पुस्तक समीक्षा
उमेश चतुर्वेदी
सामंती समाज की सबसे बड़ी खामी ये रही है
कि वहां संवाद एक तरफा होता रहा है। सामंत, राज्य या राजा की तरफ से सूचनाएं और
विचार तो जनता की तरफ प्रवाहित होते रहे हैं, लेकिन जनता सामंत, राज्य या राजा के
बारे में क्या सोच रही है, उसकी अपेक्षाएं क्या हैं...इसे सामंत, राज्य या राजा की
ओर प्रक्षेपित करने की कोई सुचारू व्यवस्था नहीं रही है। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी
के दौरान यूरोप में जो बदलाव आए और सामंती समाज को लोकतांत्रिक समाज और व्यवस्था
में ढालने में मदद की, उसमें एक सार्वजनिक क्षेत्र ने अहम भूमिका निभाई। जर्मन
दार्शनिक इसी प्रक्रिया पर आधारित एक अवधारणा पेश की, जिसे उन्होंने पब्लिक स्फेयर
यानी सार्वजनिक क्षेत्र कहा जाता है। भारत में यह मान्यता रही है कि मध्यकालीन
भारतीय समाज की सोच में लोकतांत्रिक समाज की ओर बदलाव यूरोप के रेनेसां की वजह से
ही आया। पहले स्वाधीनता संग्राम तक की अवधि को देखें तो भारतीय समाज में सामंती
मूल्यों की ही प्रधानता नजर आती है। लेकिन स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बाद
भारतीय समाज का यूरोपीय समाज के साथ संपर्क बढ़ा तो यहां भी सामंती मूल्यों में
विचलन आने लगता है। निश्चित तौर पर इसमें एक बड़े वर्ग की भूमिका रही, जिसने समाज
को आधुनिकता की दिशा में आगे बढ़ाया।
हेबरमास की अवधारणा के मुताबिक भारत में इस दौरान एक पब्लिक स्फेयर का निर्माण होना शुरू हो गया। राजनीति की दुनिया
में लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे लोगों की इस
पब्लिक स्फेयर के निर्माण में महती भूमिका रही। तो सामाजिक मोर्चे पर दयानंद
सरस्वती, राजा राममोहन राय और बाद के दिनों में विवेकानंद जैसे लोगों ने बड़ा काम
किया। इसी तरह साहित्य में भारतेंदु, शिवप्रसाद सिंह सितारे हिंद प्रभृत्त लोग
दरअसल इसी पब्लिक स्फेयर की नींव रख रहे थे। निश्चित तौर पर गांधी के आने के बाद
इसमें तेजी आई और 1920 आते-आते भारतीय समाज में एक मजबूत पब्लिक स्फेयर का निर्माण
होता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की कामयाबी, सांस्कृतिक मोर्चे पर भारतीय
परंपरा के आधार पर आधुनिक अवधारणा, स्त्री शिक्षा, हिंदी का विकास और उसकी स्थिति,
सामाजिक मूल्य, लोकतांत्रिक अधिकार आदि को लेकर एक ठोस चिंतन और मूल्य तय होने
लगते हैं। वे मूल्य इतने ठोस और मजबूत हैं कि आज भी जब भी समाज, संस्कृति और
साहित्य को परखने के लिए निकष की जरूरत होती है, उसे उनके बिना काम नहीं चलता।
ब्रिटिश लेखिका
और शोधकर्ता फ्रांचेस्का ऑर्सीनी ने हिंदी की इसी लोकवृत्त की गहन पड़ताल की
है। हिंदी का लोकवृत्त 1920-1940 में
फ्रांचेस्का ऑर्सीनी ने 1920-1940 के काल खंड के दौरान हिंदी समाज के बदलते करवट
की पड़ताल की कोशिश करता है। फ्रांचेस्का मानती है कि 1920 से 1930 के दशक में
हिंदी का साहित्यिक और राजनीतिक क्षेत्र में सार्वजनिक विषयों, सार्वजनिक संचार
माध्यमों और जनता के प्रति जो प्रतिक्रिया दिखती है, वह दरअसल आदर्शमूलक है।
क्योंकि इस दौरान आते-आते हिंदी के राजनेता और संस्कृतिकर्मी मानने लगे थे, नियम
एक और मान्य होने चाहिए। मतभेदों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। खासतौर पर तीस के
दशक तक आते-आते हिंदी को लेकर एक मान्य सिद्धांत विकसित हो जाता है। गांवों के
विकास और महिलाओं की भूमिका को लेकर भी मान्य अवधारणा विकसित होने लगती है। तब
निश्चित तौर पर आज की तरह का संचार तंत्र नहीं था। लेकिन अपनी सीमित पहुंच के
बावजूद मान्य अवधारणाओं को विस्तार और प्रसार में वे भूमिका निभाने लगे थे।
निश्चित तौर पर इसमें सबसे बड़ी भूमिका तब स्थापित हो रहे शैक्षिक संस्थानों की भी
रही। हिंदी की जिस शुद्धता को आज का इलेक्ट्रॉनिक माध्यम और गिटपिटिया
अंग्रेजीभाषी समाज में अपनी बाजार की तलाश करने वाले हिंदी के अखबार हिंदी के ही
विकास में बड़ी बाधा मानने लगे हैं, उस शुद्धता की अवधारणा और उसके सार्वजनिक वृत
का निर्माण भी तीस के दशक में ही हो गया था। उस समय इससे इतर भाषा का व्यवहार जनता
के खिलाफ माना जाता था। उस समय स्थापित हुए मूल्य आज भी कितने प्रासंगिक हैं, इसका
अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भी हिंदी के विचलन की बात होती है,
उन्हीं मूल्यों के निकष पर उन्हें तौला जाता है।