस स्टोरी को अंदर के पेज तक फैलाया गया है। इसी के साथ बीजेपी और संघ की प्रतिक्रिया वाली एक कॉलम की स्टोरी भी अखबार ने प्रकाशित की है। इस खबर का शीर्षक है सुदर्शन के बयान से संघ और भाजपा ने पल्ला झाड़ा। तीसरी खबर एक कॉलम में प्रकाशित की गई, हालांकि इसे भी अंदर के पन्ने तक डिस्प्ले किया गया है। जिसका शीर्षक था सुदर्शन की अनर्गल बातें बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं द्विवेदी। नवभारत टाइम्स ने इस सिलसिले में एक ही खबर प्रकाशित की सुदर्शन के कमेंट पर दिल्ली में भी उबाल, भड़के कांग्रेसी। दो कॉलम की इस खबर के साथ अखबर ने संघ मुख्यालय पर युवा कांग्रेसियों के आक्रामक प्रदर्शन की तीन कॉलम खबर प्रकाशित करके उसका डिस्प्ले बढ़ाया है।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

इंद्रेश प्रकरण की कवरेज .....



गतांक से आगे....
10 नवंबर के धरने की सबसे जोरदार कवरेज पंजाब केसरी ने की। पहले पेज पर संघ प्रमुख की तसवीर समेत दो तसवीरों के साथ दो कॉलम की खबर प्रकाशित की। भागवत ने दी गंभीर परिणामों की चेतावनी। यह खबर अंदर के पेज 11 पर भी फैलाई गई है। इसी दिन अखबार ने एक और खबर नई दिल्ली डेटलाइन से प्रकाशित की है। दिनेश शर्मा की दो कॉलम की इस खबर के साथ चार तस्वीरें प्रकाशित की गईं हैं। जिनमें दिल्ली के संघ के नेता और भारतीय जनता पार्टी के नेता धरने पर बैठे दिख रहे हैं। दिनेश शर्मा की इस खबर का शीर्षक है कांग्रेस अपने पाप छिपा रही है : संघ का पलटवार।

रविवार, 9 दिसंबर 2012

आरएसएस के प्रदर्शन की कवरेज



...गतांक से आगे 4....
दैनिक जागरण ने इस सिलसिले में 24 अक्टूबर को तीन खबरें प्रकाशित की हैं, जबकि 25 अक्टूबर और 31 अक्टूबर को एक-एक खबर छापी है। 24 अक्टूबर को पहले पृष्ठ पर दो कॉलम में प्रकाशित खबर का शीर्षक है अजमेर धमाके की चार्जशीट में संघ के नेता का नाम। पृष्ठ तीन पर प्रकाशित दो खबरों का शीर्षक है इंद्रेश कुमार के साथ संघ परिवार एकजुट और कांग्रेस का संघ पर हमला, बिहार में और आक्रामक होगी पार्टी। 25 अक्टूबर को अखबार ने लिखा है एटीएस एक-दो दिन में इंद्रेश से करेगी पूछताछ। इसी दिन दूसरी खबर है संघ की साख बचाने में जुटेगा अल्पसंख्यक मोर्चा। अखबार तीन नवंबर को लिखता है मोदी फार्मूले से एटीएस पर हमला बोलेगा संघ। अहमदाबाद डेटलाइन की इस खबर को शत्रुघ्न शर्मा ने लिखा है। तीन कॉलम की इस खबर में आरएसएस के दस नवंबर के धरने को आधार बनाया गया है। दैनिक जागरण ने 8 नवंबर को ग्वालियर डेटलाइन से खबर प्रकाशित की- इंद्रेश के समर्थन में आए मुस्लिम संगठन।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

ओमा शर्मा रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार से सम्मानित

(प्रेस विज्ञप्ति)
15वाँ  रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार राजधानी के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में ओमा शर्मा को उनकी कहानी 'दुश्मन मेमना' के लिए प्रदान किया गया।कार्यक्रम की अध्यक्षता की कथाकार-कलाकार प्रभु जोशी ने। मुख्य  अतिथि थे कवि -कथाकार कन्तिमोहन। निर्णायक और रंगकर्मी दिनेश खन्ना,'कथादेश' के संपादक हरिनारायण,कथाकार योगेन्द्र आहूजा और विमल कुमार ने कहा कि  एक रचनाकार की स्मृति में दिया जाने वाला यह पुरस्कार प्रेरणा का काम करता है। 

रविवार, 2 दिसंबर 2012

कैसे दिखे रिलायंस विरोधी खबर

(प्रथम प्रवक्ता पाक्षिक में प्रकाशित)

