शनिवार, 10 मई 2008

Two things have died in the media - outrage and compassion

P. Sainath
ये पहला मौका है जब मीडिया मीमांसा पर अंग्रेजी में कोई लेख पेश किया जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और द हिंदू के एडिटर एग्रीकल्चर अफेयर पी साईनाथ ने एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान के तहत पेश किया था।
We are in the middle of the greatest agrarian crisis seen in this country
since the Green Revolution. Millions have left their villages for other
villages, towns and cities in search of jobs which are not there. Eighty
lakh people quit farming between 1991 and 2001.
Did the Indian media do this story? Here are the basic assertions I make in
connection with the media and the agrarian crisis. One, the fundamental
feature of the media of our times is the growing disconnect between the mass
media and the mass reality. Two, there is a structural shutout of the poor
in the media. Three, there is a corporate hijack of media agendas. Four, of
the so-called four estates of democracy, media is the most exclusive and the
most elitist.

The moral universe of the media has shifted. Two things have died-outrage
and compassion. You have a lot of drawing-room outrage, but not over issues
that moved earlier generations of journalists. The structural shutout of the
poor is evident in the way beats are organised in newspapers. You have
fashion, design and glamour correspondents. In a country with the largest
number of rural poor, you do not have one full-time correspondent on the
beat of rural or urban poverty.

In a country whose unemployment is simply stunning, the labour correspondent
is extinct. 2006 was the worst year of farmer suicides. How many national
media journalists were covering the agrarian crisis in Vidarbha? There were
six. But there were 512 journalists covering the Lakme Fashion Week in
Mumbai.

What were the girls displaying at the Fashion Week? Cotton garments. One
hour's flight away from Mumbai, the men and women who grew that cotton were
committing suicide at the rate of six a day. Wasn't that a story? There is
journalism and there is stenography; 80 per cent of journalism you are
reading or viewing today is stenography. Everyone knows there is a crisis of
credit. Thanks to the loan waiver. How many of your newspapers or channels
have told you that the guys who are claiming that they have expanded credit
have closed down 4,750 bank branches in the last 15 years?

The Census and the National Sample Survey narrow down migration to mean
people leaving the villages for the city. Since 1990s, migrations are more
complex. There is rural-to-rural, rural-to-metro migration,
rural-to-semi-urban, urban-to-urban and finally urban-to-rural migration.
Yes, urban-to-rural migration is there because wages have collapsed in the
countryside and small businesses are moving there to utilise cheap labour.

In Gondia, Maharashtra, every morning hundreds of urban women journey into
rural Vidarbha for work. There is the economic survey put by the finance
minister in Parliament every Budget session. What has stopped the media from
picking up the story it tells you? Per capita availability of foodgrain has
fallen from 510gm a day in 1991 to 422gm in 2005-a fall of 88gm for one
billion people for 365 days a year! That means your average family is
consuming 100kg less of foodgrain than it consumed a decade ago. Where is
your outrage?

You have a price rise. There is a differential impact of this on different
classes of society. But look at some of the stories that are coming-that in
a middle class family, the son cannot take cricket coaching because of the
price rise!
Where we should have told stories, we sold products. Where we needed
scepticism, we exercised sycophancy. Where we needed journalism at its best,
we produced stenography at its worst. We continued to cordon the elite and
turn our backs on millions experiencing despair. We turned the great
principle of journalism upside down which was to comfort the afflicted and
afflict the comfortable.

गुरुवार, 8 मई 2008

मंत्री जी का इंतजार है ...

