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बुधवार, 19 मई 2010
बदलाव की आहट
उमेश चतुर्वेदी
अपने यहां जब भी किसी को प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं से इंसाफ नहीं मिलता, तो उसके पास अदालत का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई चारा नहीं होता। अदालतों से उन्हें इंसाफ भी मिलता है। संवैधानिक ताकत और रसूख रखने वाले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पर आज देश के नागरिकों का भरोसा कहीं ज्यादा बढ़ गया है। जाहिर है कि इस भरोसे की वजह वहां न्याय की अमोल कुर्सी पर बैठे न्यायाधीशों का आचरण और उनके इंसाफपसंद फैसले ही रहे हैं। लेकिन आम लोगों को कम ही पता होगा कि उपरी अदालतों के न्यायमूर्तियों की नियुक्ति में भी राजनीति होती है और अक्सर वही राजनीतिक सत्ता आखिरकार हावी हो जाती है, जिनके खिलाफ कई बार उन जजों को ही सुनवाई करनी पड़ती है। भारत के किसी हाईकोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ की आत्मकथा से गुजरते हुए इस राजनीति के दर्शन बार-बार होते हैं। अंग्रेजी के मशहूर उपन्यासकार विक्रम सेठ की मां लीला सेठ की घर और अदालत नाम से आई यह आत्मकथा छह साल पहले अंग्रेजी में ऑन बैलेंस के नाम से प्रकाशित हो चुकी है। तब इसे अंग्रेजी में हाथोंहाथ लिया गया था। लेकिन अदालती नियुक्तियों की राजनीति से हिंदी पाठकों का दस्तावेजी साबका अब जाकर पड़ा है, जब पेंगुइन इंडिया ने यह किताब हिंदी में अनूदित करके प्रकाशित की है। इस राजनीति को जानने और समझने के लिए पाठकों को किताब के शब्दों से गुजरना होगा। जिसमें लीला सेठ ने बेबाकी से लिखा है कि राजनीति के चलते वे सुप्रीम कोर्ट की जज नहीं बन पाईं और सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जस्टिस होने का गौरव केरल की जस्टिस फातिमा बीवी हासिल करने में सफल रहीं। इस पूरी कहानी को जानना और समझना इस किताब के ही जरिए हो सकता है। इतना ही नहीं, ये आत्मकथा एक ऐसी महिला के आत्मसंघर्ष की कहानी भी है, जिसके पिता की उसके बचपन में ही मौत हो जाती है। मां उसे संघर्षों में पालपोस कर बड़ा करती है और वह लड़की अपनी जिंदगी की शुरूआत रेलवे के एक अधिकारी की स्टेनो और टाइपिस्ट के तौर पर करती है। लेकिन अध्यवसाय नहीं छोड़ती और वकालत पास करके वकील बनती है और इतनी सफल वकील बनती है कि उसे यही व्यवस्था हाईकोर्ट का जस्टिस और फिर चीफ जस्टिस बनाने के लिए मजबूर हो जाती है। इस किताब में अ सूटेबल ब्वॉय के लेखक विक्रम सेठ की शब्दों की दुनिया में उतरने और कामयाब बनने की पूर्वपीठिका का भी दर्शन कराने में यह कहानी सफल रहती है।
इस स्तंभ में इस किताब की चर्चा का मकसद पारंपरिक समीक्षा नहीं है। बल्कि हिंदी प्रकाशन की दुनिया में आ रहे बदलावों को भी रेखांकित करना है। पुस्तकालयों के लिए खरीद पर केंद्रित रही हिंदी प्रकाशन की दुनिया में पेंगुइन वाइकिंग धीरे-धीरे क्रांति लाने की तैयारियों में जुट गया है। अन्यथा पारंपरिक प्रकाशन की दुनिया आज भी जुगाड़ और उसी पारंपरिक कहानी-कविता की ही दुनिया में खोयी-सिमटी है। लेकिन पेंगुइन हिंदी प्रकाशन की दुनिया के नए दरवाजों पर दस्तक दे रहा है। वैचारिकता और विमर्श से लेकर पारंपरिक खांचे से बाहर की हिंदी की दुनिया में झांकने की कोशिशें और बाजार की जरूरतों के मुताबिक मार्केटिंग के साथ उतरे पेंगुइन हिंदी प्रकाशन का चेहरा बदल रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए जब से पता चला है कि हिंदी का विशाल मध्यवर्ग बाजार की बड़ी ताकत बन कर उभरा है। उस बाजार पर कब्जा जमाने की कोशिशों में उदारीकरण वाली अर्थव्यवस्था वाली ताकतें जोरशोर से कूद पड़ी हैं। माल कल्चर के जरिए कब्जा जमाने की इस होड़ को समझा जा सकता है, जिसकी प्रक्रिया महानगरों से लेकर दूसरी श्रेणी के शहरों तक में दिखने लगी है। हिंदी के इस बाजार की चर्चा कीजिए तो पारंपरिक प्रकाशक आज भी मायूस और रोते हुए से दिखेंगे। इस रूदन के बावजूद उनकी समृद्धि बढ़ती जा रही है। लेकिन पाठकीय समृद्धि के साथ ही लेखकीय गौरव और समृद्धि की ओर उनका ध्यान नहीं है। लेकिन इस ओर ध्यान पेंगुइन ने दिया है। भारत में उदारीकरण के बाद आ रही विदेशी कंपनियों की मंशा पर अब तक न जाने कितने सवाल उठाए जा चुके हैं। लेकिन पेंगुइन पर सवाल नहीं उठ रहे हैं। जबकि वह भी हिंदी के बाजार से ही कमाई करने के लिए उतरी है। इसकी वजह यह है कि वह हिंदी के इस विशाल बाजार को प्रोफेशनल और सांस्कृतिक नजरिए से समृद्ध करने की कोशिश में ही जुटी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय और खासकर हिंदी के प्रकाशक भी ऐसे ही नजरिए से बाजार में उतरने की कोशिश करेंगे और अब तक दीनहीन समझी जाती रही हिंदी प्रकाशन की दुनिया का चेहरा बदल सकेंगे।
(यह आलेख पीपुल समाचार भोपाल में प्रकाशित हो चुका है)
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