(प्रथम प्रवक्ता पाक्षिक में प्रकाशित)
लोकतांत्रिक समाज में मीडिया हाउसों को संचालित करने वालों की प्राथमिकताएं बदल गईं हैं। वे मीडिया की महाताकत का इस्तेमाल अपनी खुद की ताकत बढ़ाने के साथ ही सत्ता और राजनीतिक तंत्र में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए करते हैं। लेकिन छद्म यह कि सब कुछ आम लोगों की सेवा और उनकी तकलीफें दूर करने के नाम पर होता है। चूंकि आज के दौर में पत्रकारिता में सफलता का पैमाना पैसा और कमाई बन गया है। इसलिए पत्रकारिता जगत के महान स्तंभ भी इसी प्रक्रिया में डूबने को अपनी प्रमुखता मान बैठे हैं। हाल के दिनों में जातियां भी मीडिया में स्थान हासिल करने और खुद को उपर पहुंचाने का माध्यम बन गई हैं। जिस मीडिया के भीतर इतने तरह के क्षरण की प्रक्रियाएं जारी हों,उसे सीधे चलाने की बजाय रिलायंस जैसे औद्योगिक घरानों ने पूंजी आधार में सेंध लगाने की तरकीब अख्तियार कर ली है। नब्बे के दशक में खुद का हिंदी और अंग्रेजी में संडे ऑब्जर्बर और अंग्रेजी में बिजनेस एंड पोलिटिकल ऑब्जर्वर निकाल चुके रिलायंस समूह ने अब खुद का मीडिया हाउस खड़ा करने की बजाय तमाम मीडिया हाउसों में निवेश करना शुरू कर दिया। सीएनएन आईबीएन समेत कई चैनल चलाने वाला टीवी 18 समूह की आर्थिक हिस्सेदारी को लेकर मीडिया में जमकर बवाल मच चुका है। कहा जाता है कि टीवी टुडे ग्रुप में भी रिलायंस की हिस्सेदारी है। इस तरह ना जाने कितने समहों में रिलायंस की हिस्सेदारी है। जब इतने सारे जगहों पर हिस्सेदारियां हों तो भला रिलायंस पर लगने वाले आरोपों को लेकर खबरें कैसे छपेंगीं। आखिर कौन सा मीडिया समूह होगा, जिसके पूंजीगत आधार में लंबी और बड़ी पहुंच रिलायंस की हो, फिर भी वह रिलायंस के खिलाफ सुर्खियां प्रकाशित करे। बेशक नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में इंडियन एक्सप्रेस समूह ने रिलायंस के खिलाफ अभियान चलाया था। लेकिन तब से लेकर आजतक के एक्सप्रेस समूह के पूंजीगत आधार में बहुत बदलाव हो चुका है। उसके प्रकाशन के चरित्र में भी बदलाव आ गया है। जिस दौर में रियल एस्टेट कंपनियां अपना पूंजी आधार बचाए रखने के लिए मीडिया क्षेत्र में उतर कर अपनी ताकत बढ़ाने की फिराक में हैं, रिलायंस ने मीडिया के पूंजी आधार को ही बदल दिया है। बात इतनी तक होती तो गनीमत थी। रिलायंस ने मीडिया में काम करने वाले लोगों को भी पटा रखा है। रिलायंस का मीडिया प्रबंधन विभाग इस मामले में बेहद दमदार है। इन पंक्तियों के लेखक को निजी रूप से जानकारी है कि रिलायंस का मीडिया विभाग किस तरह से खासकर गुलाबी और अंग्रेजी अखबारों के साथ ही हिंदी और अंग्रेजी के खबरिया चैनलों के उन लोगों की मौज कराता है, जिनके हाथ में खबरों का चयन और प्रसार पर नियंत्रण है। इसलिए रिलायंस की केजी बेसिन की गैस को लेकर विवाद हो या फिर उसके स्विस बैंक में खाते होने की कहानी, उसे मीडिया मजबूरीवश एकाध बुलेटिन या एक-दो कॉलम में निबटा देता है। जैसे ही बुलेटिनों में रिलायंस की खबरें दुहराए जाने लगती हैं, रिलायंस का मीडिया विभाग सक्रिय हो जाता है। फिर खबरें रूकनी ही हैं। ऐसे माहौल में आखिर उम्मीद किससे की जानी चाहिए। सोशल मीडिया से उम्मीद तो की जाती है। लेकिन अब उस पर नए सिरे से पहरेदारी करने की वकालत होने लगी है। ऐसे में वैकल्पिक मीडिया ही ऐसे हथकंडों की काट का एक मात्र उपाय नजर आता है। चारित्रिक क्षरण और घोर आर्थिकवाद के दौर में भी उम्मीदें अभी मरी नहीं हैं। वैकल्पिक मीडिया इन उम्मीदों का वाहक बनकर नई राह जरूर दिखाएगा।
उमेश
चतुर्वेदी
