उमेश चतुर्वेदी
चिली की राष्ट्रपति डॉक्टर मिशेल बास्लेट गणतंत्र दिवस के ठीक पहले भारत के दौरे पर थीं। चूंकि पांच साल बाद चिली का कोई इतना बड़ा नेता भारत के दौरे पर था, लिहाजा उनके सम्मान में भारत सरकार की ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। उनके सम्मान में उपराष्ट्रपति डॉक्टर हामिद अंसारी ने एक भोज दिया। जैसी की रवायत है, भोज के पहले मेजबान और मेहमान दोनों ने औपचारिक बयान दिया। लेकिन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के बयान देते ही एक ऐसी घटना हो गई, जिसे लेकर वहां कुछ देर तक सन्नाटा छा गया। हमारे नेता विदेशी नेताओं और मेहमानों के समक्ष अंग्रेजी में ही बोलने के आदी रहे हैं। उपराष्ट्रपति ने उसी परंपरा का निर्वाह किया और औपचारिक बयान अंग्रेजी में ही देने लगे। उनके ऐसा करते ही डॉ.बास्लेट के लिए चिली सरकार की तरफ से दुभाषिया तैनात था। वह दुभाषिया कामचलाऊ अंग्रेजी ही जानता था। उसे हिंदी और स्पेनिश ही आती थी। उपराष्ट्रपति ने बयान पढ़ना शुरू क्या किया, दुभाषिया ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में उसे टोक दिया। उसने कहा कि उसकी राष्ट्रभाषा स्पेनिश है। चिली दुभाषिये न उपराष्ट्रपति से अनुरोध किया कि उसकी राष्ट्रपति चूंकि अंग्रेजी नहीं जानती, लिहाजा बेहतर हो कि वे स्पेनिश या हिंदी में बोलें। क्योंकि हिंदी से वह अनुवाद कर सकता था। इसके आगे क्या हुआ, इसका जिक्र किया जाना यहां ज्यादा जरूरी नहीं है।
सोचने की बात यह है कि क्या ऐसी घटनाओं से हम भारतीयों को कोई सीख मिलती है। राजनेताओं को गलियाना और उनकी लानत-मलामत करना तो हमारी दिनचर्या में शामिल है ही। लेकिन हम खुद भी ऐसी घटनाओं के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। हमें अपनी श्रेष्ठताबोध के प्रदर्शन का एक ही जरिया नजर आता है अंग्रेजी। नव उदार आर्थिक-सामाजिक परिवेश में अंग्रेजी का बोलबाला कुछ ज्यादा बढ़ गया है। बाजार की अब तक की मजबूरी हिंदी समेत भारतीय भाषाएं हैं। लिहाजा बाजार इन्हें अपने उत्पाद को बेचने के लिए इन भाषाओं का इस्तेमाल भर कर रहा है। चूंकि नई बाजार व्यवस्था में चूंकि उत्पाद को विज्ञापन के जरिए ही अपने लक्ष्य समूह तक पहुंचाया जा सकता है, इसलिए भारतीय भाषाओं में विज्ञापन बनाया जा रहा है और उन्हें देसी मीडिया के जरिए ही फैलाया जा रहा है। भारतीय भाषाओं के मीडिया के विस्तार की एक वजह यह भी है। लेकिन हमारा ध्यान इस ओर नहीं है। वैसे भी बाजार का एक नियम होता है, अपने उत्पाद को बेहतर बनाना। चूंकि भाषाएं भी इस नव बाजारवादी व्यवस्था में एक उत्पाद बन रही हैं, लिहाजा इन्हें बेहतर बनाने की उम्मीद पालना बेमानी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि भाषाओं के मामले में बेहतर बनाने की कोशिश नहीं की जा रही है। इस पूरे उहापोह में अंग्रेजी की बन आई है। सुदूर गाजीपुर में रहकर रचनाकर रहे विवेकी राय अंग्रेजी के इस विकास को नव उपनिवेशवाद मानते हैं। हिंदी का भला चाहने वालों की भी राय कुछ अलग नहीं है। लेकिन अंग्रेजी का यह जनविस्तार बढ़ता जा रहा है। इसलिए इन दिनों एक राय कमोबेश पूरे देश में बन गई है कि अंग्रेजी पढ़-बोलकर ही मलाई खाई जा सकती है।
अंग्रेजी बोध के विस्तार का यह बीज अंग्रेजीदां राजनेताओं ने ही बोया था, जो अब फैल गया है। संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि अंग्रेजी नहीं जानने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन पाएगा। लेकिन 1989 में जब देवीलाल जनता दल के नेता चुने गए तो उन्होंने यह कहते हुए ताज वीपी सिंह के सिर रख दिया था कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती और प्रधानमंत्री बनने वाले को अंग्रेजी आनी चाहिए। अंग्रेजी के प्रति राजनीति की असल चाहत को बयां करने के लिए यह एक घटना काफी है। यही वजह है कि विदेशी राजनेताओं के सामने वे अपनी भाषा के अपमान की कीमत पर भी अंग्रेजी में बोलना पसंद करते हैं। ऐसे लोगों के लिए चिली की राष्ट्रपति मिशेल बास्लेट नजीर बन सकती हैं। दस-बारह साल पहले कजाकिस्तान के राष्ट्रपति साहित्य अकादमी के संवत्सर व्याख्यान देने आए थे। लोगों को लगता था कि विदेशी होने के नाते उनका भाषण अंग्रेजी में होगा, लेकिन उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी और उन्होंने अपना भाषण कजाक भाषा में ही दिया। अपनी भाषा के प्रति प्रेम को फ्रांस में भी देखा जा सकता है। दो साल पहले विश्वबैंक की एक बैठक से फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी इसलिए बाहर निकल गए थे, क्योंकि वहां फ्रांसीसी मूल का विश्वबैंक का एक अधिकारी फ्रेंच की बजाय अंग्रेजी में बोल रहा था। इन उदाहरणों का मकसद भाषाओं के प्रति कट्टरता की हद तक प्यार फैलाना नहीं है, बल्कि ये समझाने की कोशिश भर है कि अपनी भाषाओं के प्रति दुनिया के गैरअंग्रेजी भाषी देशों में कितना सम्मान और प्यार है। बेहतर तो यह होता कि हम भी अपने भाषाओं में ऐसा ही प्यारभरा स्वाभिमान भर पाते।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011
लोहिया की भविष्यवाणी नहीं, हमारा नजरिया कमजोर है
उमेश चतुर्वेदी
मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हाल ही में एक किताब आई है ‘दी मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया ’। गुहा ने इस किताब में मौजूदा भारत के निर्माण में योगदान देने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिंदगी और उनके कामों की विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। इस किताब में अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया का जिक्र नहीं होता तो आश्चर्य की बात होती। लोहिया का जिक्र हुआ है। इसमें अंग्रेजी को लेकर उनके एक कथन को रामचंद्र गुहा उद्धृत करने से रोक नहीं पाए हैं। अंग्रेजी को लेकर लोहिया का वह कथन है - "नदी अपनी धारा बदलेगी, अंग्रेजी निरर्थक हो जाएगी। रूसी भाषा लम्बे डग भरेगी। कुछ समय बाद रूसी भाषा इसी तरह इठलाएगी। रूसी व अंग्रेजी भाषा के बीच आगे बढ़ने का द्वंद्व होगा। अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है, यह मिथक ही रह जाएगा। ”
भारतीय राजनीति में एक पीढ़ी ऐसी रही है, जिसके लिए हिंदी ना सिर्फ देसी सम्मान, बल्कि संघर्ष की भाषा रही है। लेकिन समय के साथ वह पीढ़ी लगातार खत्म होती जा रही है। ऐसे में हिंदी के लिए खालिस देसी ढंग से संघर्ष का माद्दा खत्म होता नजर आ रहा है। हालांकि एक वर्ग ऐसा जरूर है, जिसके लिए मीडिया में हिंदी का बढ़ता प्रभाव, और हिंदी मीडिया का दैत्याकार विकास उनके हीनताबोध को एक हद तक परे रखने का जरिया बनता है। इन्हीं में हिंदी मीडिया और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने और अपनी रोजी-रोटी कमाने वाला वर्ग भी शामिल है। उसे जब अंग्रेजियत भरा समाज अपने साथ बुलाता है, बैठाकर उसे सुनता है तो वह एक बारगी हिंदी को महत्व मिलते देखता है। फिर वह हिंदी के जयगान में कूद पड़ता है। खालिस अंग्रेजी ढंग से शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस साल हिंदी साहित्यकारों और समीक्षकों को अपनी तकरीर सुनाने का मौका मिला तो उसे महसूस हुआ कि अंग्रेजी के सामने हिंदी भाषा की स्वीकारोक्ति का दौर शुरू हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक मदद के सहारे शुरू हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी को भी मंच पर बैठाकर सुनने के सम्मान लायक समझा गया तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में भारतीय प्रधानमंत्री को सरकारी बाबुओं की अंग्रेजी में खराब ड्रॉफ्टिंग से कोफ्त होने लगी है। उन्हें सड़कों के किनारे सार्वजनिक निर्माण विभाग, परिवहन निगम या नगर निगमों के लगाए साइन बोर्डों पर हिंदी की टूटती टांग तो नहीं दिखी। लेकिन बाबुओं की खराब अंग्रेजी ड्रॉफ्टिंग परेशान जरूर करने लगी है। इसलिए कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर के जरिए ड्रॉफ्टिंग सुधारने का फरमान जारी कराना उन्हें बेहद जरूरी काम लगता है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय़ कि राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी गलत साबित होने वाली है। भारतीय राजनीति से गायब होती हिंदी समर्थक संघर्षशील राजनीतिक पीढ़ी के अल्पसंख्यक होते लोग भले ही ऐसा नहीं मानते, लेकिन ऑक्सफोर्ड या दूसरे विदेशी संस्थानों से निकलकर देसी राजनीति करने का स्वांग करने वाली पीढ़ी को लोहिया के ये विचार बेमानी नजर आने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि भारत के अंग्रेजी ज्ञान के ही चलते बराक ओबामा को भारत की चौखट पर नाक रगड़ना पड़ा या फिर डेविड कैमरून पाकिस्तान को चेतावनी देने लगे या फिर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारत आना पड़ा।
तर्कशास्त्री सत्य को दो रूपों में देखते हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो एक सचाई तो यह है ही। लेकिन पूरी सचाई यही नहीं है। दिल्ली स्थित स्पेनिश सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक ऑस्कर पुजोल जब यह कहते हैं कि हिंदी में क्षमता है, दम है और सुंदरता भी तो वह भी एक सत्य को ही उजागर कर रहे होते हैं। उनका कहना है कि यह मिथ है कि दुनिया में अंग्रेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है और कार्य-व्यापार में उसका इस्तेमाल होता है तो यह भी आधा सच ही होता है। हालांकि नव उदारवादी व्यवस्था से निकले भारतीय समाज इसी तर्क के सहारे ही अंग्रेजी की ताकत को बढ़ा रहा है और राम मनोहर लोहिया की भविष्यवाणी पर सवाल उठा रहा है। लेकिन पुजॉल का कहना है कि स्पेनिश अंग्रेजी से कहीं ज्यादा कार्यव्यापार की भाषा है।
हाल ही में जारी इंटरनेट वर्ल्ड स्टेट्स के आँकड़े भी दूसरे अर्थ में पुजोल की ही बात को आगे बढ़ाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक अगले पांच साल में इंटरनेट की दुनिया में चीनी भाषा अंग्रेजी भाषा को पछाड़ देगी। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन में पिछले वर्ष 2010 में 3.6 करोड नए इंटरनेट उपभोक्ता बढ़े। इस तरह से चीन के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अब 44 करोड तक पहुँच गई है। जबकि इंटरनेट के जन्मदाता अमेरिका में ही उसके उपयोगकर्ताओं की संख्या 22 करोड ही है। वैसे अंग्रेजी का उपयोग करने वाले लोग ना केवल अमेरिका बल्कि यूरोप, एशिया,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी हैं, लेकिन वैश्विक आँकडों पर गौर करें तो भी अंग्रेजी के उपयोगकर्ताओं की संख्या 53.7 करोड ही है. दूसरी तरफ चीनी भाषा के उपयोगकर्ताओ की संख्या 44 करोड है। इस रिपोर्ट के मुताबिक
दुनिया भर में इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों का 42 फीसदी अंग्रेजी भाषी है, और इतना ही प्रतिशत चीनी भाषी भी है। इस तरह से इंटरनेट पर चीनी भाषा के और विकसित होनी की पूरी सम्भावना है। भारतीय राजनेताओं को राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी भले ही पूरी होती नजर नहीं आ रही हो, लेकिन इंटरनेट की दुनिया के ये आंकड़े तो उसकी तसदीक ही कर रहे हैं।
तकनीक भाषा को भी बदलती है। यह सच है कि अपने यहां राजकाज और ताकत की भाषा अभी तक अंग्रेजी ही बनी हुई है। पश्चिमी सोच वाले कथित पैराटूपर लोकतांत्रिक राजनेताओं की खेप को अंग्रेजी में ही काम करना सुविधाजनक लगता है। लिहाजा हकीकत की धरती पर वे हिंदी की दिशा में कदम नहीं उठाना चाहते। लेकिन इंटरनेट वर्ल्ड की रिपोर्ट में चीन के लिए कहा गया है कि वहां के राजनेताओं ने अपनी भाषा में इंटरनेट के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसका ही असर होगा कि पांच साल में इंटरनेट की दुनिया की नंबर वन भाषा उनकी अपनी चीनी ही होगी। इन अर्थों में अपने प्रधानमंत्री का आदेश जहां भारत की अपनी लचर भाषा नीति को ही आईना दिखाता नजर आता है। लिटरेचर फेस्टिवलों में बुलावा मिलने की धुंध में इसे लोग देखना भी नहीं चाहते। बेहतर तो यह होता कि दोनों ही हालात से बचने की कोशिश होती।
मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हाल ही में एक किताब आई है ‘दी मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया ’। गुहा ने इस किताब में मौजूदा भारत के निर्माण में योगदान देने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिंदगी और उनके कामों की विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। इस किताब में अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया का जिक्र नहीं होता तो आश्चर्य की बात होती। लोहिया का जिक्र हुआ है। इसमें अंग्रेजी को लेकर उनके एक कथन को रामचंद्र गुहा उद्धृत करने से रोक नहीं पाए हैं। अंग्रेजी को लेकर लोहिया का वह कथन है - "नदी अपनी धारा बदलेगी, अंग्रेजी निरर्थक हो जाएगी। रूसी भाषा लम्बे डग भरेगी। कुछ समय बाद रूसी भाषा इसी तरह इठलाएगी। रूसी व अंग्रेजी भाषा के बीच आगे बढ़ने का द्वंद्व होगा। अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है, यह मिथक ही रह जाएगा। ”
भारतीय राजनीति में एक पीढ़ी ऐसी रही है, जिसके लिए हिंदी ना सिर्फ देसी सम्मान, बल्कि संघर्ष की भाषा रही है। लेकिन समय के साथ वह पीढ़ी लगातार खत्म होती जा रही है। ऐसे में हिंदी के लिए खालिस देसी ढंग से संघर्ष का माद्दा खत्म होता नजर आ रहा है। हालांकि एक वर्ग ऐसा जरूर है, जिसके लिए मीडिया में हिंदी का बढ़ता प्रभाव, और हिंदी मीडिया का दैत्याकार विकास उनके हीनताबोध को एक हद तक परे रखने का जरिया बनता है। इन्हीं में हिंदी मीडिया और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने और अपनी रोजी-रोटी कमाने वाला वर्ग भी शामिल है। उसे जब अंग्रेजियत भरा समाज अपने साथ बुलाता है, बैठाकर उसे सुनता है तो वह एक बारगी हिंदी को महत्व मिलते देखता है। फिर वह हिंदी के जयगान में कूद पड़ता है। खालिस अंग्रेजी ढंग से शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस साल हिंदी साहित्यकारों और समीक्षकों को अपनी तकरीर सुनाने का मौका मिला तो उसे महसूस हुआ कि अंग्रेजी के सामने हिंदी भाषा की स्वीकारोक्ति का दौर शुरू हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक मदद के सहारे शुरू हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी को भी मंच पर बैठाकर सुनने के सम्मान लायक समझा गया तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में भारतीय प्रधानमंत्री को सरकारी बाबुओं की अंग्रेजी में खराब ड्रॉफ्टिंग से कोफ्त होने लगी है। उन्हें सड़कों के किनारे सार्वजनिक निर्माण विभाग, परिवहन निगम या नगर निगमों के लगाए साइन बोर्डों पर हिंदी की टूटती टांग तो नहीं दिखी। लेकिन बाबुओं की खराब अंग्रेजी ड्रॉफ्टिंग परेशान जरूर करने लगी है। इसलिए कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर के जरिए ड्रॉफ्टिंग सुधारने का फरमान जारी कराना उन्हें बेहद जरूरी काम लगता है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय़ कि राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी गलत साबित होने वाली है। भारतीय राजनीति से गायब होती हिंदी समर्थक संघर्षशील राजनीतिक पीढ़ी के अल्पसंख्यक होते लोग भले ही ऐसा नहीं मानते, लेकिन ऑक्सफोर्ड या दूसरे विदेशी संस्थानों से निकलकर देसी राजनीति करने का स्वांग करने वाली पीढ़ी को लोहिया के ये विचार बेमानी नजर आने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि भारत के अंग्रेजी ज्ञान के ही चलते बराक ओबामा को भारत की चौखट पर नाक रगड़ना पड़ा या फिर डेविड कैमरून पाकिस्तान को चेतावनी देने लगे या फिर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारत आना पड़ा।