भारत सरकार के एक स्वायत्तशासी संस्थान में मंत्री जी के हस्तक्षेप को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक पद पर पी वेणुगोपाल की फिर से बहाली के बाद से उम्मीद बढ़ गई है कि इस संस्थान में मंत्री जी और सरकार की दखलंदाजी पर रोक लगेगी। लेकिन भारत सरकार के ही एक संस्थान के छात्रों का कोर्स खत्म हुए हफ्ते बीत गए। लेकिन दीक्षांत समारोह होना बाकी है। इसलिए- क्योंकि मंत्री जी को फुर्सत ही नहीं है कि वे छात्रों का डिप्लोमा बांट सकें।
भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के स्वायत संस्थान भारतीय जनसंचार संस्थान के पत्रकारिता और विज्ञापन के छात्रों का कोर्स बीते हफ्ता से भी ज्यादा हो गया है। तीस अप्रैल को सत्र भी खत्म हो गया। लेकिन छात्रों को डिप्लोमा नहीं दिया जा सका है। दरअसल सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी को तीस अप्रैल को ही डिप्लोमा देना था। लेकिन वक्त की कमी के चलते उन्होंने ये कार्यक्रम रद्द कर दिया। संस्थान भले ही स्वायत्तशासी हो- लेकिन संस्थान के अधिकारी स्वायत्त नहीं है। वे मंत्री जी की मिजाजपुर्सी का भला मौका क्यों चूकें। लिहाजा छात्र इंतजार कर रहे हैं।
मीडिया का प्रमुख प्रशिक्षण संस्थान होने के बावजूद भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसी के साथ सरकार का रवैया हमेशा टालू रहा है। कई महीने से निदेशक का पद खाली है। मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव महोदय निदेशक की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। सूचना सेवा के अधिकारी जयदीप भटनागर रजिस्ट्रार बन गए हैं। संस्थान की गा़ड़ियां संस्थान की बजाय मंत्रालय के काम आ रही हैं। मंत्रालय के अफसर उन पर तफरी कर रहे हैं। एक प्रमुख विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष संस्थान के उपकरणों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें हिंदी वालों को पढ़ाने से एलर्जी है और फिर भी वे वर्षों से इस संस्थान में जमे हुए हैं। संस्थान की अफसरशाही का ये हाल है कि संस्थान की पत्रिकाओं के लेखकों का पारिश्रमिक का भुगतान बिना मंत्रालय की अनुमति के नहीं कर पा रहे हैं।
क्या आप सोचते हैं कि आईआईटी और आईआईएम में ऐसा होता तो मीडिया चुप रहता। लेकिन मीडिया के शिशुओं को ट्रेनिंग देने वाले संस्थान के साथ ऐसा हो रहा है और मजे की बात ये है कि मीडिया चुप है। लाख टके का सवाल ये है कि आखिर क्यों चुप है मीडिया.. और यक्ष प्रश्न ये है कि कब टूटेगी ये चुप्पी और कब सुधरेगा भारत सरकार का ये प्रीमियर संस्थान।

बुधवार, 7 मई 2008

पुरस्कारों की माया...

