गुरुवार, 12 सितंबर 2013

विरोधी विचारधारा का वैचारिक बहिष्कार

उमेश चतुर्वेदी
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के हंस का 28  साल पहले नई कहानी आंदोलन की त्रयी के अहम रचनाकार राजेंद्र यादव ने जब दोबारा प्रकाशन शुरू किया था, तब एक ही उम्मीद थी कि हंस साहित्य का नीर-क्षीर विवेकी तो होगा ही, हिंदी साहित्य के रचनात्मक पटल पर अपनी अमिट छाप भी छोड़ेगा। हंस ने हिंदी की साहित्यिक रचनाधर्मिता में आलोड़न पैदा भी किया। हंस में छपी चर्चित कहानियों की सूची काफी लंबी है..उदय प्रकाश का तिरिछ  और और अंत में प्रार्थना, शिवमूर्ति का तिरिया चरितर, सृंजय का कामरेड का कोट जैसी कहानियां हंस में प्रकाशित होने के बाद महीनों तक चर्चा में रहीं..हिंदी साहित्य में हंस की उपस्थिति और उसकी हनक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसमें प्रकाशित होने के लिए रचनाकार लालायित रहते हैं...राजेंद्र यादव का संपादकीय मेरी-तेरी उसकी बात पर भी हिंदी का बौद्धिक जगत निगाहें लगाए रखता है.

सोमवार, 9 सितंबर 2013

जीवन-परिवेश से जुड़ी कहानियां

जिनकी मुट्ठियों में सुराख था
लेखिका: नीलाक्षी सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
नई दिल्ली-110003
मूल्य: 170 रु.                           
                                                     (कादंबिनी में प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
नब्बे के दशक में हिंदी पत्रकारिता में स्वीकार्य सहज शब्दों और भाषा की मान्यता ने सिर्फ पत्रकारिता को ही सपाट नहीं बनाया, बल्कि एक हद तक साहित्य को भी इसी परिपाटी ने बांध लिया। जिसका असर भाषायी बुनावट को लेकर प्रयोगधर्मिता में आई कमी के तौर पर नजर आया। लेकिन इसी दौर में रची-बढ़ी युवा कथाकार नीलाक्षी सिंह की कहानियां भाषायी बुनावट की इस मान्यता को ना सिर्फ अस्वीकार करती हैं, बल्कि अपने विषय और कथ्य के जरिए संवेदनाओं के नए वितान का दर्शन कराती हैं। नीलाक्षी की कहानियों की खास बात यह है कि वहां कथ्य जहां गंभीरता और संजीदगी के साथ हृदय प्रदेश को गहरे तक मथता जाता है तो दूसरी तरफ भाषायी बुनावट अनुभव के नए क्षितिज का चमत्कारिक ढंग से दर्शन कराती हैं। उनके ताजा संग्रह जिनकी मुट्ठियों में सुराख थामें सिर्फ छह ही कहानियां हैं। लेकिन अपने रचाव में वे औपन्यासिक विस्तार का दर्शन कराती हैं।