उमेश चतुर्वेदी
रवायत के मुताबिक अन्ना हजारे के आंदोलन ने एक तरफ जहां बेईमानी और भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी आम जनता नई उम्मीदों के सुहाने झूले में झूल रही है, वहीं दूसरी तरफ बेईमान अधिकारियों, ठेकेदारों और नेताओं की तिकड़ी हर वह कदम उठा रही है, जिससे अन्ना के इस सत्कार्य को पटरी से उतारा जा सके। ज्यादातर ये कदम पर्दे के पीछे से उठाए जा रहे हैं। इसमें पत्रकारिता की भी अपनी भूमिका है। खबरों की दुनिया में भी दो तरह के लोग हैं, एक जिन्हें सरोकारी पत्रकारिता करनी है-दूसरे वे जो राजनेताओं के चंपुओं के तौर पर सुख्यात हैं। जाहिर है,सरोकारी पत्रकारिता करने वाले लोग अन्ना के आंदोलन को जहां व्यापक नजरिए से देखने की कोशिश कर रहे हैं,वहीं राजनीति, कारपोरेट और सत्ता की चंपुगिरी करने वाले खबरी जनों को अपने मित्र नेता-कारपोरेट के धंधे चौपट होने का डर सता रहा है, लिहाजा वे खबरों की सरोकारी कीमियागिरी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच साहित्यिक जगत चुप है। खासकर हिंदी साहित्य और उसके नेताओं की कहीं
कोई सक्रियता नजर नहीं आ रही। फेस बुक पर एक दिन इस साल के साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता उदय प्रकाश के विचार एक दिन जरूर साया हुए। शायद पांच या छह अप्रैल को जब अन्ना दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे हुए
थे, तब उदय प्रकाश भी वहां पहुंचे थे। जंतर-मंतर के धरना स्थल के ठीक सामने सड़क की दूसरी पटरी पर दक्षिण भारतीय खाने का एक छोटा-सा ढाबा है। फेसबुक पर साया उदय प्रकाश के विचारों से पता चलता है कि अन्ना हजारे
के धरने के दिन उदय प्रकाश धरना पर बैठने या उससे सहानुभूति जताने नहीं गए थे, बल्कि मैकेनिक के यहां कनॉट प्लेस में बनने को दिए अपने कैमरे को लाने गए थे और भूख लग गई तो उस दक्षिण भारतीय दुकान पर खाना खाने की मंशा से चले गए थे। लेकिन उदय जी का दुर्भाग्य कि अन्ना के धरने के चलते उन्हें खाना नहीं मिला। मजबूरी के इस उपवास को उन्होंने फेसबुक पर अन्ना के नाम कर दिया। एक दौर में हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय रहे इतिहास के शोधार्थी प्रदीप मांडव, कथाकार चित्रा मुद्गल और कुछ महिला साहित्यकारों के साथ अन्ना के समर्थन में एक दिन धरना स्थल पर जरूर पहुंचे थे। इन
छिटपुट साहित्यिक समर्थनों को छोड़ दें तो हिंदी साहित्य में अन्ना के आंदोलन को लेकर खास सुगबुगाहट नजर नहीं आती। साहित्यिक गलियारों में पता नहीं इस आंदोलन को लेकर कितनी चर्चा हो रही है, लेकिन इतना तय है कि जयप्रकाश आंदोलन के बाद इस सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन को लेकर हिंदी साहित्य में मुखरता नजर नहीं आ रही है। जयप्रकाश आंदोलन में तो हिंदी
साहित्यकारों के एक बड़े वर्ग ने विरोध में कलम के साथ ही आंदोलन का रास्ता थाम लिया था। कई लोगों को जेल तक जाना पड़ा था। बाबा नागार्जुन तो जनसभाओं में इंदु जी-इंदु जी क्या हुआ आपको गाते चल रहे थे, आओ रानी ढोएं हम तुम्हारी पालकी की पंक्तियों के जरिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अपने साथियों पर ताना कस रहे थे। गिरधर राठी को जेल जाना पड़ा था। कुल मिलाकर साहित्यिक जगत में कुलबुलाहट थी। लेकिन अन्ना के आंदोलन के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। अन्ना गलत हैं या सही, इसे लेकर समाज को रास्ता दिखाने का दावा करने वाला हिंदी साहित्यिक समाज चुप है। दरअसल हिंदी साहित्यकार की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जैसे ही वह लेखन की दुनिया में कुछ खास मुकाम हासिल कर लेता है, भारतीय एलीट राजनीति की तरह एलीट हो जाता है और खुद को आम लोगों से अलग समझने लगता है। इसके साथ हीम उसकी जनता से दूरी बढ़ती जाती है। लिहाजा उसे जगत गति भी यूटोपियाई समाज की तरह ही व्यापने लगती है। यानी कुल मिलाकर एक आभासीपन उसकी रचनात्मकता में नजर आने लगता है। यही वजह है कि आज के हिंदी साहित्य की ज्यादातर रचनाओं की जनता के बीच पहचान और आत्मीयता नहीं बन पाती। कहना न होगा कि साहित्य जगत में व्याप्त इसी प्रवृत्ति के चलते हिंदी का साहित्यिक संसार अन्ना के आंदोलन से वैसी गहरी आत्मीयता या वितृष्णा नहीं बना पाया है,जैसी दूसरी सामाजिक संस्थाओं ने बना रखी है। अन्ना के आंदोलन को लेकर कम से कम साहित्यिक अभिव्यक्ति के स्तर फिलहाल गहरी असंपृक्ति तो नजर आ ही रही है। ऐसी असंपृक्ति से न तो साहित्य का भला हो सकता है और न समाज को...काश कि इसे हिंदी साहित्यिक समुदाय समझने की कोशिश करता....
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