उमेश चतुर्वेदी
करीब आठ साल पहले की बात है। मेरे तब के बॉस शरद द्विवेदी ने एक दिन मुझसे कहा कि तुम्हें भी एक पुरस्कार दिला देते हैं। उन दिनों मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर राजनीतिक संवाददाता काम कर रहा था और दिल्ली की पत्रकारिता जगत में दद्दा के नाम से विख्यात शरद द्विवेदी हमारे बॉस थे। दिल्ली में मुझे भले ही अब तक कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन जब तक मैं बलिया में पढ़ता था, तब तक मुझे कई पुरस्कार मिल चुके थे। भोजपुरी कहानी लेखन, बाल साहित्य लेखन और लघुकथा लेखन के लिए मुझे कई पुरस्कार मिल चुके हैं। बलिया में रहते वक्त मैं संकोची और अनाम सा लेखक था, लेकिन पुरस्कार चल कर मेरे दरवाजे तक आए। गोरखपुर रेडियो में प्रोग्राम का न्यौता भी मिला। तब तक मैंने कहीं कोई अप्रोच नहीं किया था। दुख की बात ये है कि रोजी-रोटी के दबाव में अब न तो लघुकथा ही लिख पाता हूं ना ही भोजपुरी कहानियों की रचना के लिए धैर्य बचा। यही हाल बाल साहित्य लेखन के साथ भी है। शरद जी ने जब ये प्रस्ताव दिया तो मुझे खुशी भी हुई और लगा कि कुछ फायदा हो जाएगा। तब मैं भले ही दैनिक भास्कर में काम करता था, लेकिन वेतन इतना कम था कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता था। इसलिए मुझे इधर-उधर काफी फ्रीलांसिंग करनी पड़ती थी। तब जाकर दिल्ली में जीने लायक पैसों का जुगाड़ हो पाता था। ऐसे में शरद जी का प्रस्ताव मेरे लिए सुखद अहसास जैसा था। मुझे लगा कि मेरे किसी लेख पर कोई संस्था प्रभावित हुई है और उसने मुझे पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। लेकिन जब शरद जी से पता चला कि ये पुरस्कार एक संस्था थोक के भाव से हर साल देती है और वह सिर्फ पुरस्कार देने के लिए नामों का चुनाव करती है। जिसमें ज्यादातर लोग संस्था के कर्ता-धर्ता के परिचित हैं तो मैंने ऐसा पुरस्कार लेने से साफ इनकार कर दिया। कहना ना होगा, इस संस्था के जरिए हर साल कई अनाम लोग किसी मंच पर पुरस्कृत होने का सुकून और सुख पा लेते हैं और फिर से अनाम की तरह विलीन हो जाते हैं।
यहीं पर याद आती है एक पत्रकार मित्र की गर्वोक्ति। हमारे ये जानकार पत्रकार एक प्रोडक्शन हाउस के सर्वेसर्वा हैं। अजित सिंह समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई राजनेताओं से उनका परिचय है। परिचय ही नहीं-घरापा है। एनडीए शासन के दौरान एक शाम अपने दफ्तर में वे मुझे बताने लगे कि मेरे पास भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार के तहत बाल साहित्य की रचनाएं परखने के लिए आई हैं। लगे हाथ वे ये भी बताने से नहीं हिचके कि उनके पास वक्त की कमी है- लिहाजा उन किताबों को वे नहीं देख पा रहे हैं। मुझे लगा कि मेरे मित्र बाल साहित्य में भी गहरी पैठ रखते हैं। लेकिन जब उन्होंने खुद ये बताया कि बाल साहित्य में ना तो उनकी रूचि है ना ही वे कभी ऐसा साहित्य पढ़ते हैं। बाल साहित्य में कभी उन्होंने अपनी कलम भी नहीं आजमाई है। तो चौंकने की बारी मेरी थी। दरअसल वे महज रूतबे के लिए परीक्षक बन गए थे और उनके चाहने वाले राजनेताओं ने उनका नाम सुझा दिया था।
हिंदी साहित्य में पुरस्कारों पर अक्सर सवाल उठाए जाते रहे हैं। मजे की बात ये है कि ये सवाल अक्सर पत्रकारों की ही ओर से मीडिया में जोरशोर से उठाए जाते हैं। लेकिन अब ये ही सब पत्रकारिता में भी हो रहा है। चहेते लोगों को पुरस्कार और फेलोशिप दी जा रही है और पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए चिंता भी जताई जा रही है। यानी रोग के मूल में जाने की कोशिश नहीं हो रही है। लेकिन रोग पर चिंताएं भी खूब जताई जा रही हैं। अभी हाल तक हिंदी की एक महिला पत्रकार जगह-जगह अपने संपादक को इसलिए गाली देती फिर रही थीं कि उनकी बजाय उनकी एक सहकर्मी को जगह-जगह पुरस्कृत किया जा रहा है। रसरंजन के बाद वे अपने संपादक को गाली देने से भी नहीं चूकती थीं। लेकिन उनके नजदीकी लोगों का कहना है कि अब उनका गुस्सा शांत हो गया है। उन्हें भी फेलोशिप मिल गई है। संपादक जी को अब भी गाली देती हैं- लेकिन गाली की वजह बदल गई है।
ऐसे में पत्रकारिता का कितना भला होगा - ये समझना आसान है। ऐसा नहीं कि मूल्यों और प्रतिबद्दता की पत्रकारिता करने वाले लोग नहीं हैं। लेकिन पुरस्कार और फेलोशिप देने की हैसियत में उनके कोई परिचित नहीं हैं। लिहाजा वे हाशिए पर हैं। माफ कीजिएगा, कथित मुख्यधारा में वे हाशिए पर हैं। लेकिन पाठकों की दुनिया में सही मायने में उनका ही राज है। क्योंकि फेलोशिप और पुरस्कार से दूर वे सिर्फ और सिर्फ सरोकारों की पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।