इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
शनिवार, 12 जुलाई 2008
मराठी टीवी पत्रकार चाहिए ....
प्रतिष्ठित मराठी दैनिक सकाल के जल्द शुरू होने जा रहे मराठी टेलीविजन चैनल साम मराठी के लिए दिल्ली ब्यूरो में काम करने के लिए पुरूष और महिला रिपोर्टरों की जरूरत है। शर्त बस इतनी सी है कि उम्मीदवार मराठी अच्छी तरह लिख-बोल सकता हो। ग्रेजुएट हो और दिल्ली में महाराष्ट्र से जुड़ी राजनीति और संस्कृति की अच्छी समझ रखता हो। जो अपनी सेवाएं देना चाहते हैं, वे उमेश चतुर्वेदी से uchaturvedi@gmail.com पर संपर्क करें। शालीन व्यक्तित्व वाले 20 से 25 साल की उम्र वाले नौजवानों/ नवयुवतियों को प्राथमिकता दी जाएगी।
सोमवार, 7 जुलाई 2008
अदम्य जिजीविषा की कहानियां
उमेश चतुर्वेदी
ये समीक्षा अमर उजाला में छप चुकी है।
कैथरीन मैन्सफील्ड ने 35 वर्ष की छोटी-सी ही उम्र में जो भी रचा, उसने अंग्रेजी साहित्य में इतिहास रच दिया। कैथरीन की कहानियों के ¨हिंदी अनुवाद गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां को पढ़ते हुए कैथरीन की सोच और ¨जिंदगी के प्रति अदम्य आशावाद को देखना बेहद दिलचस्प है। कैथरीन ने जब लेखन की शुरुआत की उस दौर में कहानी को शास्त्रीय ढंग से लिखना और शास्त्रीय ढांचे में कथानक, कथोपकथन और विषयवस्तु जैसे छह उपादानों में फिट किया जाता था, कैथरीन ने नई सोच के साथ इस फ्रेम को तोड़ा। कैथरीन की कहानियां गार्डन पार्टी हो या फिर दिवंगत कनüल की बेटियां या फिर आदर्श परिवार, हर जगह ना तो कथानक है और ना ही ढांचे में बंधा हुआ कोई अंत। कहानी का अंत एकदम से अचानक भी नहीं होता। क्लाइमेक्स पर अचानक से खत्म होती कहानियों के साथ पाठक भी बिंब और भाव के धरातल पर टंगा रह जाता है। लेकिन कैथरीन की इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं से भी ये बोध जागृत नहीं होता।
कैथरीन का जन्म उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में न्यूजीलैंड में हुआ था। न्यूजीलैंड आज भी कोई तेज भागती ¨जदगी वाला देश नहीं है, जैसा कि आज यूरोप, अमेरिका और काफी हद तक भारत और चीन की हालत हो गई है। पंद्रह साल की उम्र में लंदन पढ़ने गई कैथरीन ने फिर दोबारा न्यूजीलैंड का रुख नहीं किया। उसकी ज्यादातर ¨जिंदगी लंदन-पेरिस या जर्मनी में गुजरी। लेकिन न्यूजीलैंड की स्मृतियां कैथरीन की रचनाओं में शिद्दत से उभरती रहीं। गार्डन पार्टी, मिस ब्रेल और उसका पहला नाच पढ़ते हुए न्यूजीलैंड के उस दौर की सुस्त ¨जिंदगी के एक-एक रूप सामने आते हैं।
कैथरीन की जिंदगी का पहला प्यार संगीत था। वह प्रोफेशनल चेलीवादक बनना चाहती थी। लेकिन समय के थपेड़े और अपनी उद्विग्न ¨जिंदगी की बदौलत नहीं बन पाई। लेकिन अपने लेखन में उसने अपने इस पहले प्यार को ¨जिंदा रखा है। उसका पहला नाच और संगीत का सबक जैसी कहानियों में कैथरीन ने अपने इस पहले प्यार को बखूबी बरकरार रखा है। इन कहानियों को पढ़ने के बाद ही पता चलता है कि कैथरीन को संगीत की बारीकियां किस कदर पता थीं। बहरहाल कैथरीन की इन कहानियों के जरिए पहले विश्वयुद्ध के दौर के यूरोपीय समाज और बौçद्धक वातावरण को समझने में मदद मिलती है। उम्मीद है कि ¨हदी के पाठक भी विश्व क्लासिक की इस कृति के जरिए ना सिर्फ अंग्रेजी साहित्य की इस महान कृतिकार की रचनाओं से परिचित होंगे, बल्कि बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के यूरोपीय समाज और एक विद्रोही महिला के स्वभाव से भी परिचित हो सकेंगे।
संपादक-कात्यायनी
पुस्तक - गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां
कैथरीन मैन्सफील्ड
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- - 75 रुपये।
ये समीक्षा अमर उजाला में छप चुकी है।
