उमेश चतुर्वेदी
हिंदी साहित्य की एक बड़ी चिंता पाठकों से सहज संवाद की रही है। दिल्ली से लेकर भोपाल तक हिंदी के ढेर सारे कार्यक्रम होते रहते हैं, लेकिन अक्सर इन कार्यक्रमों में पाठकों की उपस्थिति बेहद कम रहती है। हाल ही में प्रवासी लेखक सम्मेलन में लंदन से भारत आए प्रवासी लेखक तेजेंद्र शर्मा ने भी एक मुलाकात में स्वीकार किया कि हिंदी में ज्यादातर लेखन लगता है लेखकों और उसी साहित्यिक जमात के लिए होता है, जिसे खुद भी कुछ रचने-बांचने की आदत है। दूसरी भाषाओं से की तरह हिंदी में सिर्फ और सिर्फ आम पाठकों की उपस्थिति कम से कम साहित्यिक आयोजनों से दूर ही रहती है। इस दूरी के ही चलते कम से कम आम लोगों में हिंदी लेखकों की सहज पूछ और पहचान कम ही होती है। दूसरी प्रदर्शनकारी विधाओं के रचनाकारों की बनिस्बत हिंदी लेखकों को आम पहचान का यह संकट परेशान करता रहता है। ऐसे माहौल में अगर किसी लेखक का कोई जन्मदिन आम पाठक मनाने लगें तो सुखद हैरत तो होगी ही। लेकिन ऐसा हुआ और उसी दिल्ली की सरजमीं पर हुआ, जहां आम साहित्यिक कार्यक्रमों में पाठकों का रोना रोया जाता है।
हिंदी के वरिष्ठ लेखक और आलोचक हैं विश्वनाथ त्रिपाठी। सहज व्यक्तित्व के धनी विश्वनाथ त्रिपाठी दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते रहे हैं। सुदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के निवासी विश्वनाथ जी रिटायर होने के बाद भी दिल्ली में ही रह रहे हैं। पूर्वी दिल्ली के जिस दिलशाद गार्डेन इलाके में वे रहते हैं, उसके बगल में डीयर पार्क है। उस पार्क में वे सुबह-शाम की सैर के लिए लगातार जाते रहे हैं। करीब बीस साल से जारी इस सैर यात्र में उनके कई संगी-साथी बन गए हैं। उन्हें पता है कि विश्वनाथ जी हिंदी के जाने-माने लेखक और अध्यापक हैं। लेकिन उनका निश्छल व्यक्तित्व पार्क के सैर साथियों से सहज संबंध में रोड़ा नहीं बन पाया। बहरहाल वैलेंटाइन डे के दो दिन बाद यानी 16 फरवरी को त्रिपाठी जी ने जिंदगी के 80 बसंत पूरे कर लिए। त्रिपाठी जी के जन्मदिन की जानकारी उनके सैर-साथियों को थी और उन्होंने पार्क में ही सैर के दौरान उनका जन्मदिन मनाने की तैयारियां कर लीं। 16 फरवरी की सुबह जब त्रिपाठी जी पार्क पहुंचे तो उन्हें गेंदे के फूलों की माला से लाद दिया गया। निश्चित तौर पर इसमें वहां रह रहे कुछ लेखक – पत्रकारों का भी सहयोग रहा है। सुखद हैरत की बात यह है कि इस मौके पर डीयर पार्क के मित्रों के सहयोग से एक किताब का प्रकाशन भी किया गया है। बतकही शीर्षक इस पुस्तक को लेखक भारतेंदु मिश्र ने संपादित किया है। यह पुस्तक साहित्यिक अड्डेबाजी या साहित्यकारो की गप्प गोष्ठी का एक सहज दस्तावेज है। बाद मे त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा - “मैं यहाँ बीस वर्षों से आ रहा हूँ, यहाँ के हमारे सभी मित्रो ने ये जो मेरे लिए आयोजन किया है इससे बडा आयोजन मेरे लिए और हो नही सकता।हम लोग बरसों से एक साथ यहाँ बैठते है क्योकि यहाँ हम आपस मे अपनी रचनाओ की चर्चा नही करते। साहित्य से इतर केवल गप्प होती है तो इसी लिए यह चल रहा है। दूसरी तरह के महत्वाकान्क्षी बहुत से लोग जो हमारे बीच आये भी वो खुद कुछ न मिलने पर चले गये।..तो हम लोग आपस मे इसी लिए लम्बे समय से जुडे है कि हम किसी को कुछ देने की स्थिति मे नहीं हैं। इसी लिए यह हमारी गप्प गोष्ठी चल रही है। कुछ आते रहे कुछ जाते रहे। हम सबमे कमियाँ हैं-कमियाँ हैं तभी चल रहा है। ”
हिंदी में ऐसे आयोजनों की परंपरा न के बराबर है। लेकिन त्रिपाठी जी का जन्मदिन दरअसल हिंदी समाज के बदलते मानस का एक परिचय दे गया। इससे साफ है कि अगर पाठकों और आम लोगों से जुड़ने का माद्दा और हिम्मत है तो हिंदी के लेखकों से भी आम पाठक जुड़ना और उसके बारे में जानना चाहता है।
दिल्ली में हर साल मराठी समाज गणेशोत्सव का आयोजन करता है। बंगाली समाज दुर्गापूजा का आयोजन करता है। इन आयोजनों में ये समाज अपने लेखकों और संस्कृति कर्मियों से सीधे मुखातिब होते हैं। असम में तो उस बच्चे का सही संस्कार ही नहीं माना जाता, जो असम साहित्य सम्मेलन में शामिल नहीं हो पाता। लेकिन हिंदी में दुर्भाग्यवश ऐसी परंपरा अभी तक विकसित नहीं हो पाई है। हिंदी पाठक समाज का तालाब इसी वजह से शांत है। दुखद तो यह है कि इस शांत तालाब में हलचल पैदा करने के लिए कंकड़ फेंकने की हिम्मत कम ही लोग दिखा पाते हैं। त्रिपाठी जी का पार्क में जन्मदिन मनाकर पाठक समाज ने खुद के तालाब में ही खुद ही एक कंकड़ मारने की कोशिश की है। इससे एक हलचल पैदा भी हुई है। बेहतर तो यह होगा कि हिंदी लेखक समाज इस हलचल को बढ़ाते रहने की कोशिश को आगे बढ़ाए। इससे पैदा हुई लहरें ही हिंदी को सही मुकाम तक ले जा सकेंगी।
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