उमेश चतुर्वेदी
लिखने और फिर छपने के चस्का लगने के दिन थे.. उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते वक्त कलम ना सिर्फ चल पड़ी थी..बल्कि उसे राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिलने लगी थी..तब के गांव आज की तुलना में कहीं ज्यादा गांव थे..ललित निबंधकार विवेकी राय के शब्दों को उधार लूं तो देसज गांव...जिसमें उसका भूगोल ही नहीं, अपनी सोच और संस्कृति भी समाहित होती थी...तब के गांवों में रोजाना देसी चूल्हे से उठता धुआं भी उन दिनों के गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाया था...गांव आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा लोकगीतों को अपने दिलों में संजोए बैठे थे..सावन की बदरिया के बीच धनरोपनी होती थी तो खेत-बधार में रोपनी के गीतों की झन्नाती मधुर आवाज गूंज उठती थी..धनरोपनी करते हाथों की चूड़ियों की खनक और गले की मधुर आवाज कब एकाकार हो जाती, कहना मुश्किल था..झींसी और बादलों के बीच लुका-छिपी करते सूरज की छाया में मकई के खेतों की सोहनी भी जैसे गूंजायमान हो जाती थी..शादी-विवाह के अनुष्ठान तो अपने पितरों को याद करने, उन्हें न्योतने और उनका आभार ज्ञापन करने के बिना पूरा ही नहीं होते थे..संझा-पराती के साथ खानदान की दो-चार बूढ़ी दादियां-परदादियां अपनी लरजती आवाज के साथ पितरों का सुबह-शाम आवाहन करतीं..संझा-पराती के गीतों में लय और मधुरता पर जोर देने की बजाय श्रद्धा पर कहीं ज्यादा ध्यान रहता था..रात को राम-जानकी मंदिर पर मुनिलाल कोंहार राम चरित मानस का कंठेसुर से पाठ करते तो गांव का पूरा सीवान जैसे तुलसी की भक्ति में डूब जाता...कभी-कभी सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरह-संघर्ष वाले कथागीत सीवान के किसी कोने से उभर आते और बिजलीविहीन गंवई रातों के सन्नाटे को अपने दर्द भरे सुर से चीर देते..लेकिन उस दर्द में भी एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म होता..जिसका जिक्र करना आसान नहीं..बस उसे समझा जा सकता है..चैत राजा आते तो गेहूं, चना, अरहर की कटनी के साथ ही नए तरह के गीतों की लय फूटती और पछिया हवा के झोंकों के साथ खास तरह की तरन्नुम में खो जातीं..चैत-बैसाख और जेठ की रातों में महोबा के वीर भाईयों आल्हा-उदल की वीर रस वाली कहानियां उत्साहित लय में रात के किसी कोने से किसी पुरूष आवाज में गूंजती तो सीवान, खलिहान या अपने दुआरों पर खटिया पर लेवा बिछाकर सो रहे लोगों के कान उधर ही केंद्रित हो जाते...दुर्भाग्य.. अब वैसे गांव नहीं रहे...
दिन भर जिला मुख्यालय पर पढ़ाई और अपना कम, पड़ोसी बड़की माईयों या चाचियों के सौदे-सुलफ खरीदने, दवा जुटाने, किसी रिश्तेदार की मिजाज या मातमपुर्सी के बाद शाम को जब तक कोहबर की शर्त वाली चरबज्जी ट्रेन से गांव लौटते, तब तक मन-तन बुरी तरह थक चुका होता..फिर भी मन के कोने में कहीं न कहीं लिखने का उत्साह बचा रहता था..इन्हीं दिनों हाथ लगा लोक का एक गीत...सीता निष्कासन के संदर्भ का गीत..उस भोजपुरी गीत में अलग तरह का दर्द था..बेशक उस गीत में सीता के दर्द को ही सुर और अभिव्यक्ति मिली है..लेकिन सच कहें तो भोजपुरी इलाके की हर महिला के दर्द, उसकी पीड़ाओं को समाहित किए हुए है वह गीत...वैसे ही 1857 के बाद से लगातार शासकीय उपेक्षा की मार भोजपुरी इलाका झेल रहा है...दुर्भाग्यवश ही कहेंगे कि उसने लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए..कहने को तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भोजपुरी इलाके के ही प्रतिनिधि हैं..हालांकि उन्हें भोजपुरी मनई नहीं माना जा सकता..शासकीय पिछड़ेपन की मार झेलती गाय-गोबर की उपेक्षा भरे विशेषण वाली भोजपुरी पट्टी में महिलाओं के हिस्से दर्द कुछ ज्यादा ही है.. बहरहाल सीता निष्कासन के उस भोजपुरी गीत ने ऐसा बांध लिया कि लगा दर्द की लहरियों से हम भी गुजरने लगे हैं..तब तक कलम चलने लगी थी और मैंने एक समीक्षात्मक लेख लिख डाला..तब रेनॉल्ड की बॉल प्वाइंट पेन बाजार में आई ही थी..