उमेश चतुर्वेदी
दुनिया के ज्यादातर देशों में संवैधानिक दर्जा हासिल ना होने के बावजूद अगर आम लोगों के उम्मीदों के चिराग अगर किसी संस्था से जलते हैं तो निश्चित तौर पर वह मीडिया ही है। लोकतंत्र के तीन अंगों से निराश और हताश लोगों को अगर इंसाफ की उम्मीद मीडिया से बना हुआ है तो इसकी बड़ी वजह यह है कि मीडिया को लोकतंत्र का पहरेदार माना जाता है। मीडिया के साथ पहरेदारी की यह खासियत उसके आचरण और नैतिकता पर आधारित होती है। लेकिन क्या आज के मीडिया से चौकस पहरेदारी की उम्मीद की जा सकती है? यह सवाल खास तौर पर उदारीकरण के दौर में ज्यादा पूछा जाने लगा है। समाज में बदलाव के पैरोकारों को भले ही यह निष्कर्ष नागवार गुजरे, लेकिन कड़वी हकीकत है कि हम आज के घोर चारित्रिक क्षरण के दौर में जी रहे हैं। इसका असर मीडिया पर पड़े बिना कैसे रह सकता है। अरविंद केजरीवाल के खुलासों के साथ मीडिया के रवैये को देखकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। देश के लिए अपने रक्त का आखिरी कतरा तक बहा देने वाली इंदिरा गांधी के शहादत दिवस 31 अक्टूबर को पता नहीं रिलायंस और उससे जुड़े खुलासों के लिए अरविंद केजरीवाल ने जानबूझकर चुना या नहीं, लेकिन यह सच है कि उस दिन अरविंद केजरीवाल के खुलासों को लेकर मीडिया ने खास उत्साह नहीं दिखाया।

बुधवार, 28 नवंबर 2012

मीडिया में इंद्रेश प्रकरण की कवरेज 3...



अमर उजाला ने 24 अक्टूबर को तीन कॉलम की खबर प्रकाशित हो रही है अजमेर ब्लास्ट में फंसे संघ नेता। सभी अखबारों ने संघ-बीजेपी की प्रतिक्रिया 24 अक्टूबर को ही दी है। लेकिन अमर उजाला को यह खबर देने का विचार अगले दिन यानी 25 अक्टूबर को आया। इस दिन अखबार ने खबर दी है अजमेर केस : भाजपा , संघ बिफरे। 27 अक्टूबर को अखबार ने संघ परिवार की खबर दी है। दो कॉलम की इस खबर का शीर्षक है संघ पर शिकंजे से भगवा दल परेशान। इसके अगले दिन जयपुर डेटलाइन से खबर है अजमेर ब्लास्ट में नया खुलासा, संघ नेता ने दिए थे निर्देश।  दो कॉलम की यह खबर राजस्थान एटीएस के हवाले से लिखी गई है। अमर उजाला ने आठ नवंबर को संघ के देशव्यापी धरने पर बैठने की खबर तीन कॉलम में छापी, जिसका शीर्षक था- भगवा ताप नापेंगे भागवत।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

मीडिया में इंद्रेश प्रकरण की कवरेज


(गतांक से आगे)....

 मुंबई से प्रकाशित डीएनए ने जयपुर डेटलाइन से 24 अक्टूबर को एक ही खबर प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है- आरएसएस ली़डर इन अजमेर ब्लास्ट चार्जशीट सीज कान्सिपरेसी। दो कॉलम की इस खबर को दूसरे पेज तक फैलाया गया है। इसके बाद डीएनए ने 3 नवंबर को खबर प्रकाशित की। तीन कॉलम की इस खबर का शीर्षक था आरएसएस लान्च नेशनवाइड प्रोटेस्ट इन इंद्रेश सपोर्ट। इकोनॉमिक टाइम्स ने इसी दिन पूरे कॉलम में यह खबर प्रकाशित की है, जिसके साथ दो कॉलम का इंद्रेश कुमार और दूसरे नेताओं का फोटो भी है। इस खबर का शीर्षक है- एटीएस नेम्स आरएसएस लीडर इन अजमेर ब्लास्ट चार्जशीट। कोलकाता से प्रकाशित द टेलीग्राफ ने 24 अक्टूबर को छह कॉलम में खबर छापी है ब्लास्ट क्लाउड ऑन आरएसएस आउटरीच मैन। इसके साथ ही अंदर के पेज पर राधिका रामशेषन की दिल्ली से चार्जशीट टाइमिंग लीव्स बीजेपी स्टन्ड शीर्षक से विश्लेषण भी प्रकाशित किया गया है।

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

ईस्ट इंडिया कंपनी की भाषा नीति और हिंदी
उमेश चतुर्वेदी
अगर भारतीयों को पूरी तरह से समझना और उन्हें कंपनी के शासन से संतुष्ट रखना है तो सबसे अच्छा उपाय यही हो सकता है कि सरकार के जिन जूनियर सिविल सेवकों को जनसंपर्क में रहकर प्रशासन की जिम्मेदारी संभालनी है, उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के रीति-रिवाजों, काम करने के तरीकों और धार्मिक मान्यताओं की जानकारी हो।
-          लॉर्ड वेलेजली
हिंदी को राजभाषा का उचित स्थान नहीं मिलने की जब भी चर्चा होती है, 1835 में लागू  की गई अंग्रेजी शिक्षा को जमकर कोसा जाता है। जिसे मैकाले की मिंट योजना के तहत लागू किया गया था। लेकिन इसके साढ़े तीन दशक पहले ही राजकाज में हिंदी या हिंदुस्तानी की जरूरत और अहमियत को भारत में कंपनी राज संभालने आए लॉर्ड वेलेजली ने समझ लिया था। उनकी यह समझ उनके इस बयान में साफ झलक रही है।
हिंदी दिवस पर खास सर्वेक्षण मीडिया स्टडीज ग्रुप ने किया है। इस सर्वेक्षण को यहां अविकल प्रकाशित किया जा रहा है। 

