उमेश चतुर्वेदी
केंद्र सरकार ने खबरिया चैनलों पर जब से कंटेंट कोड लागू करने की तैयारियां शुरू की है- तब से इन चैनलों पर लगने वाला एक आरोप फिर जोर-शोर से उठने लगा है। आरोप ये है कि इन चैनलों पर खबरें नहीं हैं- खबरों की बजाय ये चैनल भूत-प्रेत और ऐय्यारी की कथाओं के बहाने टीआरपी बटोर रहे हैं। आरोप तो ये भी है कि खबरिया चैनलों से आम आदमी दूर होता जा रहा है। कम से कम हिंदी चैनलों पर आम आदमी का दुखदर्द कहीं नहीं दिखता। देश में भूख, कर्ज और गरीबी से लोगों की मौतें हो रही हैं, किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं, लेकिन खबरिया चैनलों पर इनकी अनुगूंज नहीं सुनाई दे रही है।
भारत में आधुनिक मीडिया ने सवा दो सौ साल से ज्यादा की यात्रा कर ली है। (जेम्स ऑगस्टस हिक्की का बंगाल गजट एंड जेनरल एडवर्टाइजर यानी हिक्की गजट 1780 में निकला था। यानी पिछले दस-बारह सालों का इतिहास छोड़ दें तो कमोबेश ये विकास यात्रा असल में प्रिंट मीडिया की विकास यात्रा है। सवा दो सौ साल से ज्यादा की प्रिंट मीडिया की उम्र के सामने टेलीविजन अभी बच्चा ही है। दस-बारह साल की उम्र सवा दो सौ साल के सामने कहीं नहीं ठहरती। इस वजह से खबरिया चैनलों की इस भूल को उदारवादी मीडिया समीक्षक माफ करने की सलाह देते हैं। आशावादी नजरिये से वे मानते हैं कि भारत में टेलीविजन एक दिन जिम्मेदार मीडिया जरूर बनेगा। लेकिन पारंपरिक सोच रखने वाले लोगों को मीडिया का वाच डॉग वाला स्वरूप ही ज्यादा मुफीद नजर आता है और वे चाहते हैं कि खबरिया चैनल इसी ढर्रे पर ही काम करें। लेकिन ऐसी सोच रखने वाले ये भूल जाते हैं कि टेलीविजन का धंधे में पूंजी की अहम भूमिका है। इसमें विशालकाय पूंजी लगती है और जाहिर है इतनी बड़ी पूंजी को कोई लंबे समय तक नहीं लगा सकता। परोपकारी रवैये से लोकसभा चैनल तो चल सकता है- लेकिन ये भी सच है कि जब वह लोकसभा के बजट पर भारी पड़ने लगेगा - तब उसे भी दूरदर्शन की तरह चलाने की मांग उठने लगेगी। तब शायद लोकसभा चैनल को भी बदलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। हालांकि विशुद्ध खबर वाली सोच वाला कोई भी प्रतिबद्ध और प्रगतिशील व्यक्ति नहीं चाहेगा कि बाजार की अंधी दौड़ में लोकसभा चैनल भी दौड़ने और खुद को बनाए रखने के लिए मजबूर हो जाए।
हकीकत तो ये है कि पूंजी के इस खेल में विज्ञापन नहीं मिलेंगे तो खबरिया चैनल के अस्तित्व पर ही सवाल उठ खड़ा हो जाएगा। और जब चैनल नहीं रहेंगे तो उन पर पत्रकारिता और खबरों की नैतिकता कैसे लागू होगी। दरअसल आज खबरें ना तो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के संपादक तय करते हैं और ना ही उनके मालिक। खबरें दरअसल बाजार तय कर रहा है और बाजार के इस रिवाज का मानक है टीआरपी-टैम रेटिंग प्वाइंट।
एक दौर था, जब अखबार की सबसे बड़ी खासियत उसका प्रसार मानी जाती थी। जिसका जितना प्रसार -विज्ञापन उतना ही ज्यादा। लेकिन आज प्रिंट मीडिया के लिए भी वह मानक पुराना पड़ता जा रहा है। विज्ञापन बटोरने- हथियाने का ये खेल ही है कि आज अखबार अपने सर्कुलेशन की बजाय ये बताने में अपनी ज्यादा ऊर्जा लगाते हैं कि उन्हें पढ़ने वाले इतने लाख या करोड़ पाठकों के पास कार है, स्कूटर है और घर में आधुनिक सुख-सुविधा के सारे साधन मौजूद हैं। कहने का मतलब ये है कि आज क्वांटिटी की बजाय क्वालिटी वाले विज्ञापन बटोरने की होड़ प्रिंट मीडिया में भी तेज हो गई है। ये उसी प्रिंट मीडिया की बात है- जो अपने को पत्रकारिता की नैतिकता के सबसे ज्यादा करीब बताते नहीं थकता। उसे भी अब ये बताने से गुरेज नहीं है कि उसे आम नहीं- खास आदमी पढ़ता है। उसे पढ़ने वाला समाज के उस वर्ग से आता है-जिसकी खरीद क्षमता खासी है। वह आपके विज्ञापनों से प्रभावित होकर आपकी चीजें खरीद सकता है। अखबार ये बताने से अब हिचकने लगा है कि उसे समाज के हाशिए और निचले तबके के कितने लोग पढ़ते हैं।