उससे सफेद फुलस्केप कागज पर उस वक्त की समझ के मुताबिक लेख लिख डाला और टिकट लगे और अपना पता लिखे लिफाफे के साथ कादंबिनी पत्रिका के दिल्ली दफ्तर भेज दिया..तब कादंबिनी पत्रिका के संपादक राजेंद्र अवस्थी होते थे..बेशक तब मेरा नाम छपने लगा था..लेकिन छपने की तुलना में लेखों की वापसी की फ्रीक्वेंसी कहीं ज्यादा थी..इसलिए उम्मीद नहीं थी कि कादंबिनी जैसी गंभीर पत्रिका में मुझ जैसे गंवईं गंध का लेख छप जाएगा..लेकिन एक महीने बीते नहीं कि वापसी का लिफाफा तो नहीं लौटा..अलबत्ता एक छपा हुआ कार्ड जरूर मिला...जिस पर लिखा था कि आपका लेख प्रकाशनार्थ स्वीकार कर लिया गया है..धुर देहाती, गंवई गंध के बीच जिंदगी गुजार रहे उस किशोर के लिए वह कार्ड जैसे सफलता की नई सीढ़ी ही था, जिसने अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही हो..लेख शायद जून 1992 के कादंबिनी के अंक में छपा..तब बलिया में कादंबिनी की करीब पांच सौ प्रतियां आती थीं..तब कादंबिनी में लेखक का पता भी उसके लेख के साथ छपता था..जाहिर है कि लेख के साथ अपना भी पता छपा..पता छपा नहीं कि प्रतिक्रियास्वरूप चिट्ठियों की आमद शुरू हो गई..देश के कई कोनों से खत कई हफ्तों तक आते रहे..लेख तो आज भी छपते हैं..अव्वल तो अब डाक से चिट्ठियां तो आती ही नहीं..लेकिन यह भी सच है कि प्रतिक्रिया स्वरूप ईमेल भी कम ही आते हैं.. लेख की प्रशंसा तो खैर उनमें थी
लिखने और फिर छपने के चस्का लगने के दिन थे.. उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते वक्त कलम ना सिर्फ चल पड़ी थी..बल्कि उसे राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिलने लगी थी..तब के गांव आज की तुलना में कहीं ज्यादा गांव थे..ललित निबंधकार विवेकी राय के शब्दों को उधार लूं तो देसज गांव...जिसमें उसका भूगोल ही नहीं, अपनी सोच और संस्कृति भी समाहित होती थी...तब के गांवों में रोजाना देसी चूल्हे से उठता धुआं भी उन दिनों के गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाया था...गांव आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा लोकगीतों को अपने दिलों में संजोए बैठे थे..सावन की बदरिया के बीच धनरोपनी होती थी तो खेत-बधार में रोपनी के गीतों की झन्नाती मधुर आवाज गूंज उठती थी..धनरोपनी करते हाथों की चूड़ियों की खनक और गले की मधुर आवाज कब एकाकार हो जाती, कहना मुश्किल था..झींसी और बादलों के बीच लुका-छिपी करते सूरज की छाया में मकई के खेतों की सोहनी भी जैसे गूंजायमान हो जाती थी..शादी-विवाह के अनुष्ठान तो अपने पितरों को याद करने, उन्हें न्योतने और उनका आभार ज्ञापन करने के बिना पूरा ही नहीं होते थे..संझा-पराती के साथ खानदान की दो-चार बूढ़ी दादियां-परदादियां अपनी लरजती आवाज के साथ पितरों का सुबह-शाम आवाहन करतीं..संझा-पराती के गीतों में लय और मधुरता पर जोर देने की बजाय श्रद्धा पर कहीं ज्यादा ध्यान रहता था..रात को राम-जानकी मंदिर पर मुनिलाल कोंहार राम चरित मानस का कंठेसुर से पाठ करते तो गांव का पूरा सीवान जैसे तुलसी की भक्ति में डूब जाता...कभी-कभी सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरह-संघर्ष वाले कथागीत सीवान के किसी कोने से उभर आते और बिजलीविहीन गंवई रातों के सन्नाटे को अपने दर्द भरे सुर से चीर देते..लेकिन उस दर्द में भी एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म होता..जिसका जिक्र करना आसान नहीं..बस उसे समझा जा सकता है..चैत राजा आते तो गेहूं, चना, अरहर की कटनी के साथ ही नए तरह के गीतों की लय फूटती और पछिया हवा के झोंकों के साथ खास तरह की तरन्नुम में खो जातीं..चैत-बैसाख और जेठ की रातों में महोबा के वीर भाईयों आल्हा-उदल की वीर रस वाली कहानियां उत्साहित लय में रात के किसी कोने से किसी पुरूष आवाज में गूंजती तो सीवान, खलिहान या अपने दुआरों पर खटिया पर लेवा बिछाकर सो रहे लोगों के कान उधर ही केंद्रित हो जाते...दुर्भाग्य.. अब वैसे गांव नहीं रहे...
