रविवार, 5 अक्टूबर 2008

अब नौसिखुओं का कौन खयाल रखेगा...

वाराणसी के पत्रकार सुशील त्रिपाठी की असामयिक मौत सहारा समय उत्तर प्रदेश चैनल के सीनियर प्रोड्यूसर राजकुमार पांडेय के लिए व्यक्तिगत क्षति है। सुशील जी उनके गुरू भी रहे हैं और हम-प्याला, हम-निवाला मित्र भी। राजकुमार पांडेय ने अपने इस मित्र, गुरू और हमदम को भावभीनी श्रद्धांजलि पेश की है।
बगल में कुछ कागज़ात, बालों पर लगा चश्मा और कुछ सोचते हुए चलते जाना। ऐसे ही मैंने देखा सुशील जी को। तकरीबन 92-93 में मुझे आज इलाहाबाद में नौकरी मिली और सुशील जी वहां बड़े पत्रकार थे। साल भर तक सिर्फ नमस्कार बंदगी का ही संबध रहा। वे रिपोर्टिंग में बैठते थे और हम डेस्क के लोग लीडर प्रेस बिल्डिंग के हॉल में। डाक डेस्क पर काम था लिहाजा जब रिपोर्टिंग का काम शुरु हो रहा होता था उससे पहले डेस्क और खास तौर से डाक डेस्क का काम सिमट रहा होता था, क्योंकि सिर्फ दो या शायद चार पन्ने ही इलाहाबाद से छपते थे। बाकी का अखबार बनारस से आता था। वही बनारस जहां का आज अखबार था और सुशील त्रिपाठी भी। इस लिहाज से भी हम जैसे नए लोगों के लिए सुशील जी बहुत बड़े थे। बस नमस्कार करना और निकल लेना, इससे ज्यादा का ताल्लुक नहीं था।
एक दिन दोपहर में किसी कारण से मेरे डेस्क इंचार्ज ने कोई रिपोर्ट करने भेज दिया। शायद दफ्तर में कोई नहीं था। रिपोर्ट करके लाया। अगले दिन रिपोर्ट मेरे नाम से यानी बाई लाइन अखबार में छप गई। इससे पहले शायद आज अखबार में एक दो ही रिपोर्ट बाई लाइन छपी थी। अगले ही दिन मुझे अपने डेस्क इंचार्ज के जरिए फरमान मिला कि अब रिपोर्टिंग करनी है। बाद में पता चला कि डेस्क से रिपोर्टिंग में मुझे लाने का आदेश सुशील जी की पहल पर ही मिला था। बहरहाल मैं अपने मनचाहे काम पर लग गया था। धीरे धीरे वह बीट भी मिल गईं, जो इलाहाबाद में रहते हुए अहम होती हैं। फिर भी सुशील जी के कारण मेरे पास सिटी पेज बनवाने की जिम्मेदारी होती थी। आज में उन दिनों पेस्टिंग के जरिए ही पेज बनता था। इससे भी लगातार मुझे सीखने को मिलता रहा।
इस दौरान सुशील जी से निकटता बढ़ती रही और उनके बहुआयामी सृजनात्मक व्यक्तित्व को देखने के मौके मिलते रहे। मैने देखा कि किस तरह से वे छोटी छोटी सी चीजों पर भी अपना असर डालते थे। जब भी मेरी या किसी और युवा रिपोर्टर की कोई खबर उन्हें अच्छी लगती, वे उसी समय पेज पर खुद ही केरिकेचर बना देते थे और हम लोगों के लिए ये किसी इनाम से कम नहीं होता। मेरे एक और साथी राजेश सरकार को कभी -कभार ये पुरस्कार मिलता था। जब भी उनसे किसी नए मुद्दे पर कोई बात होती, कहते – अरे चिरकुट यही लिख क्यों नहीं देते।
और लगातार सुशील जी लिखते रहे। इलाहाबाद के बौद्धिक हलके में उनके तकरीबन हर रिपोर्ट की चर्चा जरुर होती थी। जब संघ परिवार के विशेष अनुरोध पर शिव परिवार दूध पी रहा था, उस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश होता था। मैं किसी काम से सिविल लाइंस में बैठा था। वहीं से दफ्तर फोन कर सुशील जी को नमस्कार किया। उन्होंने हाल चाल पूछते हुआ अपना तकिया कलाम पढ़ा- और... मैने कहा बहुगुणा जी भी दूध पी रहे हैं। उन्होंने फिर पूछा – अबे तुमने पिलाया या नहीं। मैंने सहजता से बता दिया- मां मंदिर में गई थी, लेकिन कह रही थी कि भीड़ में धक्के से दूध चम्मच से छलक गया, गणेश जी ने नहीं पिया। फिर सुशील जी ने लगभग हड़काया- अरे चिरकुट सब जगह हंगामा है आकर यही सब लिख डालो। मै दफ्तर पहुंचा। रिपोर्ट बनायी, जैसा देखा था, बहुगुणा के आदमकद प्रतिमा का दूध पीना और मां के चम्मच से दूध छलकना, वगैरह सब कुछ लिख डाला। अगले दिन मेरी रिपोर्ट तो बाटम के रूप में छपी, लेकिन बाई लाइन नहीं थी। अलबत्ता सुशील त्रिपाठी की रिपोर्ट पूरे पेज भर की थी और हमेशा की तरह 16 प्वाइंट की बाई लाइन थी। कोफ्त हुई और नाराज़गी भी। बाद में पता चला कि नगवा कोठी (आज के मालिकों के निवास स्थान) ने भी पर्याप्त मात्रा में गणेश जी को दूध पिलाया था। साथ ही किसी ने सुशील जी से इसका जिक्र भी कर दिया था। सुशील जी ने अपनी रिपोर्ट में ये भी तंज किया -जो जितना बड़ा है उसने उतना ही दूध पिलाया। पता चला कि सुशील जी का तो कुछ नहीं हुआ लेकिन अगर मेरी रिपोर्ट बाइ लाइन होती मेरी खैर नहीं थी। मैं तो निपटा ही दिया जाता।
फिर मैं दिल्ली आ गया और सुशील जी बरेली के रास्ते वापस बनारस पहुंच गए। उनसे लंबी मुलाकात इलाहाबाद के पिछले अर्धकुंभ मेले में ही हो पाई। उस दौरान भी उनका एक्टीविस्ट जगा हुआ था। उनका कहना था कि ये मेला बौद्धों का मेला था और इसे ब्राह्मणों ने कब्जा किया। इस पर उन्होंने काफी लिखा भी था। उनकी आखिरी रिपोर्ट भी बौद्ध चिह्नों के खोज पर ही थी। सुन कर लगा कि सुशील जी सच्चे पत्रकार थे और हमेशा खोज में लगे रहते थे। उनकी शख्सियत के दूसरे पहलू चित्रकारी में भी उनका यही रूप दिखता रहा है। उन्हें बनारसी परंपराए लुभाती तो थीं, लेकिन वे पोंगापंथी के विरोध में ही रहते थे। जब से उनके जाने की खबर सुनी तो हर मिलने वाले से उनकी ही बातें करने का मन होता रहा। वैसे भी जिसने उन्हें देखा है उसके लिए उन्हें भुला पाना मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि कभी भी आवाज आ सकती है.. का बे या फिर का गुरु.......