दुनिया के ज्यादातर देशों में संवैधानिक दर्जा
हासिल ना होने के बावजूद अगर आम लोगों के उम्मीदों के चिराग अगर किसी संस्था से
जलते हैं तो निश्चित तौर पर वह मीडिया ही है। लोकतंत्र के तीन अंगों से निराश और
हताश लोगों को अगर इंसाफ की उम्मीद मीडिया से बना हुआ है तो इसकी बड़ी वजह यह है
कि मीडिया को लोकतंत्र का पहरेदार माना जाता है। मीडिया के साथ पहरेदारी की यह
खासियत उसके आचरण और नैतिकता पर आधारित होती है। लेकिन क्या आज के मीडिया से चौकस
पहरेदारी की उम्मीद की जा सकती है? यह सवाल खास
तौर पर उदारीकरण के दौर में ज्यादा पूछा जाने लगा है। समाज में बदलाव के पैरोकारों
को भले ही यह निष्कर्ष नागवार गुजरे, लेकिन कड़वी हकीकत है कि हम आज के घोर
चारित्रिक क्षरण के दौर में जी रहे हैं। इसका असर मीडिया पर पड़े बिना कैसे रह
सकता है। अरविंद केजरीवाल के खुलासों के साथ मीडिया के रवैये को देखकर इसे आसानी
से समझा जा सकता है। देश के लिए अपने रक्त का आखिरी कतरा तक बहा देने वाली इंदिरा
गांधी के शहादत दिवस 31 अक्टूबर को पता नहीं रिलायंस और उससे जुड़े खुलासों के लिए
अरविंद केजरीवाल ने जानबूझकर चुना या नहीं, लेकिन यह सच है कि उस दिन अरविंद
केजरीवाल के खुलासों को लेकर मीडिया ने खास उत्साह नहीं दिखाया।
मीडिया के छात्रों
को मीडिया की एजेंडा सेट करने का एक सिद्धांत बताया पढ़ाया जाता रहा है। रिलायंस
समूह और अरविंद केजरीवाल दोनों मीडिया के एजेंडा सेटिंग सिद्धांत के बेहतर उदाहरण
हैं। अरविंद केजरीवाल का मकसद खुलासे के जरिए यह बताना था कि किस तरह
कावेरी-गोदावरी बेसिन में रिलायंस समूह को गैस के उत्पादन के लिए ठेके दिए गए और
वक्त बीतते ना बीतते किस तरह सत्ता तंत्र में अपनी पहुंच के जरिए उसने महंगी गैस
देने के सौदे सरकार से मंजूर करा लिए। सबसे बड़ी बात यह कि गैस आधारित अपनी बिजली
परियोजना के लिए साढ़े चार रूपए प्रति यूनिट गैस खरीदना राष्ट्रीय ताप बिजली निगम
को महंगा लग रहा था। लेकिन रिलायंस को इसमें घाटा महसूस हो रहा था। रिलायंस का
कमाल देखिए कि बाद में देश के तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने ‘देश
हित’ में साढ़े चौदह रूपए प्रति यूनिट पर गैस खरीदने के लिए राष्ट्रीय ताप
बिजली निगम को मंजबूर करा दिया। चूंकि अरविंद केजरीवाल इन दिनों खबरिया चैनलों के
लिए ‘बिकाऊ माल’ बने हुए हैं, लिहाजा उनकी आवाज को तत्काल
अनसुनी करना आसान नहीं रहा। लेकिन यह भी सच है कि उनके खुलासों के बाद पहरेदारी का
सिद्धांत मीडिया से और तफसील से जानकारी की मांग करता है। लेकिन मीडिया ने इस खबर
पर उत्साह दिखाना उचित नहीं समझा। सबसे बड़ी बात यह कि टाइम्स ऑफ इंडिया जोर सबसे
ज्यादा प्रतिष्ठित अखबार समूह होने का दावा करता है, वह लगाता भारतीय जनता पार्टी
के अध्यक्ष नितिन गडकरी और उनके नागपुर के मित्र अशोक संचेती को मिले कोयला खदानों
की खबरें लगातार छाप रहा है। लेकिन उसके पन्नों से रिलायंस की खबरें सिरे से नदारद
हैं। राष्ट्रपति भवन में पहुंच चुके प्रणब मुखर्जी का रिलायंस से रिश्ता कितना
गहरा है, यह किसी से छुपा नहीं है। मीडिया हाउसों को कई जानकारों ने उस दौरान
लोकसभा में रिलायंस को पालिस्टर आयात पर दिए छूट पर हुई चर्चा के दौरान तत्कालीन
विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी की मशहूर उक्ति भी मीडिया हाउसों को मुहैया
कराईं। लेकिन उस पर मीडिया के बड़े-बड़े घरानों ने भी ध्यान देने की जहमत नहीं
उठाई या उन्हें नियंत्रित करने वाले अदृश्य हाथों के डर ने उन्हें ऐसा करने से रोक
दिया। वह मशहूर उक्ति थी- ‘रिलायंस ऑर रियल एलाएंस.’
