उमेश चतुर्वेदी
आजादी के तत्काल बाद ही संविधान सभा ने हिंदी को संवैधानिक दर्जा दिया था। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को संघ की भाषा और देवनागरी को उसकी लिपि का दर्जा दिया था। लेकिन असलियत में हिंदी इस देश की कभी-भी राजभाषा नहीं बन पाई। तब से उसका काम महज प्रशासनिक तौर पर उपयोग में लाए जाने वाली अंग्रेजी के अनुवाद का कर्मकांड ही रह गया। हर साल हिंदी दिवस पर इसी कर्मकांड के पाखंड का दुहराव होता है। मजे की बात है कि हर बार इस दुरूह शैलीगत विशेषताओं को ही दुहराया जाता है। इस दुरूहता को विभागीय और अनुभाग स्तर पर सम्मानित और पुरस्कृत करने का फायदेमंद कार्यक्रम भी होता है। इससे कुछ लोगों की कुछ वक्त के लिए माली हालत सुधर भी जाती है। लेकिन ये भी सच है कि राजभाषा को याद करने की इस माखौली रस्म से असलियत में हिंदी का कोई विकास नहीं होता। लेकिन जो लोग इस खेल के माहिर और आदी हैं- उन्हें शायद ये पता न हो कि हिंदी को इसके पहले भले ही बतौर राजभाषा संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं था- लेकिन वास्तविकता के धरातल पर वह अपने उस कालरूप में ही प्रशासन की भाषा थी।
हिंदी का प्रशासन की भाषा के तौर पर पहली बार बारहवीं सदी में दिखता है। इस दौर में दिल्ली की गद्दी पर पृथ्वीराज चौहान का शासन था। इस दौर के कतिपय दूसरे नरेशों के प्रशासन की भाषा भी हिंदी ही थी। चूंकि अरब देशों से व्यापार और हमलावरों के रूप में भारतीयों का संपर्क ज्यादा था- इसलिए उस दौर में अरबी शब्दों का कम से कम प्रशासनिक हिंदी पर ज्यादा असर दिखता है। तब तत्सम शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता था। लेकिन एक कमी उस दौर में प्रमुखता से दिखती है- तब आज की तरह वर्तनी की एकरूपता उस दौर में नहीं दिखती है। इसके लिए पृथ्वीराज चौहान और तत्कालीन चित्तौड़ नरेश राम समर सिंह के बीच पत्रव्यवहार को देखा जा सकता है। एक चिट्ठी राम समर सिंह ने चौहान को लिखी थी। उसका मजमून कुछ इस तरह का है-
ओर थारा चाकर घोड़ा का नामो कोठार सूं चला जाएगा और यूं जमाखातरी रीजो मोई में राजस्थान बाद अणी पवानरी कोई अलंगणा करेगा, जी ने श्री एंवली गंजी की आण है, दूबे जानकी दास संबत 1139 काती बदी तीन।
इस राजकीय चिट्ठी को समझने में आज के हिंदीभाषी को भले ही परेशानी होती हो- लेकिन तत्कालीन दौर में प्रारंभिक हिंदी राजकाज में किस तरह स्थान बना रही थी- इसका बेहतरीन नमूना है ये पत्र।
कौटिल्य ने अपने मशहूर ग्रंथ अर्थशास्त्र में राजभाषा के बारे में लिखा है कि शासन की भाषा में अर्थ, क्रम,संबंध,माधुर्य और औदार्य के साथ-साथ स्पष्टता होनी चाहिए। आजादी के पहले तक की राजभाषा हिंदी में लगभग ये सारी विशेषताएं देखी जा सकती हैं। लेकिन बाद की हिंदी इससे सर्वथा भिन्न और दुरूह है। यही कारण है कि आज की प्रशासनिक हिंदी का मतलब इतर लोक की भाषा के रूप में रूढ़ हो गया है। पता नहीं अरब देशों से आए लोगों ने जिस सल्तनत शासन परंपरा की नींव डाली,उन्होंने आचार्य कौटिल्य की इन स्थापनाओं को पढ़ा था या नहीं, लेकिन राजकाज की भाषा के रूप में तत्कालीन हिंदी को तात्कालिक विशेषताओं सहित स्वीकार किया था। सुल्तानों ने पृथ्वीराज की हार के बाद देश में सल्तनत कायम करने के बाद जनविश्वास अर्जित करने व जनसंपर्क के लिए राजकाज में हिंदी व लिपि के रूप में देवनागरी को ही