सोमवार, 13 अगस्त 2012


अन्ना आंदोलन का सरोकारी तमाशा और मायूस मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख मध्य प्रदेश के कई शहरों से प्रकाशित अखबार प्रदेश टुडे में प्रकाशित हो चुका है। )
सरोकारों से दूर होने का आरोप झेलता रहे हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह आरोप नया नहीं है कि वह खुद को बचाए रखने के लिए कई बार खुद भी आखेटक की भूमिका में आ जाता है। पत्रकारिता में मान्यता रही है कि पत्रकार सिर्फ खबरों का दर्शक और साक्षी होता है और उसे ज्यों का त्यों पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के सामने रखना ही पत्रकार की असल जिम्मेदारी है। पत्रकारिता में जिस वस्तुनिष्ठता की वकालत की जाती है, उसके पीछे यही सोच काम करती रही है। ऐसा भले ही महाभारत के दौर में रहा हो, जब संजय ने ज्यों का त्यों खबर परोस दी हो, लेकिन खबरों को ट्विस्ट करना या अपने लिहाज से उसे पेश करना मीडिया की फितरत रही है।
यह बात और है कि इस ट्विस्ट में भी साख और वस्तुनिष्ठता की ईमानदार कोशिश हमेशा बनी रही है। हालांकि हाल के दिनों में यह कोशिश भी छीजती नजर आई है। शायद यही वजह है कि लोकपाल को लेकर चले अन्ना हजारे और उनके आंदोलन को लेकर भी मीडिया पर बड़े सवाल उठने लगे हैं। आरोप तो यह भी लगा है कि महानगर केंद्रित मीडिया ने इसे देश के सबसे बड़े आंदोलन के तौर पर दिखाया, जबकि जमीनी स्तर पर इसकी वह धमक नहीं थी। मीडिया के अंदरूनी गलियारों में यह चर्चा भी तेज हो गई है कि 1974 के जयप्रकाश आंदोलन जैसा  अन्ना आंदोलन को बताने के पीछे मीडिया का अपना स्वार्थ रहा है।
इन सवालों पर चर्चा के पहले हमें देखना होगा कि इस आंदोलन को लेकर मीडिया का रवैया कैसा रहा। दिल्ली के रामलीला मैदान में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अरविंद केजरीवाल ने जनलोकपाल की मांग को लेकर नवंबर 2010 की गुनगुनी धूप में जो बैठक बुलाई थी, उसे मीडिया का खास समर्थन नहीं मिल पाया था। मीडिया ने उसे रोजाना की चलताऊ बैठकों जैसी घटना की तरह कवर किया था। देशभर के एनजीओ की मौजूदगी के बीच अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को उम्मीद थी कि उनकी इस  मुहिम को लोग हाथोंहाथ लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। लेकिन फरवरी 2011 में उसी रामलीला मैदान में हुई इंडिया अगेंस्ट करप्शन की बैठक में अन्ना हजारे ने शिरकत क्या की, उसे मीडिया ने हाथोंहाथ ले लिया। अप मार्केट और डाउन मार्केट की अवधारणा से खुद की रणनीति बनाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए जनलोकपाल की मांग को लेकर शुरू हो रहे आंदोलन में अन्ना हजारे की मौजूदगी खास रही। मौजूदा टीआरपी नापने का जो पैमाना है, उसमें महाराष्ट्र और उसकी राजधानी मुंबई और गुजरात बड़ा बाजार है। जहां से ना सिर्फ टीवी चैनलों की लोकप्रियता का ग्राफ तय होता है, बल्कि आर्थिक राजधानी होने के चलते मुंबई से उसे विज्ञापन भी भरपूर मिलता है। अन्ना हजारे इसी महाराष्ट्र राज्य से आते हैं। फिर राज्य की राजनीति में अपने अनशन के जरिए उनके नाम छह मंत्रियों की बलि लेने का श्रेय भी हासिल था। तमाशा पसंद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अन्ना का महाराष्ट्र से होना और छह मंत्रियों की बलि लेना बाजार और रेटिंग दोनों के लिहाज से माकूल लगा और उसने इस आंदोलन को हाथोंहाथ ले लिया। अप्रैल 2011 में जंतर मंतर पर बैठते ही अन्ना हजारे और उनका आंदोलन ऐसी अपमार्केट खबर बन गया, जिसे टीआरपी के पैमाने भी मापे जा सकते थे, उन्हें हासिल भी किया जा सकता था और इसके बहाने सरोकारों की बात भी की जा सकती थी। यानी मीडिया के लिए यह मौका ना हर्रे लगे ना फिटकरी और रंग चोखा-चोखा वाली हालत हो गई।