दिन भर जिला मुख्यालय पर पढ़ाई और अपना कम, पड़ोसी बड़की माईयों या चाचियों के सौदे-सुलफ खरीदने, दवा जुटाने, किसी रिश्तेदार की मिजाज या मातमपुर्सी के बाद शाम को जब तक कोहबर की शर्त वाली चरबज्जी ट्रेन से गांव लौटते, तब तक मन-तन बुरी तरह थक चुका होता..फिर भी मन के कोने में कहीं न कहीं लिखने का उत्साह बचा रहता था..इन्हीं दिनों हाथ लगा लोक का एक गीत...सीता निष्कासन के संदर्भ का गीत..उस भोजपुरी गीत में अलग तरह का दर्द था..बेशक उस गीत में सीता के दर्द को ही सुर और अभिव्यक्ति मिली है..लेकिन सच कहें तो भोजपुरी इलाके की हर महिला के दर्द, उसकी पीड़ाओं को समाहित किए हुए है वह गीत...वैसे ही 1857 के बाद से लगातार शासकीय उपेक्षा की मार भोजपुरी इलाका झेल रहा है...दुर्भाग्यवश ही कहेंगे कि उसने लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए..कहने को तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भोजपुरी इलाके के ही प्रतिनिधि हैं..हालांकि उन्हें भोजपुरी मनई नहीं माना जा सकता..शासकीय पिछड़ेपन की मार झेलती गाय-गोबर की उपेक्षा भरे विशेषण वाली भोजपुरी पट्टी में महिलाओं के हिस्से दर्द कुछ ज्यादा ही है.. बहरहाल सीता निष्कासन के उस भोजपुरी गीत ने ऐसा बांध लिया कि लगा दर्द की लहरियों से हम भी गुजरने लगे हैं..तब तक कलम चलने लगी थी और मैंने एक समीक्षात्मक लेख लिख डाला..तब रेनॉल्ड की बॉल प्वाइंट पेन बाजार में आई ही थी..उससे सफेद फुलस्केप कागज पर उस वक्त की समझ के मुताबिक लेख लिख डाला और टिकट लगे और अपना पता लिखे लिफाफे के साथ कादंबिनी पत्रिका के दिल्ली दफ्तर भेज दिया..तब कादंबिनी पत्रिका के संपादक राजेंद्र अवस्थी होते थे..बेशक तब मेरा नाम छपने लगा था..लेकिन छपने की तुलना में लेखों की वापसी की फ्रीक्वेंसी कहीं ज्यादा थी..इसलिए उम्मीद नहीं थी कि कादंबिनी जैसी गंभीर पत्रिका में मुझ जैसे गंवईं गंध का लेख छप जाएगा..लेकिन एक महीने बीते नहीं कि वापसी का लिफाफा तो नहीं लौटा..अलबत्ता एक छपा हुआ कार्ड जरूर मिला...जिस पर लिखा था कि आपका लेख प्रकाशनार्थ स्वीकार कर लिया गया है..धुर देहाती, गंवई गंध के बीच जिंदगी गुजार रहे उस किशोर के लिए वह कार्ड जैसे सफलता की नई सीढ़ी ही था, जिसने अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही हो..लेख शायद जून 1992 के कादंबिनी के अंक में छपा..तब बलिया में कादंबिनी की करीब पांच सौ प्रतियां आती थीं..तब कादंबिनी में लेखक का पता भी उसके लेख के साथ छपता था..जाहिर है कि लेख के साथ अपना भी पता छपा..पता छपा नहीं कि प्रतिक्रियास्वरूप चिट्ठियों की आमद शुरू हो गई..देश के कई कोनों से खत कई हफ्तों तक आते रहे..लेख तो आज भी छपते हैं..अव्वल तो अब डाक से चिट्ठियां तो आती ही नहीं..लेकिन यह भी सच है कि प्रतिक्रिया स्वरूप ईमेल भी कम ही आते हैं.. लेख की प्रशंसा तो खैर उनमें थी