बुधवार, 23 मई 2012


संसद में भोजपुरी की अलख
उमेश चतुर्वेदी 
गृहमंत्री पी चिदंबरम को हिंदी बोलते हुए भी कम ही देखा-सुना गया है। खालिस अंग्रेजी में सांसदों के सवालों का जवाब देने वाले पी चिदंबरम अगर भोजपुरी में यह कहने को मजबूर हो जाएं कि हम रउवा सभके भावना समझतानी तो यह न मानने का कारण नहीं रह जाता कि भोजपुरी को लेकर नजरिया बदलने लगा है। यहां गौर करने की बात यह है कि चिदंबरम उस तमिलनाडु से आते हैं, जहां 1967 में हिंदी विरोधी आंदोलन तेज हो गया था। 17 मई 2012 को लोकसभा में भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने को लेकर उठे विशेष ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर चर्चा के जवाब में चिदंबरम को यह आश्वासन देना पड़ा कि संसद के मानसून सत्र में इसे लेकर ठोक कदम उठाए जाएंगे।
गृहमंत्री ने चूंकि लोकसभा को आश्वस्त किया है, इसलिए इसके पूरा न हो पाने पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन अतीत के आश्वासनों की घुट्टी ऐसा मानने के लिए सहज रूप से तैयार नहीं होने देती। तीस अगस्त 2010 को भी संसद में भोजपुरी के इसी सवाल को लेकर कांग्रेस के संजय निरूपम और जगदंबिका पाल के साथ राष्ट्रीय जनता दल के रघुवंश प्रसाद सिंह ने उठाया था। तब भी सरकार से कुछ ऐसा ही आश्वासन मिला था। 
संघ की आठवीं अनुसूची में भोजपुरी के शामिल ना हो पाने की बड़ी वजह सरकार की भेदभाव वाली नीति तो है ही, भोजपुरी भाषियों की अपनी सोच भी है। हिंदी के भोजपुरीभाषी बड़े इलाके की सबसे बड़ी समस्या अपनी सोच भी रही है। कई लोगों को अटपटा लग सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि हिंदीभाषी इलाके का सबसे बड़े भोजपुरी क्षेत्र के लोगों की सोच काफी हद तक राष्ट्रीय रही है। भोजपुरी भाषी लोग खुद को राष्ट्रीयता से कहीं ज्यादा ओतप्रोत मानते रहे हैं। शायद यही वजह है कि भोजपुरी के स्वाभिमान का सवाल वैसे परेशान नहीं करता रहा है, जैसे मैथिलभाषियों या दूसरे छोटे भाषा-भाषी समूहों को करता है। इसके बावजूद अगर भोजपुरी को आठवीं सूची में शामिल करने को लेकर सुगबुगाहट शुरू भी हुई तो उसमें सबसे बड़ा योगदान इस क्षेत्र में सक्रिय संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों को है। ईश्वरचंद्र सिन्हा, विवेकी राय, मोती बीए, विद्यानिवास मिश्र, अनिल कुमार आंजनेय, पांडेय कपिल, भगवती प्रसाद द्विवेदी जैसे तमाम धुरंधर भोजपुरी को वही मान्यता दिलाने के लिए सांस्कृतिक अलख जगाए रखे हैं, जैसा आठवीं अनुसूची में बाद में शामिल हुई दूसरी भाषाओं के लोगों ने प्रयास किया। लेकिन दुर्भाग्यवश आन-बान के लिए लड़ने-मरने वाले भोजपुरी समाज में अपनी भाषा के लिए वैसा तेवर कभी नजर नहीं आया। संविधान में भाषाओं को राजकीय हैसियत देने वाली जो आठवीं अनुसूची है, उसमें शुरू में सिर्फ 14 भाषाएं ही शामिल की गईं। 1967 में पहली बार संशोधन के जरिए सिंधी को शामिल किया गया। बाद में दूसरी भाषाओं के लिए आंदोलन होने लगे तो 1992 में मणिपुरी, नेपाली और कोंकणी को शामिल किया गया। लेकिन देश के एक बड़े हिस्से के लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं। लिहाजा 2004 में मैथिली, बोडो, संथाली और डोगरी को शामिल किया गया। लेकिन इस पूरी कवायद में पांच महाद्वीपों, 12 देशों समेत देश के सबसे बड़े महानगरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, नासिक, लुधियाना, आदि के एक बड़े वर्ग की भाषा भोजपुरी उपेक्षित ही रही। बिहार में पहले नंबर पर बोली जाने वाली यह भाषा आठवीं अनुसूची में जगह बनाने में इसलिए कामयाब नहीं हो पाई है, क्योंकि वह राजनीतिक आकांक्षाओं की प्रतीक भाषा नहीं बन पाई है। लेकिन संसद में जिस तरह उसे लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, उससे एक बात साफ है कि ये भाषा भी राजनीतिक हैसियत करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। 
इसे मान्यता दिलाने की राह में एक बड़ी बाधा इसे भाषा मानने से इंकार भी रहा है। एक दौर में भोजपुरी को भाषा मानने से भी एक वर्ग इनकार करता रहा है। भाषा के लिए जरूरी साहित्य की कमी का रोना लोग रोते रहे हैं। लेकिन अब भोजपुरी में भी विपुल साहित्य रचा जा रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे लोगों ने तो कबीर की वाणियों में भी भोजपुरी के अनगिनत शब्दों को ढूंढ़ निकाला है। जिस तरह चिदंबरम ने भोजपुरी बोलकर इस इलाके के सांसदों का दिल जीतने की कोशिश की है, उससे एक उम्मीद जरूर बंधी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मान्यता हासिल करने के बाद भोजपुरी अपने इलाके के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा कर पाने और जरूरी सामाजिक हैसियत हासिल कर पाने में मददगार साबित हो पाएगी। 

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