नाग-नागिन नचाने, बिना ड्राइवर की कार चलाने, फर्जी स्टिंग करने जैसे उद्यमों के जरिए टीआरपी हासिल करने वाले मीडिया पर सरोकारों से दूर होते जाने का आरोप हाल के सालों में कुछ ज्यादा ही लगा है। ऐसा नहीं कि ये आरोप सतही है। हकीकत तो यह है कि गंभीर कंटेंट से हिंदी के खबरिया चैनल दूर भी हुए हैं। बिल्कुल नई पीढ़ी के पत्रकारों को ये आरोप और सवाल भले ही असहज ना करते रहे हों, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों के लिए ये सवाल शर्मिंदगी की वजह रहे हैं। ऐसे माहौल में शहरी मध्यवर्ग को आंदोलित करने वाले अन्ना आंदोलन और जंतर-मंतर से लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान तक मिले भारी जनसमर्थन ने जैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपनी खोई साख हासिल करने का मौका दे दिया। आमतौर पर मीडिया खेलों की रिपोर्टिंग में ही पक्षकार की भूमिका में नजर आता रहा है। लेकिन उसने अन्ना के आंदोलन को ना सिर्फ हाथोंहाथ लिया, बल्कि उसके पक्षकार के तौर पर भी उभरा। यही वजह है कि टीम अन्ना के सवाल उसके अपने सवाल बन गए और इन सवालों की कसौटी पर उसने सरकार और राजनीतिक दलों से जवाब भी मांगने शुरू कर दिए। यह सच है कि कारपोरेटीकरण और नई आर्थिकी के दौर में भारतीय अखबारों से भी मुद्दे गायब हो रहे हैं। फिर भी उनके यहां मुद्दों के लिए कुछ जगहें हैं और इसकी वजह यह नहीं है कि मीडिया को संचालित करने वाला कारपोरेट ऐसा चाहता है, बल्कि यह इसलिए संभव हो रहा है, क्योंकि प्रिंट माध्यम के साथ दो सौ साल का इतिहास और स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य भी रहे हैं। इन मूल्यों में छीजन के बावजूद उनकी तासीर अब भी प्रिंट माध्यमों पर है। दूसरी बात यह है कि प्रतियोगिता के दौर में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के साथ प्रिंट माध्यम को भी भिड़ना पड़ रहा है। इस वजह से कई बार वह इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के मुद्दों को भी उठाने के लिए मजबूर होता है। चूंकि अन्ना का आंदोलन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के लिए सरोकार आधारित महान तमाशा था और उसे वे पूरी शिद्दत से बतौर पक्षकार कवर कर रहे थे, लिहाजा इस दबाव में प्रिंट माध्यमों को भी झुकना पड़ा और उसने भी इस आंदोलन को हाथोंहाथ लिया। यही वजह है कि अन्ना के आंदोलन पर सवाल नहीं उठे। मीडिया दबाव में ऐसा माहौल भी बन गया कि इस अन्ना आंदोलन पर सवाल उठाने वाले की हैसियत काफिर जैसी हो जाती। लेकिन यह कहना भी ज्यादती ही होगी कि मीडिया ने इस आंदोलन को बढ़चढ़कर दिखाया। भ्रष्टाचार से रोजाना दो-चार होने को अभिशप्त भारतीय समाज को इस आंदोलन से नई उम्मीद मिली। यही वजह है कि राजस्थान के जैसलमेर जिले की सुदूर ढांणियों से लेकर नेपाल सीमा के उन गांवों तक में अन्ना के समर्थन में मोमबत्तियां जल उठीं, जहां अब भी बिजली सपना है। उन इलाकों में भी लोगों ने अन्ना आंदोलन के समर्थन में आवाज उठाए, जहां की आवाज अब तक हाशिए पर ही है। यानी अन्ना के आंदोलन को मीडिया ने उछाला जरूर, लेकिन उसे जनसमर्थन भी भरपूर मिला। इससे आंदोलन को भी फायदा हुआ और मीडिया तो खैर उठा ही रहा था। वह टीआरपी और सर्कुलेशन बढ़ा रहा था और पेड न्यूज के कालिख को धो भी रहा था। मीडिया का यह दुर्भाग्य ही रहा कि टीम अन्ना उसके इस सहयोग का फायदा उठाती रही, लेकिन मीडिया की मंशा के मुताबिक काम करने से इनकार करती रही। यही वजह है कि जब से टीम अन्ना ने राजनीति में जाने का ऐलान किया है या टीम अन्ना ही खत्म कर दी गई है, तब से मीडिया खुद को ठगा महसूस कर रहा है। उसे कम से कम से टीम अन्ना या अन्ना से ही ऐसी उम्मीद नहीं थी। उसे लगता था कि अपनी राजनीतिक मजबूरियों और मंशा के चलते सरकार जनलोकपाल बनाने में नाकाम रहेगी और टीम अन्ना उसके खिलाफ अपना अभियान जारी रखेगी और यह अभियान उसके लिए सरोकारी कमाऊ का महान तमाशा बना रहेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शायद यही वजह है कि कभी अन्ना आंदोलन का पक्षकार रहा मीडिया पुरजोर तरीके से सवाल भी नहीं उठा पा रहा है।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
उमेश चतुर्वेदी
द्वारा जयप्रकाश
एफ-23 ए, दूसरा तल
निकट शिवमंदिर, कटवारिया सराय
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