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मंगलवार, 26 मई 2009
अखबारों के खिलाफ उठी आवाज
उमेश चतुर्वेदी
लोकसभा चुनावों के दौरान उम्मीदवारों से पैसे लेकर खबरें छापने और अखबारी पैकेज न लेने वाले उम्मीदवारों की चुनाव प्रचार तक की खबरों को जगह ना देने का विरोध वरिष्ठ पत्रकार तो कर रहे हैं, लेकिन चिंता की बात ये है कि खुद पत्रकारिता में इसे लेकर कोई अपराधबोध नजर नहीं आ रहा है। हिंदी के शीर्ष पत्रकार प्रभाष जोशी तो इस परिपाटी के खिलाफ मशाल लेकर निकल पड़े हैं। उन्होंने इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। प्रभाष जी मशाल लेकर निकलें और उसे भले ही अखबारों का साथ नहीं मिले, लेकिन जिस तरह से पत्रकारों का साथ मिलना शुरू हुआ है, उससे साफ है कि ये बात दूर तलक जाएगी।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के नोएडा परिसर की गोष्ठी लोकसभा चुनावों में मीडिया की भूमिका में प्रभाष जोशी ने कहा कि अखबारों और पाठकों के बीच विश्वास का रिश्ता होता है। अखबार में छपी चीजों पर पाठक भरोसा करता है। लेकिन उम्मीदवारों से पैसे लेकर खबरें छाप कर अखबार पाठकों के इसी भरोसे को तोड़ रहे हैं। प्रभाष जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ही ऐसा कह सकते हैं। क्योंकि ये भी सच है कि पत्रकारिता की दुनिया में इसे लेकर खास उहापोह नजर नहीं आ रहा है। इसका उदाहरण खुद उन्हें अपने ही शहर इंदौर में नजर आया। मई के दूसरे हफ्ते में वे इंदौर के अखबारों में शुरू हुई इस परिपाटी को लेकर तैयार रिपोर्ट को जारी किया तो उसकी एक कॉलम तक की खबर नहीं छपी। प्रभाष जी को इस बात का अफसोस है कि ये रिपोर्ट बी जी वर्गीज जैसे पत्रकारिता के शलाका पुरूष के हाथों हुआ, और इंदौर के अखबारों ने उनकी वरिष्ठता और पत्रकारिता में उनके योगदान तक का भी ध्यान नहीं रखा।
यह सिर्फ प्रभाष जी की ही पीड़ा नहीं है। पत्रकार और बीजेपी के राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा ने तो इससे भी आगे की बात बताई। उनके मुताबिक चैनलों ने भी लोकसभा चुनावों के दौरान जमकर चांदी काटी है। उन्होंने खबरिया चैनलों का नाम तो नहीं लिया, लेकिन ये जरूर बताया कि खबरों के लिए आपस में मारकाट मचाने वाले कई चैनलों में राजनीतिक दलों से प्रचार का पैकेज हासिल करने के लिए जबर्दस्त एकता नजर आई। उन्होंने शर्त रखी थी कि ना सिर्फ उन्हें, बल्कि उनके बुके के दूसरे चैनलों को भी पैकेज देना होगा। दिलचस्प बात ये है कि पहले तो राजनीतिक दलों ने इसे नकार दिया, लेकिन बाद में उन्हें इसे मानना पड़ा। उनके अनुमान के मुताबिक अकेले चैनलों ने इस दौरान करीब 100 करोड़ का बिजनेस किया।
गोष्ठी में शामिल अधिकांश वरिष्ठ पत्रकारों का मानना था कि पैसे लेकर खबरें छापने का चलन अब शुरू हुआ है। लेकिन इसका प्रतिकार वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय और श्याम खोसला ने किया। रामबहादुर जी के मुताबिक 14 साल पहले महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने जमकर पैसे लिए थे। जबकि श्याम खोसला के मुताबिक पंजाब के विधानसभा चुनावों में भी ऐसा काफी पहले शुरू हो गया था। बहरहाल सबका यही मानना था कि इस परिपाटी से ना तो पाठकों को सही सूचनाएं पाने का अधिकार सुरक्षित रहेगा, ना ही यह लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा। लेकिन आर्थिक पत्रकार आलोक पुराणिक का मानना कि जब मीडिया कंपनियां पूंजी बाजार और शेयर मार्केट से पूंजी जुटाएंगी तो उनका सबसे बड़ा उद्देश्य लाभ कमाना रह जाएगा। सही मायने में यही हो भी रहा है। लिहाजा उन पर भी अपने शेयरधारकों को फायदा पहुंचाने का दबाव बढ़ गया है और इस दबाव में उनके लिए ईमानदार पत्रकारिता से ज्यादा जरूरी पैसे कमाना रह गया है। इस गोष्ठी में राजनीति की ओर से सोमपाल शास्त्री ने अपनी पीड़ाएं जाहिर कीं। बागपत से पिछला लोकसभा चुनाव लड़ चुके सोमपाल शास्त्री ने कहा कि जिस तरह अखबारों ने उनसे खबरों के बदले पैकेज की मांग की, उससे उनका मन इतना खट्टा हुआ कि एक बारगी उन्होंने अखबारों के खिलाफ ही आवाज बुलंद करने की तैयारी कर ली थी।
बहरहाल इस परिपाटी का विरोध कैसे हो। इसका जवाब वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र प्रभु ने सुझाया कि अखबारी संस्थानों में ट्रेड यूनियनों को जब तक बढावा नहीं दिया जाएगा, पत्रकारों की नौकरियों की गारंटी नहीं होगी, तब तक वे इसके खिलाफ नहीं उठ खड़े होंगे। प्रभाष जी ने भी इसे स्वीकार तो किया, लेकिन उनका मानना था कि सिर्फ इतने से ही बात नहीं बनेगी। प्रभाष जी इस परिपाटी के खिलाफ जनजागरण पर तो निकल ही पड़े हैं। उनकी योजना चुनाव आयोग से ये मांग करने की है कि वह चुनाव प्रक्रिया के दौरान अखबारों में छपे विज्ञापनों का खर्च भी उनके चुनाव खर्च में जोड़े। इसके साथ ही वे वरिष्ठ पत्रकारों के साथ सुप्रीम कोर्ट में भी इसके खिलाफ याचिका दायर करने की तैयारी में हैं। इसके साथ ही उनका कहना है कि वकालत और डॉक्टरी जैसे प्रोफेशन की तरह पत्रकारों को शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करना जरूरी किया जाना चाहिए। और गड़बड़ी करने पर उन्हें पत्रकार यूनियन निष्कासित भी करे। प्रभाष जी को इस बात का भी मलाल है कि इस गलत परिपाटी के खिलाफ एक भी पाठक खुलकर सामने नहीं आया। उन्होंने कहा कि अब पाठकों को जगाना होगा ताकि वे आदर्श पत्रकारिता के पक्ष में उठ कर खड़े हो सकें। उन्होंने कहा कि मीडिया की साख बचाने के लिए यह जरूरी है कि पैसे लेकर छापी जाने वाली खबरों को विज्ञापन का रूप दिया जाए। इसकी सूचना पाठकों को स्पष्ट रूप से देनी आवश्यक होनी चाहिए।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र पाठकों को जागरूक करने और उनके क्लब बनाने की वकालत करते रहे हैं। इस गोष्ठी में भी उन्होंने इस बात को आगे बढ़ाने पर जोर दिया। विश्वविद्यालय के नोएडा परिसर के निदेशक अशोक टंडन ने कहा कि इस अभियान का सिलसिला यहीं नहीं थमेगा।
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