कौन भरोसा करता है एक्जिट पोल पर
उमेश चतुर्वेदी
‘‘ओपिनियन पोल और
एक्जिट पोल मनोरंजन चैनलों के लिए सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं।’’
मुख्य चुनाव आयुक्त
एसवाई कुरैशी का ट्विट
तो क्या सचमुच
एक्जिट पोल मनोरंजन के ही पात्र हैं। अब तक के अनुभव तो यही कहते हैं। याद कीजिए
उत्तर प्रदेश के 2007 के एक्जिट पोल को...लेकिन जब ईवीएम मशीनों का पिटारा खुला तो
उनमें से जो आंकड़े बाहर निकले, वे हकीकत से काफी दूर थे। सिर्फ उत्तर प्रदेश के
ही 2007 के एक्जिट पोल के आंकड़ों को याद करें। तब टाइम्स नाऊ ने बहुजन समाज
पार्टी को 116 से 126 सीटें दी थीं। उसके एक्जिट पोल में समाजवादी पार्टी को 100
से 110 सीटें मिली थीं। जबकि बीजेपी को 114 से 124 सीटें मिलने का अनुमान लगाया
गया था। कांग्रेस को टाइम्स नाऊ ने 25 से 35 सीटें दी थीं। लेकिन हुआ इसके ठीक
उलट। इसी तरह स्टार न्यूज ने बहुजन समाज पार्टी को 137, समाजवादी पार्टी को 96,
बीजेपी को 108 और कांग्रेस को 27 सीटें दी थीं। स्टार न्यूज की तरफ से सिर्फ दो
पार्टियों - समाजवादी पार्टी और कांग्रेस - को लेकर किए गए अनुमान हकीकत वाले नतीजों के करीब रहे।
इसी तरह
हिंदी के सबसे गंभीर माने जाने वाले और भारत में चुनाव विश्लेषण की शुरूआत करने
वाले प्रणय राय के चैनल एनडीटीवी के भी एक्जिट पोल के आंकड़े कहां तक सटीक बैठते,
हकीकत के करीब भी नहीं पहुंचे। एनडीटीवी ने बीएसपी को 117 से 127 सीटें दी थीं।
जबकि समाजवादी पार्टी को 113 से 123 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था। उसकी भी नजर
में बीजेपी का आंकड़ा 108 से 118 तक पहुंच रहा था। जबकि कांग्रेस को 35 से 45
सीटें मिलती नजर आ रही थीं। सीएनएन-आईबीएन के आंकड़ों पर भी गौर फरमा लेना चाहिए।
उसने अपने एक्जिट पोल में 152 से 168 सीटें दी थीं। जबकि समाजवादी पार्टी को उसकी
नजर में 99 से 110 सीटें मिल रही थीं। यह एक्जिट पोल बीजेपी को 80 से 90 सीटें दे
रहा था। जबकि कांग्रेस को उसके आकलन के मुताबिक सिर्फ 22 सीटें मिल रही थीं। ये
अनुमान भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के असल नतीजों के कुछ नजदीक थे। बाकी सबकुछ
फेल ही नजर आया। इन एक्जिट पोल के नतीजों के बरक्स हकीकत के आंकड़ों पर नजर डालनी
चाहिए। हकीकत में बीएसपी को 206 सीटें हासिल हुईं, जबकि समाजवादी पार्टी को 97
सीटों से संतोष करना पड़ा। बीजेपी की ताकत सारे एक्जिट पोल के अनुमानों से कहीं
ज्यादा आधी रह गई और उसे महज 51 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। जबकि कांग्रेस के
खाते में 22 सीटें ही आईं। पिछले विधानसभा चुनाव के सारे एक्जिट पोल में एक तथ्य
समान था। सबने बीएसपी को कमतर करके आंका था और बीजेपी उनकी नजर में उतनी कमजोर भी
नहीं थी। लेकिन असल में क्या हुआ।
अब एक नजर मौजूदा
चुनाव के बाद हुए एक्जिट पोल पर दें तो यह हकीकत खुलकर सामने आ जाएगी। सिर्फ उत्तर
प्रदेश को ही उदाहरण के तौर पर लें। सातवें दौर का चुनाव खत्म होते ही तमाम न्यूज
चैनलों ने एक्जिट पोल के नाम पर अपने दावे करने शुरू कर दिए। ज्यादातर एक्जिट पोल
के मुताबिक उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनती हुई नजर आई।
स्टारन्यूज के एक्जिट पोल ने समाजवादी पार्टी को 183 सीटें दिया तो बीएसपी को
सिर्फ 83 सीटें देने का अनुमान लगाया। इसी तरह इस सर्वे ने बीजेपी को 71 और
कांग्रेस-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन को 62 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था। इसी तरह
चैनल न्यूज 24 ने जो सर्वे जारी किया,
उसमें उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को 185 , बहुजन समाजपार्टी को 85 तथा कांग्रेस और भाजपा 55-55 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था। एक्जिट पोल की इस
दुनिया में इंडिया टीवी-सीवोटर का भी सर्वे आया। इस सर्वे के मुताबिक समाजवादी
पार्टी को 141 सीटें हासिल हो रही थीं, जबकि बहुजन समाज पार्टी को 126 सीटें मिल
रही थीं। इसी सर्वे के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को 83 और कांग्रेस गठबंधन को 36
