उमेश चतुर्वेदी
जिंदगी में लगातार बढ़ती टेलीविजन की दखल से सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों में आ रहे नकारात्मक बदलावों को लेकर आवाजें उठनी अब नई बात नहीं रही। इस सिलसिले में अगर कुछ नया है तो वह है क्लासिकल संगीत की दुनिया से उठती मुखर आवाज। प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह से ऑल इंडिया म्यूजिशिन ग्रुप की मुलाकात की अहमियत भी इसीलिए बढ़ जाती है। शास्त्रीय संगीत में अपनी असाधारण साधना के चलते इस ग्रुप के सदस्यों का देश और दुनिया में नाम है। कत्थक नृत्य का दूसरा नाम बन चुके बिरजू महाराज, संतूर के सतरंगे सुरों की दुनिया के शहंशाह पंडित शिवकुमार शर्मा, बांसुरी की मधुर तान के लिए मशहूर पंडित हरिप्रसाद चौरसिया और राजन मिश्र, तबले की थाप के जरिए पूरी दुनिया में अपना सिक्का जमाने वाले उस्ताद जाकिर हुसैन, सुधा रघुनाथन, लीला सैंमसन, टीएन कृष्णन का ग्रुप बनाकर संगीत के बिगड़ते सुरों को ठीक करने के लिए आवाज उठाना निश्चित तौर पर साहस का काम है।
पहले उस्तादों की शागिर्दी में साधना के बाद प्रतिभाओं की खोज होती थी। इस तरह बनी-निखरी प्रतिभाओं को तब शास्त्रीय समाज में आदर के साथ देखा जाता था। लेकिन टेलीविजन ने प्रतिभा खोज के मायने ही बदल दिए हैं। अब रियलिटी शो के जरिए क्लासिकल संगीत और नृत्य जैसी विधाओं में भी प्रतिभाओं की खोज की जाती है, जिनके लिए पहले निष्काम साधना जरूरी मानी जाती थी। निश्चित तौर पर तब की शास्त्रीय प्रतिभाओं के पास लय और ताल की असल थाती होती थी, लेकिन उनके प्रभामंडल में ग्लैमर की छाया नहीं होती थी। भारत में वैसे भी संगीत को आत्मा से परमात्मा से मिलन की राह माना गया है। वैसे भी शास्त्र और बाजार अपने स्वभावों के मुताबिक एक-दूसरे के विरोधी माने जाते हैं। लेकिन टेलीविजन ने इस पारंपरिक समीकरण को बदल कर रख दिया है। टेलीविजन के जरिए सुरों की दुनिया में बाजार की पैठ बढ़ी है। जीटीवी का मशहूर कार्यक्रम सारेगामापा सिंगिंग सुपरस्टार हो या फिर स्टार प्लस का अमूल वॉयस ऑफ इंडिया, शास्त्रीयता की दुनिया में बढ़ती बाजार की पैठ के ही उदाहरण हैं। बाजार की बढ़ती पैठ ने शास्त्रीयता में भी पैसे की पहुंच बढ़ा दी है। कमाई बढ़ना गलत भी नहीं माना जा सकता। लेकिन कमाई के साथ जब शास्त्रीय परंपराओं और सुरों को ताक पर रखा जाता है तो साधकों को तकलीफ होती ही है। वैसे भी बाजार जब दखल देता है तो वह अपनी शर्तों पर चीजों में बदलाव लाता है। बाजार का एक बड़ा तर्क यही होता है कि जनता को जो पसंद है, उसे ही पेश किया जाय। चूंकि मौजूदा टेलीविजन चैनल बाजारवाद के दौर में ही विकसित हुए हैं, लिहाजा उन पर बाजार के लिए शास्त्रीयता से खिलवाड़ का आरोप लगता रहा है। उन्हें सुरों और शास्त्रीय परंपराओं से खिलवाड़ करने का दोषी माना जाता रहा है। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष और मशहूर कवि अशोक वाजपेयी की अगुआई में ऑल इंडिया म्यूजिशियन ग्रुप ने प्रधानमंत्री से मिलकर अपनी यही चिंता जताई है। ऐसा नहीं कि संगीत की दुनिया की नामचीन हस्तियों ने पहली बार रियलिटी शो पर ऐसे सवाल उठाए हैं। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर भी ऐसे कार्यक्रमों पर सवाल उठा चुकी हैं। इन कार्यक्रमों पर सिर्फ सुरों या संगीत के साथ खिलवाड़ करने का आरोप नहीं हैं। बल्कि उन पर यह भी आरोप है कि वे संगीत की उदात्त परंपरा को फूहड़ बना रहे हैं। इससे भारतीय शास्त्रीय संगीत का नुकसान हो रहा है। इससे हजारों साल से संभालकर रखी थाती का ही नुकसान होगा और उसे सही तरीके से बाद वाली पीढ़ी के लिए संजो कर रखना मुश्किल हो जाएगा।
बाजार का तर्क आजकल लोकतांत्रिक परंपराएं लागू करने के बहाने भी सामने आ रहा है। बिग बॉस और राखी का इंसाफ जैसे रियलिटी शो का प्रसारण समय बदलने का फरमान नवंबर के आखिरी हफ्ते में जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने जारी किया तो उस समय भी लोकतांत्रिक परिपाटी का ही तर्क दिया गया। कहा गया कि जनता पर ही यह छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह किसी कार्यक्रम को पसंद करती है या नहीं...लेकिन बाजार के पैरोकार यह तर्क देते वक्त भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की कामयाबी की पहली शर्त यह होती है कि जनता का मानसिक स्तर लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने लायक हो। सुरों और नृत्य की शास्त्रीयता की परख शास्त्रीय जानकार ही कर सकता है। सामान्य जनता की पसंदगी और नापसंदगी के दम पर किसी शो या तथ्य को अच्छा या बुरा ठहराना दरअसल गलत कसौटी ही अख्तियार करना होगा। वैसे आधुनिक लोकतांत्रिक समाज का दावा करने वाले देश चाहे ब्रिटेन या फ्रांस या फिर जर्मनी, उनके यहां अपनी परंपरा की थाती को बचा कर रखने का जज्बा बरकार है। पूर्वी यूरोप के कई देशों को अपने संगीत और शास्त्रीय कलाओं की धरोहर पर गर्व है। इसलिए उनसे थोड़ी-भी छेड़छाड़ मंजूर नहीं है। बाजार तो उनके यहां भी है। फिर परंपराओं और मूल्यों की दुहाई देने वाले भारतीय समाज से ऐसी उम्मीद क्यों न की जाए। प्रधानमंत्री से इसी उम्मीद की दिशा में कदम उठाने की संगीतकारों के ग्रुप की मांग को इसी आधार पर जायज ठहराया जाना चाहिए।