कुछ इसी तरह खबरिया चैनलों की दुनिया में टैम का बोलबाला है। टैम की रेटिंग-जिसे टीआरपी कहा जाता है-उसी पर विज्ञापन देने वाली कंपनियां भरोसा करती हैं और उसी के आधार पर चैनलों को विज्ञापन मिलता है। भारी पूंजी के सहारे चल रहे टेलीविजन चैनलों को अगर विज्ञापन न मिलें तो उनका चलना मुश्किल है। ऐसे में चैनलों को इन दिनों उन्होंने भेंड़चाल में शामिल होना पड़ रहा है- जिसमें बाकी चैनल दौड़ रहे हैं। इंडिया टीवी ने अपने शुरूआती दिनों में नारा ही दिया था- इंडिया टीवी बदले भारत की तस्वीर। जो लोग शुरू में इंडिया टीवी से जुड़े-उन्हें पता है कि इंडिया टीवी पर फिल्मों की खबरें तक चलाने की मनाही थी। लेकिन मौजूदा बाजार और टैम की माया में कुछ अलग दिखने का नारा नहीं चला। भारत की तस्वीर बदलने का माद्दा बाजार के दबाव में झुक गया और उसी इंडिया टीवी पर झंकार बीट दिखाई पड़ने लगा। तकरीबन पूरे इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की यही हालत है।
वैसे टैम की रेटिंग पर भी कम सवाल नहीं हैं। चुनावों में एक्जिट पोल के नतीजे अक्सर मुंह की खाते रहे हैं। इसकी वजह बताई जाती रही है कि करोड़ों की जनसंख्या वाले देश में कुछ सौ या कुछ हजार के सैंपलों के आधार पर भविष्यवाणी करना कितना उचित होगा। तर्क ये भी दिया जाता है कि विविधताओं और करोड़ों की जनसंख्या वाले देश में कुछ सौ या कुछ हजार के सैंपल भला पूरे देश या इलाके को कैसे रूपायित कर सकते हैं। लेकिन ये सवाल उठाने वाले लोग इस बात पर मौन हैं कि टीआरपी बताने वाले सैंपल भी सिर्फ 9870 ही हैं। वह भी कुछ शहरों में ही हैं। हाल तक ये संख्या महज 4555 ही थी। एक अनुमान के मुताबिक करीब डेढ़ करोड़ घरों में सेटेलाइट टेलीविजन यानी केबल टीवी या फिर डीटीएच की पहुंच है। जबकि आठ करोड़ घरों में दूरदर्शन की पहुंच है। और आठ करोड़ टेलीविजन उपभोक्ता परिवारों की रूचि-अरूचि, दिलचस्पी का पैमाना सिर्फ 6000 मीटरों के जरिए किया जा रहा है। सबसे मजे की बात ये है कि इन पीपुल्स मीटरों में से एक भी हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के गढ़ समझे जाने वाले बिहार में नहीं है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के शहर टैम की रेटिंग के दायरे में नहीं आते। लेकिन पीपुल्स मीटर की माया पर सब मेहरबान हैं और उसके सामने नाचने को मजबूर हैं। वैसे भी आज के दौर में सवाल पूछने की प्रवृत्ति कम से कम पत्रकारिता के अंदरूनी हलकों कम होती जा रही है। सवाल पूछने वाले या तो हाशिए पर हैं या हैं ही नहीं-ऐसे में टैम की माया जारी है और उस पर कुर्बानियां भी दी जा रही हैं। वैसे भी ये पीपुल्स मीटर कहां लगे हैं-ये भी किसी को ठीक-ठीक पता नहीं हैं। वैसे एक बात तय है कि ये मीटर जिसे निम्न मध्य वर्ग कहा जाता है,उनके घरों में नहीं हैं। यही वजह है कि आज आम आदमी की चिंताएं टैम की रेटिंग में कहीं नहीं दिखती। ऐसे में भला कौन संपादक या चैनल प्रमुख होगा, जो निम्न मध्यवर्गीय घरों की कहानियां और उनकी परेशानियां दिखाकर टैम की रेटिंग प्वाइंट में गिरने का खतरा उठाना पसंद करेगा। टेलीविजन चैनलों की आज मजबूरी बन गई है कि डाउन मार्केट दुनिया की खबरों से खुद को दूर रखें। निम्न मध्यवर्गीय दुनिया और उससे जुड़ी़ घटनाएं टेलीविजन की भाषा में डाउन मार्केट कही जाती हैं। ज़ी न्यूज़ ने 2006 में पंजाब और महाराष्ट्र के कर्ज में डूबे दो गांवों की मजबूरी पर एक घंटे का लाइव प्रोग्राम बनाया। दोनों गांवों ने खुद के बिकाऊ होने का ऐलान कर दिया था। दिलचस्प है कि प्रोग्राम अच्छा बना, देविंदर शर्मा और किसान संगठनों के नेताओं की अच्छी-खासी चर्चा हुई, लेकिन टैम की रेटिंग प्वाइंट में ये प्रोग्राम कोई जगह ही नहीं बना पाया था। ऐसे तमाम उदाहरण हर चैनल में मिल जाएंगे। बहरहाल ऐसे में डाउन मार्केट खबरों और उनसे जुड़ी चिंताओं पर चर्चा करने की हिम्मत अच्छे-भले लोग भी नहीं दिखा सकते।