सामान्य सांसद से शान ओ शौकत वाले प्रणब मुखर्जी की इस विकास यात्रा की तरफ मशहूर
पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘बियांड
द हेडलाइन ’ में इशारे –इशारे में ध्यान दिलाने की कोशिश की
है। लोकतांत्रिक समाज में मीडिया हाउसों को संचालित करने वालों की प्राथमिकताएं बदल गईं हैं। वे मीडिया की महाताकत का इस्तेमाल अपनी खुद की ताकत बढ़ाने के साथ ही सत्ता और राजनीतिक तंत्र में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए करते हैं। लेकिन छद्म यह कि सब कुछ आम लोगों की सेवा और उनकी तकलीफें दूर करने के नाम पर होता है। चूंकि आज के दौर में पत्रकारिता में सफलता का पैमाना पैसा और कमाई बन गया है। इसलिए पत्रकारिता जगत के महान स्तंभ भी इसी प्रक्रिया में डूबने को अपनी प्रमुखता मान बैठे हैं। हाल के दिनों में जातियां भी मीडिया में स्थान हासिल करने और खुद को उपर पहुंचाने का माध्यम बन गई हैं। जिस मीडिया के भीतर इतने तरह के क्षरण की प्रक्रियाएं जारी हों,उसे सीधे चलाने की बजाय रिलायंस जैसे औद्योगिक घरानों ने पूंजी आधार में सेंध लगाने की तरकीब अख्तियार कर ली है। नब्बे के दशक में खुद का हिंदी और अंग्रेजी में संडे ऑब्जर्बर और अंग्रेजी में बिजनेस एंड पोलिटिकल ऑब्जर्वर निकाल चुके रिलायंस समूह ने अब खुद का मीडिया हाउस खड़ा करने की बजाय तमाम मीडिया हाउसों में निवेश करना शुरू कर दिया। सीएनएन आईबीएन समेत कई चैनल चलाने वाला टीवी 18 समूह की आर्थिक हिस्सेदारी को लेकर मीडिया में जमकर बवाल मच चुका है। कहा जाता है कि टीवी टुडे ग्रुप में भी रिलायंस की हिस्सेदारी है। इस तरह ना जाने कितने समहों में रिलायंस की हिस्सेदारी है। जब इतने सारे जगहों पर हिस्सेदारियां हों तो भला रिलायंस पर लगने वाले आरोपों को लेकर खबरें कैसे छपेंगीं। आखिर कौन सा मीडिया समूह होगा, जिसके पूंजीगत आधार में लंबी और बड़ी पहुंच रिलायंस की हो, फिर भी वह रिलायंस के खिलाफ सुर्खियां प्रकाशित करे। बेशक नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में इंडियन एक्सप्रेस समूह ने रिलायंस के खिलाफ अभियान चलाया था। लेकिन तब से लेकर आजतक के एक्सप्रेस समूह के पूंजीगत आधार में बहुत बदलाव हो चुका है। उसके प्रकाशन के चरित्र में भी बदलाव आ गया है। जिस दौर में रियल एस्टेट कंपनियां अपना पूंजी आधार बचाए रखने के लिए मीडिया क्षेत्र में उतर कर अपनी ताकत बढ़ाने की फिराक में हैं, रिलायंस ने मीडिया के पूंजी आधार को ही बदल दिया है। बात इतनी तक होती तो गनीमत थी। रिलायंस ने मीडिया में काम करने वाले लोगों को भी पटा रखा है। रिलायंस का मीडिया प्रबंधन विभाग इस मामले में बेहद दमदार है। इन पंक्तियों के लेखक को निजी रूप से जानकारी है कि रिलायंस का मीडिया विभाग किस तरह से खासकर गुलाबी और अंग्रेजी अखबारों के साथ ही हिंदी और अंग्रेजी के खबरिया चैनलों के उन लोगों की मौज कराता है, जिनके हाथ में खबरों का चयन और प्रसार पर नियंत्रण है। इसलिए रिलायंस की केजी बेसिन की गैस को लेकर विवाद हो या फिर उसके स्विस बैंक में खाते होने की कहानी, उसे मीडिया मजबूरीवश एकाध बुलेटिन या एक-दो कॉलम में निबटा देता है। जैसे ही बुलेटिनों में रिलायंस की खबरें दुहराए जाने लगती हैं, रिलायंस का मीडिया विभाग सक्रिय हो जाता है। फिर खबरें रूकनी ही हैं। ऐसे माहौल में आखिर उम्मीद किससे की जानी चाहिए। सोशल मीडिया से उम्मीद तो की जाती है। लेकिन अब उस पर नए सिरे से पहरेदारी करने की वकालत होने लगी है। ऐसे में वैकल्पिक मीडिया ही ऐसे हथकंडों की काट का एक मात्र उपाय नजर आता है। चारित्रिक क्षरण और घोर आर्थिकवाद के दौर में भी उम्मीदें अभी मरी नहीं हैं। वैकल्पिक मीडिया इन उम्मीदों का वाहक बनकर नई राह जरूर दिखाएगा।
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