सीटें मिलती नजर आईं।
अब उत्तर प्रदेश के चुनाव
नतीजे आ चुके हैं। इनमें से शायद ही कोई एक्जिट पोल सही साबित हो पाया है। सारे
नतीजे गलत साबित हो चुके हैं। अगर एक-दो सही साबित भी हुए हैं तो इसलिए नहीं, कि
वे सही हुए हैं। बल्कि वे महज तुक्का भर हैं। दरअसल एक्जिट पोल के भारत में सही
साबित ना होने की दो वजहें हैं। एक वजह तो यह है कि एक्जिट पोल करने में अधिकतर
वैज्ञानिक तरीकों का ध्यान नहीं रखा जाता। दूसरा तथ्य यह है कि जैसे-जैसे न्यूज
चैनलों की संख्या बढ़ती गई है, वैसे-वैसे सर्वे करने वाली कंपनियों की बाढ़ आ गई
है। एक-एक कमरे में बैठकर दो-चार फोन करके सर्वे करने वाली कंपनियां भी हैं। एक
सर्वे कंपनी तो ऐसी है, जिसके दफ्तर में महज चार-छह लोग काम करते हैं। लेकिन वह भी
सटीक सर्वे करने का दावा करती है। एक सर्वे कंपनी के दफ्तर के लोग बाहर जाने की
बजाय दफ्तर की फोन लाइन से सौ-पचास लोगों से बात कर लेते हैं और उनकी इतिश्री हो
जाती है। दूसरी वजह है भारतीय समाज की बहुलता और बहुलवादी संस्कृति। यह बहुलवादी
संस्कृति अब भी लोगों के सामने मतदान केंद्र के भीतर की हकीकत को बाहर असल में
जाहिर करने से रोकती है। इसकी तस्दीक दिल्ली के अनुसंधान एवं विकास पहल के
संस्थापक देवेंद्र कुमार भी करते हैं। देवेंद्र कुमार के मुताबिक, 'भारतीय समाज और राजनीति की बहुलता के संदर्भ
में एग्जिट-ओपेनियन पोल हमरे लिए अनुपयुक्त है। भले ही एग्जिट-ओपेनियन पोल एक
विज्ञान है, लेकिन भारत में इसकी
अलगप्रक्रिया अपनानी पड़ेगी। करोड़ों की जनसंख्या में से हजार लोगों के रुझान को
लेकर सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।'
भारतीय लोकतंत्र कम
से कम अभी तक अमेरिका जितना विकसित नहीं हो पाया है। जहां लोग खुलकर अपने
रिपब्लिकन या डेमोक्रेट होने को जाहिर करने में कोई बुराई नहीं देखते। भारत में अब
भी वैसी स्थिति नहीं आई है। भारत में लोग अब भी वोट किसी और को देते हैं और बाहर
आकर बताता कुछ और है। भारतीय मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो भारतीय जनता
पार्टी को पसंद करता है। भारतीय जनता पार्टी को जिस तरह सांप्रदायिक राजनीति के
साथ पैबंद कर दिया है, उससे भी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भारतीय जनता पार्टी को
वोट देने के बाद भी बाहर जाहिर नहीं करना चाहता। क्योंकि उसे डर सताता रहता है कि
प्रगतिशीलता बहुल समाज में उसका यह कदम उसे सांप्रदायिक ठहरा सकता है। ऐसे में
लिहाजा भारतीय जनता पार्टी को वोट देने वाला वोटर बाहर आने के बाद भी झूठ बोलता
है। एक हद तक वामपंथी मतदाताओं के साथ भी ऐसा है। स्थानीय सामाजिक दबाव किसी खास
पार्टी को वोट देने के लिए दबाव बनाते हैं। लेकिन वह मतदाता अपने अंतर्मन के दबाव
में वोट किसी और को देता है। लेकिन बाहर निकलते ही वह सामाजिक दबाव में उस दल या
उम्मीदवार का नाम ले लेता है, जिसे वोट देने का सामाजिक दबाव होता है। एक तथ्य और
है। स्थानीयता के दबाव में दुश्मनी से बचने के लिए भी लोग झूठ का सहारा लेते हैं।
चुनाव भविष्यवाणी करने वाले जानकार भी मानते हैं कि अपने देश में चुनाव कई स्थानीय
मसलों से भी प्रभावित होते हैं। मसलन जाति-धर्म, राजनीतिक गठजोड़, चुनावी रुझान आदि। यहां मतदान के एक दिन पहले तक हुई
कोई घटना या तथ्य मतदाता को प्रभावित कर सकता है और करता भी है। फिर जातियों और
धर्मों के खांचो के साथ ही तमाम दूसरे बंधनों और बेड़ियों में जकड़े समाज में आज
भी मतदान की बड़ी वजहें ये बंधन और बेड़ियां ही हैं। शायद यही वजह है कि भारत में
मतदान के आंकड़े हर बार गड़बड़ होते हैं। इसलिए बेहतर तो यह है कि पीआरएस
लेजिस्लेटिव रिसर्च के निदेशक सीवी मधुकर की बात मान ली जाय। उनका कहना है कि एक्जिट पोल हमें सिर्फ नतीजों के संकेत देते हैं। ये वास्तविक
नहीं होते, लिहाजा इसे और वैज्ञानिकता के साथ करने की जरूरत है। लेकिन सवाल यह है
कि क्या हम एक्जिट या ओपीनियन पोल को इसी अंदाज में लेने को तैयार हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें