किताब का नाम: तलाश भोजपुरी भाषायी अस्मिता की
लेखक: अजीत दुबे
प्रकाशक: इंडिका इन्फोमीडिया
मूल्य: 400 रुपये
लेखक: अजीत दुबे
प्रकाशक: इंडिका इन्फोमीडिया
मूल्य: 400 रुपये
तकनीक के विस्तार और सूचना क्रांति के दौर में जब दुनिया ग्लोबल गांव के
तौर पर तब्दील हो रही हो, तब स्थानीयता स्थानिकता देसज सोच और पारंपरिक संस्कृति
का कोई मतलब ही नहीं रह जाता – लेकिन मनुष्य के
जीवन में अगर आज भी ये चीजें मायने रखती हैं तो निश्चित तौर पर इसका श्रेय हजारों
साल के मानवीय विकासक्रम और इसके जरिए परंपरा और संस्कृति को लेकर स्थापित सोच को
ही जाता है यही वजह है कि भाषा और उसकी स्थानीयता आज दुनिया भर में राजनीति का
औजार और कारण दोनों बन गए हैं...चेकोस्लोवाकिया के विभाजन की पृष्ठभूमि में चेक और
स्लोवाक भाषाओं की भी भूमिका रही...भारत में भाषाएं अब भी राजनीतिक हथियार और
सांस्कृतिक संघर्ष का जरिया बनी हुई हैं....तमिल बंगला और मराठी जैसी भाषाओं को
लेकर उन्हे बोलने वालों का आग्रह इसका उदहारण है...दुर्भाग्यवश आजादी के बाद हिंदी
भारतीयता और भारतीय राजनीति का हथियार नहीं बन पाई जबकि आजादी के पहले वह भारतीयता
और राष्ट्र की भाषायी अस्मिता का प्रतीक थी...जाहिर है कि आजादी के बाद जब हिंदी
ही राजनीतिक हथियार नहीं बन पाई तो उसकी सहोदर भाषाएं अवधी- भोजपुरी कैसे हथियार
बन पाती...लेकिन 17 मई 2012 को जब भारतीय राजनीति के एलीट चेहरे और तब के
गृहमंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में भोजपुरी में लोगों की भावनाओं को समझने का
विचार जाहिर किया, तब माना गया कि भोजपुरी भले ही राजनीतिक हथियार न बन पाए लेकिन
उसकी अहमियत जरुर समझी जाएगी...