तर्कशास्त्री सत्य को दो रूपों में देखते हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो एक सचाई तो यह है ही। लेकिन पूरी सचाई यही नहीं है। दिल्ली स्थित स्पेनिश सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक ऑस्कर पुजोल जब यह कहते हैं कि हिंदी में क्षमता है, दम है और सुंदरता भी तो वह भी एक सत्य को ही उजागर कर रहे होते हैं। उनका कहना है कि यह मिथ है कि दुनिया में अंग्रेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है और कार्य-व्यापार में उसका इस्तेमाल होता है तो यह भी आधा सच ही होता है। हालांकि नव उदारवादी व्यवस्था से निकले भारतीय समाज इसी तर्क के सहारे ही अंग्रेजी की ताकत को बढ़ा रहा है और राम मनोहर लोहिया की भविष्यवाणी पर सवाल उठा रहा है। लेकिन पुजॉल का कहना है कि स्पेनिश अंग्रेजी से कहीं ज्यादा कार्यव्यापार की भाषा है।
हाल ही में जारी इंटरनेट वर्ल्ड स्टेट्स के आँकड़े भी दूसरे अर्थ में पुजोल की ही बात को आगे बढ़ाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक अगले पांच साल में इंटरनेट की दुनिया में चीनी भाषा अंग्रेजी भाषा को पछाड़ देगी। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन में पिछले वर्ष 2010 में 3.6 करोड नए इंटरनेट उपभोक्ता बढ़े। इस तरह से चीन के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अब 44 करोड तक पहुँच गई है। जबकि इंटरनेट के जन्मदाता अमेरिका में ही उसके उपयोगकर्ताओं की संख्या 22 करोड ही है। वैसे अंग्रेजी का उपयोग करने वाले लोग ना केवल अमेरिका बल्कि यूरोप, एशिया,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी हैं, लेकिन वैश्विक आँकडों पर गौर करें तो भी अंग्रेजी के उपयोगकर्ताओं की संख्या 53.7 करोड ही है. दूसरी तरफ चीनी भाषा के उपयोगकर्ताओ की संख्या 44 करोड है। इस रिपोर्ट के मुताबिक
दुनिया भर में इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों का 42 फीसदी अंग्रेजी भाषी है, और इतना ही प्रतिशत चीनी भाषी भी है। इस तरह से इंटरनेट पर चीनी भाषा के और विकसित होनी की पूरी सम्भावना है। भारतीय राजनेताओं को राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी भले ही पूरी होती नजर नहीं आ रही हो, लेकिन इंटरनेट की दुनिया के ये आंकड़े तो उसकी तसदीक ही कर रहे हैं।
तकनीक भाषा को भी बदलती है। यह सच है कि अपने यहां राजकाज और ताकत की भाषा अभी तक अंग्रेजी ही बनी हुई है। पश्चिमी सोच वाले कथित पैराटूपर लोकतांत्रिक राजनेताओं की खेप को अंग्रेजी में ही काम करना सुविधाजनक लगता है। लिहाजा हकीकत की धरती पर वे हिंदी की दिशा में कदम नहीं उठाना चाहते। लेकिन इंटरनेट वर्ल्ड की रिपोर्ट में चीन के लिए कहा गया है कि वहां के राजनेताओं ने अपनी भाषा में इंटरनेट के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसका ही असर होगा कि पांच साल में इंटरनेट की दुनिया की नंबर वन भाषा उनकी अपनी चीनी ही होगी। इन अर्थों में अपने प्रधानमंत्री का आदेश जहां भारत की अपनी लचर भाषा नीति को ही आईना दिखाता नजर आता है। लिटरेचर फेस्टिवलों में बुलावा मिलने की धुंध में इसे लोग देखना भी नहीं चाहते। बेहतर तो यह होता कि दोनों ही हालात से बचने की कोशिश होती।
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