मीडिया स्टडीज ग्रुप का सरकारी हिंदी वेबसाइट का सर्वेक्षण
सरकार की वेबसाइटों पर हिंदी की घोर उपेक्षा दिखाई देती है। हिंदी को लेकर भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालय, विभाग व संस्थान के साथ संसद की वेबसाइटों के एक सर्वेक्षण से यह आभास मिलता है कि सरकार को हिंदी की कतई परवाह नहीं हैं। सर्वेक्षण में शामिल वेबसाइटों के आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि हिंदी भाषियों के एक भी मुकम्मल सरकारी वेबसाइट नहीं हैं। अंग्रेजी के मुकाबले तो हिंदी की वेबसाइट कहीं नहीं टिकती है। हिंदी के नाम पर जो वेबसाइट है भी, वे भाषागत अशुद्धियों से आमतौर पर भरी हैं। हिंदी के नाम पर अंग्रेजी का देवनागरीकरण मिलता हैं। हिंदी की वेबसाइट या तो खुलती नहीं है। बहुत मुश्किल से कोई वेबसाइट खुलती है तो ज्यादातर में अंग्रेजी में ही सामग्री मिलती है। रक्षा मंत्रालय की वेबसाइट का हिंदी रूपांतरण करने के लिए उसे गूगल ट्रासलेंशन से जोड़ दिया गया है।

बुधवार, 29 अगस्त 2012

पाती एक कवि-कथाकार की 
आदऱणीय साथी,
किसी भी समाज में मीडिया की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका होती है। न केवल समाचारों को बिना किसी रंग के पूरी वस्तुनिष्ठता से लोगों तक ले जाने में बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गत्यात्मकता को, इन क्षेत्रों में छोटे से छोटे परिवर्तनों के निहितार्थ एवं संभावित परिणामों के बारे में लोगों को जागरूक करने में। आजादी की लड़ाई को ताकत देने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन अब वो हाल नहीं है। मीडिया का चेहरा बहुत बदल गया है। खासकर हिंदी मीडिया की दशा-दिशा तो बहुत ही चिंतनीय है। हिंदी के पाठक की जरूरत से पूरी तरह अनजान कुछ खास किस्म के अंग्रेजीदां प्रबंधक तय कर रहे हैं कि हिंदीवालों को क्या पढ़ना चाहिए। वे यह प्रचारित भी कर रहे हैं कि वे जो सामग्री अखबारों में परोस रहे हैं, वही और सिर्फ वही लोग पढ़ना चाहते हैं।

सोमवार, 13 अगस्त 2012


अन्ना आंदोलन का सरोकारी तमाशा और मायूस मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख मध्य प्रदेश के कई शहरों से प्रकाशित अखबार प्रदेश टुडे में प्रकाशित हो चुका है। )
सरोकारों से दूर होने का आरोप झेलता रहे हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह आरोप नया नहीं है कि वह खुद को बचाए रखने के लिए कई बार खुद भी आखेटक की भूमिका में आ जाता है। पत्रकारिता में मान्यता रही है कि पत्रकार सिर्फ खबरों का दर्शक और साक्षी होता है और उसे ज्यों का त्यों पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के सामने रखना ही पत्रकार की असल जिम्मेदारी है। पत्रकारिता में जिस वस्तुनिष्ठता की वकालत की जाती है, उसके पीछे यही सोच काम करती रही है। ऐसा भले ही महाभारत के दौर में रहा हो, जब संजय ने ज्यों का त्यों खबर परोस दी हो, लेकिन खबरों को ट्विस्ट करना या अपने लिहाज से उसे पेश करना मीडिया की फितरत रही है।

बुधवार, 8 अगस्त 2012


(यह लेख बहुवचन में प्रकाशित हुआ है)
नई आर्थिकी, कारपोरेट कल्चर और मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
दुनिया जैसी भी है, बनी रहेगी और चलती रहेगी ।
वाल्टर लिपमैन, अमेरिकी पत्रकार
भारतीय दर्शन में भी जीवन और दुनिया को लेकर कुछ वैसी ही धारणा रही है। जैसा वाल्टर लिपमैन ने कहा था। इस कथन में नियति को स्वीकार करने का भी एक बोध छुपा हुआ है।  दुनिया और अपने आसपास के माहौल में मौजूद तमाम तरह के अंतर्विरोधों के बावजूद यह नियतिवादी दर्शन ही उसके प्रति विरोध और विद्रोह की संभावनाओं को खारिज करता रहता है। कहना न होगा कि इसी नियतिवाद का शिकार इन दिनों भारतीय मीडिया और उसमें सक्रिय लोग भी हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपनी नियति से विद्रोह करना नहीं चाहते। लेकिन नई आर्थिकी ने जिस तरह खासतौर पर महानगरीय जिंदगी को आर्थिक घेरे में ले लिया है, वहां विरोध और विद्रोह की गुंजाइश लगातार कम होती गई है। कर्ज के किश्तों पर टिका जिंदगी की जरूरतें और आडंबर ने मीडिया में काम कर रहे लोगों को भी इतना घेर लिया है कि तमाम तरह की विद्रूपताओं के बावजूद इसे झेलने के लिए मजबूर हैं।

बुधवार, 1 अगस्त 2012


पुस्तक समीक्षा
संस्कृति और परंपराओं के बीच जिंदगी को खोजने की जद्दोजहद
उमेश चतुर्वेदी
आदिकवि बाल्मीकि ने दुनिया की पहली कृति रामायण में कहा है कि कुटुंब ही संस्कृति का आधार है। जब कुटुंब ही बिखर जाएगा तो संस्कृति छिन्न-भिन्न हो जाएगी। नई आर्थिकी ने सबसे पहली चोट कुटुंब पर ही की है। इससे कुटुंब बिखर रहा है और इसका असर यह है कि सभ्यता, संस्कृति और वातावरण सबकुछ छिन्न-भिन्न हो रहा है। पृथ्वी भले ही अपनी धुरी पर पहले की ही तरह घूम रही हो, लेकिन  दुर्भाग्यवश मानव मिजाज से लेकर मौसम तक अपनी धुरी को छोड़ता जा रहा है। उससे भी दिलचस्प यह है कि सब कुछ आधुनिकता और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के नाम पर हो रहा है। यह सच है कि परंपराओं में कई अंधविश्वास भी हैं, कई दुरभिसंधियां भी हैं।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

फौलादी शरीर में एक नाजुक दिल रहता था


उमेश चतुर्वेदी 
2003के गर्मियों की बात है। तब मैं बीएजी फिल्म्स में काम करता था। कहने के लिए मेरा काम रोजाना नामक दूरदर्शन के समाचार प्रोग्राम के लिए पीआईबी स्तरीय रिपोर्टिंग करना था। लेकिन कायदे से ज्यादातर काम नए-नवेले आए स्टार न्यूज चैनल के लिए पीआईबी स्तर वाली रिपोर्टिंग करना होता था। तब स्टार के पास कोई पीआईबी रिपोर्टर नहीं होता था, उनके रिपोर्टर को पीआईबी मान्यता मिलने की कम से कम एक साल तक संभावना नहीं थी।

मंगलवार, 10 जुलाई 2012


विवादों की किताबें
उमेश चतुर्वेदी
नई आर्थिकी और उदारीकरण के दौर में जिंदगी के जब सारे फलसफे अमेरिकी तर्ज पर तय हो रहे हों, ऐसे में अगर वहां की ही तरह इतिहास की हकीकत से पर्दे हटाने की कोशिशों का स्वागत किया ही जाना चाहिए। शासन और प्रशासन में पारदर्शिता लाने के दावों के बीच सचाई तो यही है कि अब तक भारतीय समाज को विगत के फैसलों की जानकारी सिर्फ और सिर्फ मिथकीय अंदाज में सुनी-सुनाई बातों से ही होती रही है।

शनिवार, 7 जुलाई 2012


पुस्तक समीक्षा
पेड न्यूज के खेल को तार-तार करता दस्तावेज
उमेश चतुर्वेदी
पत्रकारिता क्या है, उसका मकसद क्या है...क्या पक्षधर होना पत्रकारिता की जरूरत नहीं है..क्या इस पक्षधरता की कीमत वह भी सीधे-सीधे वसूली जानी जरूरी है...जब-जब पेड न्यूज की चर्चा होती है, इसे समस्या के तौर पर देखा और उसे पत्रकारिता के अब तक के निकष पर कसा जाना शुरू होता है, ये सारे सवाल उठ खड़े होते हैं। इन सवालों के जवाब में ही पत्रकारिता का असल दायित्व और मकसद छिपा हुआ है। लेकिन इन सवालों पर चर्चा से पहले कम से कम अब तक मीडिया के छात्रों को पढ़ाए जाते रहे पत्रकारिता के मकसद की चर्चा कर लेते हैं। पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया जाता है कि उसका मकसद समाज को सूचनाएं देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना है। इन सबका मकसद सिर्फ सामाजिक मूल्यों को बचाए रखते हुए समाज का भला करना। यदि ऐसा नहीं होता तो

