शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

नहीं रहे मस्तमौला बाबा


उमेश चतुर्वेदी
भड़ास मीडिया पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को हूबहू हम प्रकाशित कर रहे हैं। सुशील त्रिपाठी से मेरी भी जानपहचान थी। भाई राजकुमार पांडे के जरिए मैं बाबा से कुल जमा तीन बार मिल पाया था। लेकिन हर मुलाकात में मेरा सामना एक मस्तमौला बनारसी से हुआ। ऐसा मस्तमौला बनारसी - जिसे काशी की पत्रकारिता के प्रतिमानों का पूरा खयाल था। बाबू राव विष्णुराव पराड़कर के साथ सुशील जी भले ही काम ना कर पाए हों- लेकिन उन्होंने ईश्वरचंद्र सिनहा और सत्येंद्र गुप्त जैसे विशुद्ध पत्रकार के साथ काम जरूर किया था। शायद यही वजह थी कि वह सरोकारों वाली पत्रकारिता को ही तरजीह देते थे। साहित्य, संस्कृति और बौद्ध दर्शन के प्रति गहराई तक लगाव महसूस करने वाले सुशील जी की मौत की वजह बौद्ध दर्शन से जुड़ी एक जानकारी की खोज ही बनी। उन्हें किसी से पता चला था कि नौगढ़- चकिया की पहाड़ियों में बुद्ध के पैरों के निशान हैं और उसी की खोज में वे गए थे तो सही - सलामत, लेकिन लौटे घायल होकर और अब वे पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं। उनके शिष्य और दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी के समाचार संपादक संदीप त्रिपाठी भी अलग टीम में उसी खबर के लिए गए थे। इस बैलौस बनारसी, सरोकार वाले पत्रकार को मीडिया मीमांसा की भावभीनी श्रद्धांजलि।

रिपोर्टिंग करते वक्त घायल हुए वरिष्ठ पत्रकार सुशील त्रिपाठी को बचाया नहीं जा सका। इस प्रतिभावान और सरोकार वाले पत्रकार की शहादत से सभी पत्रकार ग़मजदा हैं। पिछले 70 घंटे से कोमा में रहे सुशील त्रिपाठी अंततः होश में नहीं आ पाए। उन्हें सिर समेत शरीर के कई हिस्सों में गंभीर चोटें आईं थीं। वे दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के लिए रिपोर्टिंग करने प्रमुख संवाददाता की हैसियत से वाराणसी के पास नौगढ़-चकिया के दुर्गम इलाके में गए थे। वे एक एक्सक्लूसिव स्टोरी पर काम कर रहे थे।

वहां पहाड़ पर से उतरते वक्त उनका पैर फिसल गया और वे 100 फीट नीचे खाई में जा गिरे। उन्हें खाई से निकालकर अस्पताल में भर्ती कराने में काफी वक्त लग गया। बीएचयू मेडिकल कालेज के डाक्टरों की टीम ने उन्हें होश में लाने के लिए भरपूर कोशिश की पर कामयाबी नहीं मिली।

बीच-बीच में उनकी हालत खराब होती तो कभी अच्छी होती। आशंकाओं और उम्मीदों के बीच हिचकोले खाते सुशील जी के परिजन, मित्र, चाहने वाले उनके स्वस्थ होने की कामना करते रहे पर सुशील जी ने शायद इस दुनिया से विदा लेना ही बेहतर समझा। तभी तो वो अपने हजारों चाहने और जानने वालों को निराश कर अपनी विशिष्ट स्टाइल में अपने किसी मिशन पर किसी नई दुनिया की ओर निकल पड़े। सुशील जी के घर में उनका एक बेटा है और एक बिटिया हैं। बिटिया छोटी हैं और बेटा इंटर पास करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में आने की तैयारी कर रहा है।

52 वर्षीय सुशील त्रिपाठी बनारस समेत पूरे पूर्वांचल और हिंदी पत्रकारिता जगत में अपने सरोकार, तेवरदार लेखन, साहित्य से लेकर समाज तक की बनावट व बुनावट की गहरी समझ, बेलौस जीवन, फक्कड़पन वाले अंदाज, समाजवादी स्टाइल, बनारसी मस्ती और मिजाज को जीने के चलते हमेशा जाने जाएंगे। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता के लिहाज से कई नए ट्रेंड शुरू किए। दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण की लांचिंग से ही इस अखबार की नेतृत्वकारी टीम में शामिल रहे सुशील त्रिपाठी की दमदार कलम के दीवाने पाठकों की काफी बड़ी संख्या रही है। बनारस के अस्सी की बैठकों को उसी अंदाज में पेश करने से लेकर गंगा तट की बतकही और समाज-देश की नब्ज को आम गंवई की निगाह से पकड़ कर उसकी ही भाषा में पेश करने की मास्टरी सुशील जी में थी। साहित्य, संगीत, संस्कृति से लेकर राजनीति तक के दिग्गज लोग सुशील त्रिपाठी के लेखन के फैन थे।

एक ईमानदार व्यक्तित्व, एक मिशनरी जर्नलिस्ट, एक सचेत नागरिक, एक मस्तमौला बनारसी...सब कुछ तो थे सुशील जी। हां, उन जैसे बहुत कम थे बनारस में, और अब वो भी नहीं रहे।