उमेश चतुर्वेदी
मौजूदा हालात में जिस तेजी से भारतीय जिंदगी के तमाम क्षणों में उदारीकरण और उसके जरिए आई नई सोच ने अपनी पैठ बनाई है...उसमें भाषाई स्वाभिमान की चर्चा करना ही बेमानी है। चूंकि भारतीयता की मौजूदा अवधारणा के बीज आजादी के आंदोलन की कोख में पड़े थे, लिहाजा मध्य वय की ओर बढ़ रही पीढ़ी को भाषाई अस्मिता के सवाल नई पीढी़ की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावित और विचलित करते रहे हैं। विचलन की इस स्थिति का विस्तार इन दिनों जारी एक भाषाई आंदोलन और उसके प्रति भारतीय भाषाओं के समाज के उदासीनता बोध के चलते कहीं ज्यादा हो रहा है।
हिंदी में पहली बार 1985 में आईआईटी दिल्ली में बीटेक की प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिख चुके श्यामरूद्र पाठक और उनके दो साथी गीता मिश्र और विनोद कुमार पांडेय 4 दिसंबर 2012 से ही एक महत्वपूर्ण सवाल को लेकर दस जनपथ के सामने धरने पर बैठे हैं। रोजाना उनका धरना सुबह नौ बजे शुरू होता है और शाम को पांच बजे निषेधाज्ञा शुरू होने के बाद पुलिस द्वारा खत्म करा दिया जाता है। सबसे अहम बात यह है कि इस धरने का मकसद इस देश की करीब 97 फीसदी आबादी का वह सवाल है, जिसका सामना पैंसठ साल से इंसाफ की दहलीज पर करती रही है। इन आंदोलनकारियों की मांग इंसाफ के दरवाजे पर जूझते लोगों को उनकी अपनी जुबान में इंसाफ मुहैया कराना है।