अपनाया। शहाबुद्दीन ने अपने शासन काल में सिक्कों पर हिंदू देवी-देवताओं के चिन्ह अंकित कराए, इनके चारों ओर श्री हम्मीर और श्री महमूद साम और दूसरी ओर नंदी की मूर्ति भी अंकित कराई थी। इल्तुतमिश ने कन्नौज के विजय स्मारक पर देवनागरी में ही सूचना व संदेश अंकित कराए थे। हालांकि आज ये संदेश अस्पष्ट हो चले हैं। अल्लाउद्दीन खिलजी संभवत:पहला शासक था, जिसने हिंदी को सुदूर दक्षिण में फैलाने की कोशिश की। उसने राजकीय नियमों-उपनियमों को हिंदी में लिखाकर उसकी हजारों प्रतियां दक्षिणी राज्यों में बंटवाई। बाद में उसके सेनापति मलिक काफूर ने आंध्र, महाराष्ट्र और कर्नाटक को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। इसके बाद इन क्षेत्रों में राजकाज के लिए उसने दक्खिनी हिंदी को अपनाया। मोहम्मद तुगलक के साथ-साथ बहमनी वंश के शासकों ने उत्तर में तो हिंदी के तात्कालिक रूप को राजकाज की भाषा के रूप में अपनाया ही था- दक्षिणी राज्यों में हिंदी के दÎक्खनी रूप के माध्यम से ही प्रशासन चलाया। इसमें इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। बाद में बीजापुर,गोलकुंडा,अहमदनगर तक के शासकों ने हिंदी में ही प्रशासन चलाया। इसके लिए राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद दस्तावेज़ों को देखा जा सकता है। लेकिन आजाद भारत में अब इन क्षेत्रों में भी राजभाषा हिंदी में काम करने में परेशानियां हो रही हैं।
भक्ति काल को हिंदी का स्वर्ण काल माना जाता है। मध्यकाल यानी भक्तिकाल में हिंदी का जितना विकास हुआ है- उतनी ही प्रतिष्ठा उसकी राजभाषा के भी रूप में हुई। यह ऐतिहासिक रूप में से मुगल सल्तनत काल था। इस दौर में देसी रियासतों और दिल्ली सल्तनत के बीच संपर्क के लिए आज के राजदूतों की भांति व्यवस्था थी। मुगल साम्राज्य ने हर मित्र रियासत में अपना प्रतिनिधि रखा था। ठीक इसी तरह देसी रियासतों ने भी मुगल दरबार में अपने प्रतिनिधि रख छोड़ा था। इन प्रतिनिधियों को वकील कहा जाता था। इन वकीलों और राज्यों के बीच आपसी पत्रव्यवहार हिंदी में ही होता था। इन पत्रों को तहरीर,खाते,मिसिल,नक्शा,खतूत रोजनामा,अमलदस्तूर आदि नामों से पुकारा जाता था। इन पत्रों में फारसी के वर्चस्व के दर्शन तो होते हैं- लेकिन अवधी, ब्रज और राजस्थानी के शब्दों का भी भरपूर उपयोग दिखता है। इन पत्रों को देवनागरी लिपि में ही लिखा जाता था। लेकिन इन पत्रों में भी सल्तनतकालीन पत्रों की तरह वर्तनी में एकरूपता नहीं है। ऐसे ढेरों पत्र बीकानेर के अभिलेखागार में रखे गए हैं। मुगलकाल की राजभाषा को समझने के लिए दो आदेशों को बतौर उदाहरण देखा जा सकता है-
जमीं षेती लाइक होई सा एक बिस्वो भी पड़े रही नहीं। अर्थात खेती योग्य एक बिस्वा जमीन भी खाली नहीं रहनी चाहिए।
नाज रैत्य पास लेके व्यापारी बहूत परीदि करि भंडसाल न करने पावे अर्थात अधिकारियों को स्पष्ट आदेश है कि व्यापारी अनाज खरीदकर भंडारों जमा न करने पाएं।
मुगल साम्राज्य के बीच बारह सालों तक शेरशाह सूरी का भी शासन काल रहा। सासाराम में जन्मे शेरशाह ने भी अपने सिक्कों पर देवनागरी में श्री सीताराम, श्रीनाथ संवत और ऊं लिखवाए थे।
