शुक्रवार, 4 जून 2010

वितंडा का ब्लॉग



उमेश चतुर्वेदी
ब्लॉग यानी वेब लॉग के बारे में माना जाता है कि इससे आम अभिव्यक्ति को नया आयाम मिला है। वर्चुअल दुनिया के इस अपूर्व माध्यम ने उन लोगों को भी अभिव्यक्ति के लिए ऐसा स्पेस मुहैया कराया है, जिनके विचारों और समस्याओं को आधुनिक मीडिया के पारंपरिक माध्यमों में जगह नहीं मिल पाती। इससे मुक्त अभिव्यक्ति को नया आयाम मिला है। ऐसा माना जा रहा है कि हिंदी में इन दिनों कम से पंद्रह हजार ब्लॉग सक्रिय हैं। जिन पर लोग अपने विचारों, अपनी रचनाधर्मिता को मुक्त भाव से अभिव्यक्त कर रहे हैं। ये ब्लॉग तमाम तरह के विषयों पर केंद्रित हैं- धर्म, समाज, साहित्य, राजनीति, संस्कृति, अर्थ व्यवस्था, विज्ञान और सेक्स समेत तमाम तरह की चर्चाएं आज ब्लॉगिंग के केंद्र में हैं। इस लिहाज से देखें तो इंटरनेट की दुनिया में हिंदी नए तरह से करवट ले रही है।
लेकिन दुख की बात यह है कि अभिव्यक्ति का सबसे नया यह जनमाध्यम भी पारंपरिक मीडिया के रोगों से ग्रस्त हो चुका है। खबरिया चैनलों को इन दिनों हर दूसरा व्यक्ति उनकी कंटेंट और भाषा को लेकर गाली देता मिल जाएगा। खबरिया चैनलों पर आरोप है कि वे टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी के लिए कंटेंट और भाषा से खिलवाड़ कर रहे हैं। अफसोस की बात यह है कि ब्लॉगिंग की दुनिया के कुछ अहम खिलाड़ी भी इन दिनों सनसनीखेज पत्रकारिता की ही राह पर चल पड़े हैं। जिनके लिए अपनी हिट बढ़ाने का एक ही तरीका नजर आ रहा है, कंटेंट और भाषा के साथ परोसे जाने वाले विषयों के साथ खिलवाड़ करो। ताकि उनकी चर्चा हो और वर्चुअल दुनिया के यायावर उनके पास चले आएं और उनकी हिट को बढ़ाएं ताकि वे वर्चुअल दुनिया में अपनी बादशाहत को साबित कर सकें। यह कुछ वैसे ही हो रहा है, जैसे हाल के दौर तक हिंदी के खबरिया चैनल नाग-नागिन को नचाने से लेकर एलियन के हाथों गायों को धरती से अंतरिक्ष की दुनिया में भिजवाते रहे हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया में इतना अतिवाद नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि सतही विषयों को सनसनी की चाशनी में जमकर परोसा जा रहा है। और हमारी जो मानसिक बुनावट है, हमारा जो सामाजिक ढांचा है, उसमें तात्कालिक तौर पर सनसनी की चाशनी बेहद मीठी और लुभावनी लगती है। लिहाजा इस चाशनी को परोसने वाले ब्लॉग इन दिनों हिट हैं।
इंटरनेट के खोजकर्ता देश अमेरिका में ब्लॉगिंग की दुनिया इससे कहीं आगे निकल गई है। वहां तो सही मायने में वर्चुअल दुनिया का यह माध्यम आज मुख्यधारा के मीडिया से कम से कम मुक्त और जिम्मेदार अभिव्यक्ति के माध्यम के तौर पर जबर्दस्त टक्कर दे रहा है। पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की ताजपोशी में जिन कारकों की प्रमुख भूमिका रही, उसमें एक बड़ा कारक वहां के जिम्मेदार ब्लॉगर और ब्लॉगिंग ही रही। वहां का मुख्यधारा का मीडिया जार्ज बुश जूनियर के बारे में तकरीबन वही लिख या दिखा रहा था, जो वे चाहते थे। अफगानिस्तान और इराक युद्ध की हकीकत से आम अमेरिकी का एक बड़ा वर्ग अनजान था। लेकिन जिम्मेदार और सक्रिय ब्लॉगरों ने उसे अनजान नहीं रहने दिया। अमेरिकी सेनाओं की अफगानिस्तान और इराक में करतूत और इससे हो रहे नुकसान को ब्लॉगरों ने बखूबी बयान किया। इसके चलते रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉन मैकेनन को अपनी तमाम अच्छाइयों के बावजूद हार का मुंह देखना पड़ा। क्योंकि वे उस जार्ज बुश के उत्तराधिकारी बनने चले थे, जिनकी नीतियों की वजह से अमेरिकी सेनाएं इराक और अफगानिस्तान में फंसी पड़ी हैं।
हिंदी की ब्लॉगिंग की दुनिया अभी इतना परिपक्व नहीं हो पाई है। यह कहना भी एक तरह का अतिवाद ही होगा। यहां कानून, भाषा, सिनेमा, रेडियो और विभिन्न दार्शनिक और राजनीतिक विचारों को लेकर ब्लॉगिंग की दुनिया में महत्वपूर्ण काम हो रहा है। लेकिन वितंडावादी ब्लॉगिंग के चलते उनकी पहुंच बेहद सीमित है। उनके बारे में कम ही लोग जान पाते हैं। लेकिन ये तय है कि जिस तरह भारत के दूसरे और तीसरे दर्जे तक के शहरों से लेकर गांवों की चौपाल तक इंटरनेट की पहुंच बढ़ती जा रही है, मुक्त अभिव्यक्ति का यह जनमाध्यम और सशक्त बनकर उभरेगा। तब सनसनी की चाशनी की मिठास कड़वे स्वाद में बदलती नजर आएगी।
( यह लेख भोपाल से प्रकाशित अखबार पीपुल्स समाचार में छप चुका है। )