टैम की रेटिंग का दबाव है कि आज हर चैनल या तो अप मार्केट खबर दिखाता है या फिर भूत नचाने में ही मशगूल रहता है। लेकिन कई बार डाउन मार्केट खबरें भी अपमार्केट बन जाती हैं तो चैनलों और मार्केटिंग वालों को कुछ नहीं सूझता। इसका बेहतरीन उदाहरण है - नोएडा के निठारी की घटना। 36 बच्चे गायब होते रहे, झुग्गियों या निम्न मध्यवर्गीय कॉलोनियों की गंदी गलियों में रहने वाले उनके माता-पिता पुलिस से लेकर नेताओं तक के चक्कर लगाते रहे। लेकिन उनके दर्द और जज्बात पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ध्यान नहीं दिया। उन्हीं दिनों एक मशहूर कंपनी के सीईओ के बेटे का उसी नोएडा से अपहरण हुआ तो मीडिया की ये पहली सुर्खी बन गया। इस बीच उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव आ गए और विपक्षी निशाने पर मुलायम सिंह यादव का शासन काल और कानून-व्यवस्था आ गई। लगने लगा कि मुलायम की सरकार बर्खास्त भी हो सकती है। तो निठारी की गंदी गलियों में बचपन गुजारने वाले बच्चों की मौत अचानक अप मार्केट खबर बन गई। यानी जब गंदी गलियों की घटनाएं समाज के खरीददार वर्ग की दुनिया पर असर डालने लगती है, ये खबर अप मार्केट बन जाती है। कहना ना होगा कि इसके पीछे भी टैम की रेटिंग का ही हाथ होता है।
लोग सोचते होंगे कि चैनलों के कर्ता-धर्ता सांप नचाकर या भूतों का मेला दिखाकर खुश होते हैं। इस बारे में आजतक चैनल के संपादकीय प्रमुख कमर वहीद नकवी के सार्वजनिक बयान को उदाहरण के तौर पर रखा जा सकता है। भारतीय जनसंचार संस्थान के मौजूदा और पुराने छात्रों के एक मिलन कार्यक्रम में 16 मई 2007 को उन्होंने कहा था कि आज जो वे लोग चैनलों में कर रहे हैं या दिखा रहे हैं-उस पर उन्हें अफसोस है क्योंकि पत्रकारिता में जो करने आए थे, नहीं कर पा रहे हैं। जाहिर है कि चैनलों के कर्ताधर्ता भी मौजूदा हालात से खुश नहीं हैं। लेकिन रोजाना की रेटिंग का दबाव उन पर हावी है और उनके सामने इस दबाव में भूत नचाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हर दौर में ऐसे दबाव रहे हैं। आजादी के आंदोलन के दौरान भी हर उस अखबार के बंद किए जाने का खतरा था, जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ और आजादी के रणबांकुरों के पक्ष में लिखा करता था। लेकिन अभिव्यक्ति के ये खतरे उठाने वालों ने उठाए ही। शायद यही वजह है कि खतरे उठाने वाले रामानंद दोषी, बनारसी दास चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णुराव पराड़कर ही याद किए जाते हैं। उस दौर में भी तमाम तरह के अखबार, पत्रिकाएं और दूसरे रिसाले निकल रहे थे, लेकिन उनके संपादकों को कौन याद करता है।
आम आदमी को भूलने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ये हालत ज्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली है। इसकी भी वजह है। गांवों तक बाजार की पहुंच तेजी से हो रही है। डाबर का लाल दंतमंजन दिल्ली-लखनऊ में एक रूपए के पाउच में नहीं मिलता, लेकिन सहरसा या बलिया के किसी गांव के परचूनिए के यहां एक रूपए के पाउच में ये मंजन मौजूद है। सनसिल्क या क्लिनिक प्लस शैंपू शहरों में दो रूपए के पाउच में मिलता है, लेकिन देश के किसी सुदूर गांव में पचास पैसे की कीमत में भी उसका पाउच मौजूद है। यानी उदारीकरण के दौर में गांवों तक अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए ये कंपनिया मार्केटिंग और सेल्स का ये नया तरीका अपना रही है। ऐसे में वह दिन दूर नहीं- जब आम आदमी और गांव-गिरांव की बात भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को करना होगा। लेकिन सोचने वाली बात ये है कि मीडिया ये कदम सामाजिक दायित्व को निभाने के लिए उठाएगा, बल्कि बाजार के दबाव में उठाएगा।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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