(यह निबंध वरिष्ठ पत्रकार अशोक मिश्र के संपादन में प्रकाशित हो रही महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है. )
उमेश चतुर्वेदी
1982 की बात है....उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में मेरे ननिहाल के नजदीकी कस्बे बैरिया में एक सिनेमा हॉल खुला। उसके मैनेजर बनाए गए थे हमारे रिश्ते के एक चाचा। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में सिनेमा देखने को चरित्र से जोड़कर देखा जाता था। ऐसी मान्यता थी कि जो सिनेमा देखता है और खासकर अगर वह छात्र हुआ तो समझो उसकी पढ़ाई-लिखाई गई तेल लेने...शायद शिक्षा से सिनेमा के बने इसी आंखमिचौली वाले रिश्ते की वजह से उन दिनों गांवों में सिनेमा देखने को चरित्रहीनता की तरह देखा जाता था.। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि ऐसी सोच के बावजूद चरित्रहीनता के इस दलदल में डूबने की इच्छा ज्यादातर दिलों की होती थी। अगर दिल नौजवान हुआ तो पूछना ही क्या...उन दिनों किशोरवास्था से गुजर रहा अपना मन भी चरित्रहीन बनने की दबी-छुपी चाहत रखे हुए था। तब तक जिला मुख्यालय तक का दर्शन महज साल में एक बार तब ही हो पाता था, जब ददरी मेला लगता था।