गुरुवार, 14 जून 2012



हिंदी प्रदेश में हिंदी का हाल
उमेश चतुर्वेदी

(यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हो चुका है।)
पिछली सदी के नब्बे के दशक में नई आर्थिकी की आगोश में देश जाने की तैयारी कर रहा था, तब कई सवाल उठे थे। इनमें निश्चित तौर पर आर्थिक मसलों से जुड़े सवाल ज्यादा थे। लेकिन लगे हाथों संस्कृति और भारतीय भाषाओं की भावी हालत को लेकर खासी चिंताएं जाहिर की गई थीं। इन चिंताओं का केंद्रीय बिंदु यह आशंका ही थी कि बाजार आधारित नई आर्थिकी ना सिर्फ संस्कृति के क्षेत्र में ही नकारात्मक दखल देगी, बल्कि देसी भाषाओं पर भी असर डालेगी। नई आर्थिकी के पैरोकारों ने इन चिंताओं को निर्मूल करार देने में देर नहीं लगाई। उनके तर्कों का आधार बनी बाजार की भाषा के तौर पर चिन्हित होती हिंदी और उसका बाजार आधारित विस्तार। लेकिन हिंदी भाषी राज्यों के हृदय प्रदेश उत्तर प्रदेश के दसवीं के नतीजों ने उस खतरे  को पहली बार सतह पर ला खड़ा किया है, जिसकी आशंका नब्बे के दशक मे भाषाशास्त्री उठा रहे थे।

शनिवार, 2 जून 2012


नैतिकता की राह के जरिए कामयाबी का पाठ
उमेश चतुर्वेदी
(यह समीक्षा कादंबिनी जून 2012 के अंक में प्रकाशित हुई है। )
हिंदी प्रकाशन का मतलब हाल के कुछ दिनों पहले तक सिर्फ साहित्य और उसमें भी कहानी-उपन्यास और कविता की पुस्तकों का प्रकाशन होता था। लेकिन अब हिंदी प्रकाशन की दुनिया बदल रही है। हिंदी का नया पाठक वर्ग विकसित भी हुआ है। उदारीकरण के बाद हिंदी पाठकों की भी दिलचस्पी नई आर्थिकी, नए दौर के व्यवसाय और नए जीवन मूल्यों की तरफ बढ़ी है। यही वजह है कि अब व्यवहार, व्यापार से लेकर नए मूल्यों और उन मूल्यों से सामंजस्य बढ़ाने की दिशा में सोच-विचार बढ़ाने वाली पुस्तकों की भी मांग बढ़ी है। 

बुधवार, 23 मई 2012


संसद में भोजपुरी की अलख
उमेश चतुर्वेदी 
गृहमंत्री पी चिदंबरम को हिंदी बोलते हुए भी कम ही देखा-सुना गया है। खालिस अंग्रेजी में सांसदों के सवालों का जवाब देने वाले पी चिदंबरम अगर भोजपुरी में यह कहने को मजबूर हो जाएं कि हम रउवा सभके भावना समझतानी तो यह न मानने का कारण नहीं रह जाता कि भोजपुरी को लेकर नजरिया बदलने लगा है। यहां गौर करने की बात यह है कि चिदंबरम उस तमिलनाडु से आते हैं, जहां 1967 में हिंदी विरोधी आंदोलन तेज हो गया था। 17 मई 2012 को लोकसभा में भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने को लेकर उठे विशेष ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर चर्चा के जवाब में चिदंबरम को यह आश्वासन देना पड़ा कि संसद के मानसून सत्र में इसे लेकर ठोक कदम उठाए जाएंगे।

सोमवार, 14 मई 2012


काटजू के खिलाफ हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दायर
नेशनल आरटीआई फोरम की कन्वेनर डॉ नूतन ठाकुर ने प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू और सचिव विभा भार्गव के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच में एक अवमानना याचिका दायर की है। यह अवमानना याचिका पीआईएल संख्या 2685/2012 के सम्बन्ध में है। इस पीआईएल में नूतन ने 04 अप्रैल 2012 को सेना कूच से सम्बंधित दो समाचारों के सम्बन्ध में जांच करने हेतु प्रार्थना की थी। जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस वी के दीक्षित की बेंच ने 10 अप्रैल 2012 के अपने निर्णय में सचिव, सूचना और प्रसारण मंत्रालय एवं अन्य को आदेशित किया था कि वे सुनिश्चित करें कि सेना के मूवमेंट से सम्बंधित कोई भी खबर प्रिंट एवं इलेक्ट्रौनिक मीडिया में प्रकाशित ना हो।

शुक्रवार, 11 मई 2012


प्रभाषजी ने पूरी हिंदी पत्रकारिता को दिशा और भाषा दी
शंभूनाथ शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल ने प्रभाष जी पर यह संस्मरण अपने फेसबुक वाल पर लिखा है। जिसे वहां से लेकर साभार प्रकाशित किया जा रहा है- मॉडरेटर


जनसत्ता के एक पुराने साथी और वरिष्ठ पत्रकार ने राजीव मित्तल ने जनसत्ता के फाउंउर और उस पत्र के प्रधान संपादक रहे दिवंगत प्रभाष जोशी के बारे में टिप्पणी की है कि माली ने ही बगिया उजाड़ डाली। शायद चीजों का सरलीकरण है। उत्साहीलाल लखनौआ पत्रकार कुछ ज्यादा ही नाजुक होते हैं न तो उनमें संघर्ष का माद्दा है न चीजों की सतह तक जाने का साहस। जब तक रामनाथ गोयनका जिंदा रहे एक भी ऐसा मौका नहीं मिलता जब जनसत्ता के प्रसार के लिए प्रभाष जी चिंतित न रहे हों। लेकिन आरएनजी की मृत्यु के बाद हालात बदल गए और जनसत्ता प्रबंधन की कुचालों का शिकार हो गया। यह सच है कि जनसत्ता को एक्सप्रेस प्रबंधन ने कभी पसंद नहीं किया लेकिन आरएनजी के रहते प्रभाष जी प्रबंधन की ऐसी कुचालों का जवाब देते रहे। लेकिन विवेक गोयनका, जो खुद हिंदी नहीं जानते थे उनका इस हिंदी अखबार से क्या लगाव हो सकता था। दिल्ली के एक्सप्रेस ग्रुप में मुख्य महाप्रबंधक के रूप में राजीव तिवारी की नियुक्ति और जनसत्ता के संपादकीय विभाग के कुछ अति वामपंथी तबकों ने मिलकर जनसत्ता को भीतर से पिचका दिया। राजीव मित्तल जनसत्ता में तब आए जब जनसत्ता का पराभव काल शुरू हो चुका था वरना जनसत्ता ने उस वक्त की राजनीति और पत्रकारिता को एक ऐसी दिशा और दशा प्रदान की थी जो न तो कभी टाइम्स ग्रुप अपने हिंदी अखबार नवभारत टाइम्स को दे पाया था न बिड़ला की धर्मशाला कहा जाने वाला हिंदुस्तान।

बुधवार, 9 मई 2012


इंटरनेट कानूनों का सख्ती से पालन हो - इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ बेंच ने 8 मई को आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर और उनकी पत्नी सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ बेंच में दायर रिट याचिका संख्या 3489/2012 में आदेश देते हुए कहा है कि आज का युग इंटरनेट का युग है, अतः इंटरनेट सम्बंधित नियमों को पूरी सख्ती से पालन किया जाए. अमिताभ और नूतन ने अपना पक्ष कोर्ट में स्वयं रखा जबकि भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता अशोक निगम ने रिट याचिका का इस आधार पर विरोध किया कियाचीगण ने याहू,गूगल आदि को प्रतिवादी नहीं बनाया है.

रविवार, 29 अप्रैल 2012


हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग और सोशल मीडिया एकदूसरे के पूरक बन चुके हैं


 भारत की राजधानी नई दिल्ली के दिल कनॉट प्‍लेस के द एम्‍बेसी रेस्‍तरां में एक हिंदी ब्‍लॉगर संगोष्‍ठी लखनऊ से पधारे हिन्‍दी के मशहूर ब्‍लॉगर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी के सम्‍मान में सामूहिक ब्‍लॉग नुक्‍कड़डॉटकॉम के तत्‍वावधान में शनिवार को आयोजित की गई। इस मौके पर हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के प्रभाव के सबने एकमत से स्‍वीकारा। देश विदेश में हिंदी के प्रचार प्रसार में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के महत्‍व को सबने स्‍वीकार किया और इसकी उन्‍नति के मार्ग में आने वाली कठिनाईयों पर व्‍यापक रूप से विचार विमर्श किया गया। संगोष्‍ठी में दिल्‍ली, नोएडा, गाजियाबाद के जाने माने हिंदी ब्‍लॉगरों से शिरकत की। सोशल मीडिया यथा फेसबुक, ट्विटर को हिंदी ब्‍लॉगिंग का पूरक माना गया। एक मजबूत एग्रीगेटर के अभाव को सबसे एक स्‍वर से महसूस किया और तय किया गया कि इस संबंध में सार्थक प्रयास किए जाने बहुत जरूरी है। फेसबुक आज एक नेटवर्किंग के महत्‍वपूर्ण साधन के तौर पर विकसित हो चुका है। इसका सर्वजनहित में उपयोग करना हम सबकी नैतिक जिम्‍मेदारी है।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

ऊर्जा का संचार करते शब्द

उमेश चतुर्वेदी
मौजूदा भारतीय समाज में राजनेताओं की जुबान से निकले शब्दों पर वह एतबार नहीं रहा, जैसा कभी समाज के अगुआ लोगों की जुबान का रहता था। इसके बावजूद आज के दौर में भी कई शख्सियतें ऐसी हैं, जिनके मुंह से निकले शब्दों के एक-एक हर्फ जिंदगी में नई ऊर्जा का संचार कर देते हैं। उनकी जुबान से निकले शब्दों में ऐसी ताकत होती है कि कई जिंदगियां बदल जाती हैं तो कई सारी जिंदगियां ऐसी भी होती हैं, जिनमें नई आग भर जाती है। महान लोगों के शब्दों की तासीर इतनी गहरी होती है कि उनके सहारे कई नए आंदोलन तक खड़े हो जाते हैं। याद कीजिए बाल गंगाधर तिलक के उस भाषण को..जो आज तक भारतीय आजादी का प्रतीक बना हुआ है स्वशासन का अर्थ कौन नहीं जानता? उसे कौन नहीं चाहता? क्या आप यह पसंद करेंगे कि मैं आपके घर में घुसकर आपकी रसोई को कब्जे में ले लूं ? अपने घर के मामले निपटाने का मुझे अधिकार होना चाहिए। एक सदी से ज्यादा हो गए इस भाषण के..लेकिन यह आज भी भारतीयों की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। ये तो रहा एक सदी से भी पुराने भाषण का अंश.....अभी कुछ साल पहले अब्दुल कलाम ने जो भाषण दिया था, वह आज भी भारतीय नौजवानों में ऊर्जा का नया संचार कर रहा है। इस भाषण का एक अंश देखिए- अपने से पूछिए कि आप भारत के लिए क्या कर सकते है। भारत को आज का अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश बनाने के लिए जो भी करने की जरूरत है,  करिए।

रविवार, 11 मार्च 2012


कौन भरोसा करता है एक्जिट पोल पर
उमेश चतुर्वेदी

‘‘ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल मनोरंजन चैनलों के लिए सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं।’’
मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का ट्विट
तो क्या सचमुच एक्जिट पोल मनोरंजन के ही पात्र हैं। अब तक के अनुभव तो यही कहते हैं। याद कीजिए उत्तर प्रदेश के 2007 के एक्जिट पोल को...लेकिन जब ईवीएम मशीनों का पिटारा खुला तो उनमें से जो आंकड़े बाहर निकले, वे हकीकत से काफी दूर थे। सिर्फ उत्तर प्रदेश के ही 2007 के एक्जिट पोल के आंकड़ों को याद करें। तब टाइम्स नाऊ ने बहुजन समाज पार्टी को 116 से 126 सीटें दी थीं। उसके एक्जिट पोल में समाजवादी पार्टी को 100 से 110 सीटें मिली थीं। जबकि बीजेपी को 114 से 124 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया था। कांग्रेस को टाइम्स नाऊ ने 25 से 35 सीटें दी थीं। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। इसी तरह स्टार न्यूज ने बहुजन समाज पार्टी को 137, समाजवादी पार्टी को 96, बीजेपी को 108 और कांग्रेस को 27 सीटें दी थीं। स्टार न्यूज की तरफ से सिर्फ दो पार्टियों - समाजवादी पार्टी और कांग्रेस - को लेकर किए गए  अनुमान हकीकत वाले नतीजों के करीब रहे।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