कैथरीन मैन्सफील्ड ने 35 वर्ष की छोटी-सी ही उम्र में जो भी रचा, उसने अंग्रेजी साहित्य में इतिहास रच दिया। कैथरीन की कहानियों के ¨हिंदी अनुवाद गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां को पढ़ते हुए कैथरीन की सोच और ¨जिंदगी के प्रति अदम्य आशावाद को देखना बेहद दिलचस्प है। कैथरीन ने जब लेखन की शुरुआत की उस दौर में कहानी को शास्त्रीय ढंग से लिखना और शास्त्रीय ढांचे में कथानक, कथोपकथन और विषयवस्तु जैसे छह उपादानों में फिट किया जाता था, कैथरीन ने नई सोच के साथ इस फ्रेम को तोड़ा। कैथरीन की कहानियां गार्डन पार्टी हो या फिर दिवंगत कनüल की बेटियां या फिर आदर्श परिवार, हर जगह ना तो कथानक है और ना ही ढांचे में बंधा हुआ कोई अंत। कहानी का अंत एकदम से अचानक भी नहीं होता। क्लाइमेक्स पर अचानक से खत्म होती कहानियों के साथ पाठक भी बिंब और भाव के धरातल पर टंगा रह जाता है। लेकिन कैथरीन की इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं से भी ये बोध जागृत नहीं होता।
कैथरीन का जन्म उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में न्यूजीलैंड में हुआ था। न्यूजीलैंड आज भी कोई तेज भागती ¨जदगी वाला देश नहीं है, जैसा कि आज यूरोप, अमेरिका और काफी हद तक भारत और चीन की हालत हो गई है। पंद्रह साल की उम्र में लंदन पढ़ने गई कैथरीन ने फिर दोबारा न्यूजीलैंड का रुख नहीं किया। उसकी ज्यादातर ¨जिंदगी लंदन-पेरिस या जर्मनी में गुजरी। लेकिन न्यूजीलैंड की स्मृतियां कैथरीन की रचनाओं में शिद्दत से उभरती रहीं। गार्डन पार्टी, मिस ब्रेल और उसका पहला नाच पढ़ते हुए न्यूजीलैंड के उस दौर की सुस्त ¨जिंदगी के एक-एक रूप सामने आते हैं।
कैथरीन की जिंदगी का पहला प्यार संगीत था। वह प्रोफेशनल चेलीवादक बनना चाहती थी। लेकिन समय के थपेड़े और अपनी उद्विग्न ¨जिंदगी की बदौलत नहीं बन पाई। लेकिन अपने लेखन में उसने अपने इस पहले प्यार को ¨जिंदा रखा है। उसका पहला नाच और संगीत का सबक जैसी कहानियों में कैथरीन ने अपने इस पहले प्यार को बखूबी बरकरार रखा है। इन कहानियों को पढ़ने के बाद ही पता चलता है कि कैथरीन को संगीत की बारीकियां किस कदर पता थीं। बहरहाल कैथरीन की इन कहानियों के जरिए पहले विश्वयुद्ध के दौर के यूरोपीय समाज और बौçद्धक वातावरण को समझने में मदद मिलती है। उम्मीद है कि ¨हदी के पाठक भी विश्व क्लासिक की इस कृति के जरिए ना सिर्फ अंग्रेजी साहित्य की इस महान कृतिकार की रचनाओं से परिचित होंगे, बल्कि बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के यूरोपीय समाज और एक विद्रोही महिला के स्वभाव से भी परिचित हो सकेंगे।
संपादक-कात्यायनी
पुस्तक - गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां
कैथरीन मैन्सफील्ड
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- - 75 रुपये।
रविवार, 6 जुलाई 2008
ये है पुरस्कारों की हकीकत !
पंजाबी साहित्यकार श्याम विमल की यह चिट्ठी जनसत्ता में प्रेमपाल शर्मा के एक लेख के प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता में प्रकाशित हुई थी। इस चिट्ठी से जाहिर है कि हिंदी में पुरस्कारों की माया कितनी निराली है। लेकिन हकीकत तो ये है कि हिंदी के इस सियासी शतरंज से दूसरी भाषाओं के पुरस्कार अलग हैं। पेश है इसी चिट्ठी के संपादित अंश -
पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...
दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'
एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।
पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...
दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'
एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।
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