औरंगजेब के दौरान संस्कृत शब्दों का राजकाज की हिंदी में प्रयोग बढ़ा। बाद में मुगल सम्राटों के राजकाज की भाषा में ब्रज और खड़ी का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा। मुगल सल्तनत के बाद और अंग्रेज़ों की सत्ता आने से पहले तक इस देश के अधिकांश भूभाग पर मराठों का शासन रहा। मराठों ने भी दिल्ली की गद्दी पर कब्जा जमाने के बाद दैनिक राजकाज में हिंदी को ही बढ़ावा दिया था। राजकाज की भाषा के लिए प्रशासनिक शब्दावली और अधिकारियों के पदनामों का एक तरह से मानकीकरण इसी दौर में हुआ। मराठों ने राजनीति, वित्त,कृषि,कर,सेना,कंपनी आदि के बारे में सैकड़ों पत्र लिखे हैं। ऐसे सैकड़ों पत्र राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली के अलावा राज्य अभिलेखागार बीकानेर और पुणे के पेशवा दफ्तर में संकलित हैं। इन पत्रों की भाषा पर हालांकि मराठी प्रभाव ज्यादा है, लेकिन राजस्थानी, प्राकृत,अरबी,फारसी व बुंदेलखंडी शब्दों की बहुलता है। मराठी से कई पत्रों के हिंदी अनुवाद भी उन दिनों कराए गए थे। ये पत्र भी इन अभिलेखागारों के पास बतौर अमोल धरोहर सुरक्षित हैं।
अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेज़ों ने इस देश की शासन व्यवस्था हथिया ली। उन्हीं के एक अधिकारी मैकाले को आज तक देश में अंग्रेजी थोपने का दोषी माना जाता है। लेकिन यह भी सच है कि भारत में तैनाती चाहने वाले अंग्रेज अधिकारियों के लिए हिंदी जानना जरूरी था। कलकत्ता-अब कोलकाता के मशहूर फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना सन 1800 में ब्रिटिश सरकार ने अंग्रेज सिविल अधिकारियों को हिंदी सिखाने के लिए की थी। सदल मिश्र और लल्लू लाल जैसे विद्वान अध्यापक इस कॉलेज में सिविल सेवा के अधिकारियों को हिंदी सिखाने के लिए ही तैनात किए गए थे। इन्हीं सदल मिश्र ने बाद में सुखसागर और लल्लू लाल ने प्रेमसागर की रचना की। यहां ये बताना जरूरी है कि आज हिंदुओं के घरों में बतौर धार्मिक ग्रंथ पढ़े जाते हैं।
अंग्रेजी सरकार ने देसी रियासतों की राजधानियों और दरबारों में पोलिटिकल एजेंट, पोलिटिकल सुपरिंटेंडेंट और रेजिडेंट नियुक्त किए थे। पोलिटिकल एजेंट और पोलिटिकल सुपरिंटेंडेंट गवर्नर जनरल द्वारा देसी रियासतों और रियासतों की ओर से अंग्रेज सरकार को अंग्रेजी में लिखे पत्रों का हिंदी में अनुवाद करते थे। सही मायने में तभी से हिंदी की राजभाषा के साथ ही अनुवाद की भाषा बनने की शुरूआत हुई और आजाद भारत में तो ये महज अनुवादी राजभाषा ही रह गई। गृह विभाग के तहत अंग्रेज शासकों ने इसी काम के लिए बाद में तरजुमा महकमा की स्थापना की - जिसे आज केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो कहा जाता है। कहना न होगा कि ये ब्यूरो आज भी केंद्रीय गृह मंत्रालय के ही अधीन काम करता है।
उन्नीसवीं सदी के कचहरियों के दस्तावेज़ों से साफ है कि अंग्रेज सरकार ने शुरूआती दौर में हिंदी के माध्यम से ही न्याय व्यवस्था चलाई थी। बाद में फारसी पर जोर दिया जाने लगा। 1857 की आजादी के बाद ये इसलिए शुरू हुआ ताकि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार बढ़ाई जा सके। ताकि ब्रिटिश सरकार की अहमियत और जरूरत इस देश में बनी रहे। आज के शासकों का नेपाल जैसे देवनागरी लिपि का इस्तेमाल करने वाले देश से भी अंग्रेजी में ही पत्र व्यवहार होता है। आज के शासकों को ये जानकर शायद आश्चर्य हो कि अंग्रेज सरकार भी नेपाल से हिंदी में ही राजकीय पत्र व्यवहार करती थी। इसे बिडंबना भले ही मानें- असलियत तो यही है।
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