हिंदी क्षेत्र के निर्माण की पड़ताल


पुस्तक समीक्षा

उमेश चतुर्वेदी

सामंती समाज की सबसे बड़ी खामी ये रही है कि वहां संवाद एक तरफा होता रहा है। सामंत, राज्य या राजा की तरफ से सूचनाएं और विचार तो जनता की तरफ प्रवाहित होते रहे हैं, लेकिन जनता सामंत, राज्य या राजा के बारे में क्या सोच रही है, उसकी अपेक्षाएं क्या हैं...इसे सामंत, राज्य या राजा की ओर प्रक्षेपित करने की कोई सुचारू व्यवस्था नहीं रही है। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के दौरान यूरोप में जो बदलाव आए और सामंती समाज को लोकतांत्रिक समाज और व्यवस्था में ढालने में मदद की, उसमें एक सार्वजनिक क्षेत्र ने अहम भूमिका निभाई। जर्मन दार्शनिक इसी प्रक्रिया पर आधारित एक अवधारणा पेश की, जिसे उन्होंने पब्लिक स्फेयर यानी सार्वजनिक क्षेत्र कहा जाता है। भारत में यह मान्यता रही है कि मध्यकालीन भारतीय समाज की सोच में लोकतांत्रिक समाज की ओर बदलाव यूरोप के रेनेसां की वजह से ही आया। पहले स्वाधीनता संग्राम तक की अवधि को देखें तो भारतीय समाज में सामंती मूल्यों की ही प्रधानता नजर आती है। लेकिन स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बाद भारतीय समाज का यूरोपीय समाज के साथ संपर्क बढ़ा तो यहां भी सामंती मूल्यों में विचलन आने लगता है। निश्चित तौर पर इसमें एक बड़े वर्ग की भूमिका रही, जिसने समाज को आधुनिकता की दिशा में आगे बढ़ाया। 
हेबरमास की अवधारणा के मुताबिक भारत में इस दौरान एक पब्लिक स्फेयर का निर्माण होना शुरू हो गया। राजनीति की दुनिया में लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे लोगों की इस पब्लिक स्फेयर के निर्माण में महती भूमिका रही। तो सामाजिक मोर्चे पर दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय और बाद के दिनों में विवेकानंद जैसे लोगों ने बड़ा काम किया। इसी तरह साहित्य में भारतेंदु, शिवप्रसाद सिंह सितारे हिंद प्रभृत्त लोग दरअसल इसी पब्लिक स्फेयर की नींव रख रहे थे। निश्चित तौर पर गांधी के आने के बाद इसमें तेजी आई और 1920 आते-आते भारतीय समाज में एक मजबूत पब्लिक स्फेयर का निर्माण होता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की कामयाबी, सांस्कृतिक मोर्चे पर भारतीय परंपरा के आधार पर आधुनिक अवधारणा, स्त्री शिक्षा, हिंदी का विकास और उसकी स्थिति, सामाजिक मूल्य, लोकतांत्रिक अधिकार आदि को लेकर एक ठोस चिंतन और मूल्य तय होने लगते हैं। वे मूल्य इतने ठोस और मजबूत हैं कि आज भी जब भी समाज, संस्कृति और साहित्य को परखने के लिए निकष की जरूरत होती है, उसे उनके बिना काम नहीं चलता।
ब्रिटिश लेखिका और शोधकर्ता फ्रांचेस्का ऑर्सीनी ने हिंदी की इसी लोकवृत्त की गहन पड़ताल की है।  हिंदी का लोकवृत्त 1920-1940 में फ्रांचेस्का ऑर्सीनी ने 1920-1940 के काल खंड के दौरान हिंदी समाज के बदलते करवट की पड़ताल की कोशिश करता है। फ्रांचेस्का मानती है कि 1920 से 1930 के दशक में हिंदी का साहित्यिक और राजनीतिक क्षेत्र में सार्वजनिक विषयों, सार्वजनिक संचार माध्यमों और जनता के प्रति जो प्रतिक्रिया दिखती है, वह दरअसल आदर्शमूलक है। क्योंकि इस दौरान आते-आते हिंदी के राजनेता और संस्कृतिकर्मी मानने लगे थे, नियम एक और मान्य होने चाहिए। मतभेदों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। खासतौर पर तीस के दशक तक आते-आते हिंदी को लेकर एक मान्य सिद्धांत विकसित हो जाता है। गांवों के विकास और महिलाओं की भूमिका को लेकर भी मान्य अवधारणा विकसित होने लगती है। तब निश्चित तौर पर आज की तरह का संचार तंत्र नहीं था। लेकिन अपनी सीमित पहुंच के बावजूद मान्य अवधारणाओं को विस्तार और प्रसार में वे भूमिका निभाने लगे थे। निश्चित तौर पर इसमें सबसे बड़ी भूमिका तब स्थापित हो रहे शैक्षिक संस्थानों की भी रही। हिंदी की जिस शुद्धता को आज का इलेक्ट्रॉनिक माध्यम और गिटपिटिया अंग्रेजीभाषी समाज में अपनी बाजार की तलाश करने वाले हिंदी के अखबार हिंदी के ही विकास में बड़ी बाधा मानने लगे हैं, उस शुद्धता की अवधारणा और उसके सार्वजनिक वृत का निर्माण भी तीस के दशक में ही हो गया था। उस समय इससे इतर भाषा का व्यवहार जनता के खिलाफ माना जाता था। उस समय स्थापित हुए मूल्य आज भी कितने प्रासंगिक हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भी हिंदी के विचलन की बात होती है, उन्हीं मूल्यों के निकष पर उन्हें तौला जाता है।

सोमवार, 16 जनवरी 2012




बदलाव का कारगर हथियार बना सोशल मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
सोशल नेटवर्किंग साइटों पर  नकेल कसने की तैयारी में जुटी सरकार शायद इसमें कामयाब हो भी जाय। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार इस पर नकेल क्यों कसना चाहती है। दरअसल अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को जितनी तेजी से सोशल नेटवर्किंग साइटों ने वर्चुअल स्पेस में बढ़ावा दिया और फिर इसका असर जमीनी स्तर पर भी पड़ा। जिसके चलते पहले अप्रैल 2011 में सरकार को परेशान होना पड़ा। इसके बाद अगस्त 2011 में तो हद ही हो गई, जब अन्ना हजारे के लिए दिल्ली की सड़कों पर लाखों लोग उतर आए। सही मायने में देखें तो सोशल मीडिया यानी फेसबुक और ट्विटर ने देश में बदलाव की बड़ी भूमिका तैयार करने में मदद ही दी है। भारत में आज अगर भ्रष्टाचार विरोधी माहौल बना है तो उसमें मुख्य धारा की मीडिया की बजाय सोशल मीडिया का ज्यादा योगदान है। सोशल मीडिया पर बलिया जिले के सुदूरवर्ती गांव बघांव से लेकर कोयंबटूर तक से प्रतिक्रियाएं और सहयोग सामने आ रहा है। इसका असर ही है कि लोगों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद होने में देर नहीं लगी और अन्ना का आंदोलन देखते-देखते जनआंदोलन बन गया।