रविवार, 4 अप्रैल 2010

नागरी लिपि या रोमन हिंदी


उमेश चतुर्वेदी
1957 में लखनऊ से प्रकाशित युगचेतना पत्रिका में रघुवीर सहाय की हिंदी पर एक कविता छपी थी, जिसमें उन्होंने हिंदी को दुहाजू की नई बीवी बताया था। राजनीतिक सत्तातंत्र के हाथों हिंदी की जो कथित सेवा हो रही थी, इस कविता के जरिए रघुवीर सहाय ने उसकी पोल खोली है। इसे लेकर तब बवाल मच गया था। खालिस हिंदी वाले ने हिंदी की असल हकीकत बयां की थी तो हिंदी वाले ही नाराज हो गए थे। कुछ ऐसा ही इन दिनों भी देखने में आ रहा है। हिंदी की अकादमिक और साहित्यिक दुनिया में रसूखदार असगर वजाहत ने हिंदी को रोमन लिपि में लिखने का सुझाव दिया है। उनका तर्क है कि अगर ऐसा हुआ तो हिंदी का प्रसार काफी तेजी से बढ़ेगा। 53 साल बाद इस एक बयान के बाद ही असगर वजाहत हिंदी वालों की ही आलोचना के केंद्र में आ गए हैं। असगर वजाहत ने तर्क दिया है कि हिंदी का सबसे ज्यादा प्रचार-प्रसार करने वाले टेलीविजन और फिल्मों की दुनिया में अभिनेताओं के डायलॉग रोमन में लिखा जा रहा है। अधिकांश प्रोड्यूसर और डायरेक्टर पटकथाएं और संवाद पारंपरिक देवनागरी लिपि में लिखने की बजाय रोमन लिपि में लिखने के लिए अपने पटकथा और संवाद लेखकों पर जोर डाल रहे हैं। इसी का हवाला देकर असगर वजाहत हिंदी के रहनुमाओं को देवनागरी लिपि की बजाय रोमन में लिखने का सुझाव दे रहे हैं। हिंदी का व्यापक तौर पर प्रचार और प्रसार हो, उसे सही मायने में राजभाषा का दर्जा मिले, राष्ट्र का प्रशासनिक और राजनीतिक काम हिंदी में हो, इससे भला किसी को क्यों ऐतराज होगा। लेकिन हमारी हिंदी की पहचान रही देवनागरी लिपि की जगह रोमन को अपनाने की बात शायद ही किसी को पचेगी। यह सच है कि गेट और डंकल प्रस्तावों के बाद दुनियाभर में आए उदारीकरण के झोंके ने अंग्रेजी के प्रसार में मदद की है। जाहिर है कि रोमन लिपि जापान से लेकर लैटिन अमेरिका के देश ब्राजील और रूस से लेकर फ्रांस तक में पढ़ी जाती है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्फ रोमन लिपि अख्तियार कर लेने से ही किसी भाषा को समझने का सूत्र हाथ नहीं लग जाता है। अगर ऐसा ही होता तो रोमन में लिखी फ्रेंच और जर्मन को भी आज हर वह व्यक्ति समझना शुरू कर चुका होता, जो अंग्रेजी जानता है। इसी तरह से उसे लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी भाषाएं भी समझ में आ रही होती। क्योंकि दुनियाभर में जहां-जहां ब्रिटेन की सत्ता रही है, कुछ एशियाई देशों को छोड़ दें तो वहां की सरकारों ने अपनी आजादी के बाद अपनी भाषाओं के लिए रोमन लिपि को ही प्राथमिकता दी। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि रोमन लिपि पढ़ने-समझने वाले लोग जिम्बाब्वे की भी भाषा को समझ रहे होते। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी के साथ ही स्थानीय जुलू भाषा के लिए भी रोमन लिपि का ही इस्तेमाल होता है, लेकिन जिन्हें अंग्रेजी आती है, वे रोमन में लिखी वहां की अंग्रेजी ही समझते हैं, जुलू भाषा को नहीं। वर्ष 1948 में तुर्की की आजादी के बाद वहां के शासक कमालपाशा ने भी रोमन लिपि का इस्तेमाल किया था, लेकिन तुर्की भाषा दुनियाभर में लोकप्रिय नहीं हो पाई। दुनियाभर में जब यह फार्मूला चल नहीं पाया तो हिंदी में इसके कामयाब होने की गारंटी कैसे दी जा सकती है। देवनागरी से दूर हिंदी को ले जाने का सुझाव देने के लिए मीडिया में रोमन की लोकप्रियता को बड़ा आधार बताते हुए असगर वजाहत साहब कुछ-कुछ पुलकित नजर आ रहे हैं, लेकिन यह सुझाव देते वक्त वह यह भूल गए कि हिंदी के बाजार में जो लोग रोमन के जरिए कारोबार कर रहे हैं, उनका मूल उद्देश्य अपना कारोबार करना मात्र है, हिंदी की सांस्कृतिक परंपरा को और ज्यादा संजीदा और मूल्यवान बनाना नहीं है। वे सिर्फ कारोबार करने आए हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कारोबारियों को जिस दिन लगेगा कि अब वे रोमन की बजाय चीनी लिपि के जरिए कमाई कर सकते हैं, वे रोमन को भी भूल जाएंगे। उनके लिए बाजार में चलने वाली भाषा उनकी बड़ी और कारोबारी दोस्त हो जाएगी। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भाषाएं संस्कृति का अहम उपादान होती हैं। जिन लिपियों के सहारे वे खुद को अभिव्यक्त करती हैं, उनके जरिए वे अपनी संस्कृति को भी स्वर देती हैं। बाजार की भाषा का इससे कोई लेना नहीं होता। फिल्म और बॉलीवुड की दुनिया में रोमन में लिखे संवाद और पटकथाएं स्वीकार्य हो रही हैं, लेकिन इसके जरिए हिंदी को जो नुकसान हो रहा है, उसे भी देखना-परखना होगा। नागरी लिपि को दुनियाभर के भाषाविज्ञानी सबसे बेहतर और वैज्ञानिक लिपि घोषित कर चुके हैं। दुनिया में जितनी भी भाषाएं और उनकी लिपि है, दरअसल वे स्थानीय भाषाई जरूरतों के मुताबिक विकसित हुई हैं। रोमन के साथ यह स्थिति नहीं है। रोमन में च और क के लिए आपको सीएच का इस्तेमाल मिल जाएगा, यहां बीयूटी बट हो सकता है तो पीयूटी पुट हो जाता है। देवनागरी में ऐसी अराजकता आपको शायद ही देखने को मिले। र वर्ग की ध्वनियों को छोड़ दें तो बाकी हर तरह की जो ध्वनियां हैं और उनका जो उच्चारण है, उसे सही तरीके से नागरी लिपि ही अभिव्यक्त कर पाती है। रोमन लिपि के साथ यह सुविधा नहीं है। वहां द और ड दोनों के लिए एक ही डी अक्षर का इस्तेमाल होता है। इसीलिए रोमन में लिखी स्कि्रप्ट को याद करने के बाद कई अभिनेता डाल को दाल और दाल को डाल बोलते नजर आते हैं। अगर रोमन को हिंदी की लिपि के तौर पर स्वीकार कर लिया गया तो क्या गारंटी है कि दाल और डाल को अलग तरह से बोला जाएगा। इसी तरह से ध्वनि दोषों को सुधारने के लिए कैसे उपाय किए जाएंगे। अगर किसी को मेरा बच्चा पसंद नहीं आता तो इसका यह मतलब तो नहीं हो सकता न कि मैं अपने बच्चे को ही छोड़ दूं और दूसरे के बच्चे को अपनाने की सोचने लगूं। अगर मेरे बच्चे में खराबी या बुराई है तो होना तो यह चाहिए कि मैं उसके स्वाभाव को बदलने की कोशिश करूं, लेकिन दुर्भाग्य से अपनी हिंदी के साथ ऐसा ही हो रहा है। हवाला तो यह भी दिया जा रहा है कि मोबाइल क्रांति के दौर में एसएमएस में हिंदी का इस्तेमाल तो हो रहा है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम रोमन लिपि ही बन रही है। इसकी वजह यह नहीं है कि रोमन ज्यादा सहज है, इसलिए उसे यह जिम्मेदारी निभानी पड़ रही है। चूंकि यह तकनीकी क्रांति पहले अंग्रेजी में ही हुई और उसकी ऑपरेटिंग भाषा अंग्रेजी ही है। यही वजह है कि वहां रोमन का चलन बढ़ा, लेकिन दुनिया में जैसे-जैसे मोबाइल कंपनियां अंग्रेज दुनिया से बाहर के बाजार में अपने पांव फैला रही हैं, वहां की स्थानीय भाषाओं और लिपियों को भी अपने ऑपरेटिंग सिस्टम में शामिल कर रही हैं। अरब देशों में अरबी लिपि, चीन में चीनी लिपि और जापान में जापानी लिपि में न सिर्फ एसएमएस करने की सुविधा मोबाइल कंपनियां मुहैया करा रही हैं, बल्कि ऑपरेटिंग सिस्टम को उन्हीं भाषाओं के आधार पर दुरुस्त और सहज बना रही हैं। बाजार जब आता है तो ऐसे ही स्थानीय संस्कृतियों पर हमला करता है। उसके लिए सांस्कृतिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं रहता। उदारीकरण के दौर में जब से अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने अपनी आगोश में पूरी दुनिया को लेना शुरू किया, उसने देसी भाषाओ पर भी जोरदार हमला बोला। दुनिया में तीसरे नंबर पर बोली जाने वाली भाषा हिंदी की रेडियो सर्विस को बंद करने की प्रमुख वजह तो यह भी समझी जा रही है कि उसने यह मान लिया है कि हिंदी की धरती पर भी उसका काम अंगरेजी में चल सकता है। असगर वजाहत हिंदी के समझदार और प्रतिष्ठित बौद्धिक है, ऐसे में यह मान लेना कि उन्हें ये सब चीजें पता नहीं होंगी, ऐसा मानना भोलापन ही माना जाएगा। उन्हें भी पता होगा कि हिंदी के लिए रोमन लिपि का यह शिगूफा तात्कालिक तौर पर भले ही फायदेमंद हो, इसके दूरगामी नतीजे हिंदी की सेहत और अस्तित्व के लिए घातक होंगे। रोमन को स्वीकार करना दरअसल अंग्रेजी मानसिकता के सामने झुकना होगा। अंग्रेजी वर्चस्व वाली दुनिया दरअसल यही चाहती हैं। ऐसे में उनका ही काम आसान होगा। हम हिंदीवालों को तय करना है कि हम बाजार के सामने समर्पण करना चाहते हैं या फिर बाजार को खुद के मुताबिक बदलने की कोशिश करेंगे।