उमेश चतुर्वेदी
कबीर की ये पंक्तियां जिंदगी की जद्दोजहद में अध्यात्म से दूर रही आत्माओं की बेबसी को अभिव्यक्त करती हैं। लेकिन पांच सौ साल पहले की ये पंक्तियां आज के दौर में हिंदी क्षेत्र में सक्रिय बुद्धिजीवियों पर सटीक बैठती हैं। हिंदी के बुद्धिजीवी को जगति गति कम ही व्यापती है। भट्ठा-पारसौल गांव में चलती पुलिस की गोलियां हों या गोरखपुर में मजदूरों पर फैक्टरी मालिकों की शह पर हो रहा लाठी चार्ज, उन्हें प्रभावित नहीं करता। वे राजधानी या राज्यों की राजधानियों के वातानुकूलित कक्षों में साहित्यिक रसपान में व्यस्त रहते हैं। अगर उनसे इन समस्याओं की चर्चा कर भी लो तो उनका एक ही जवाब होगा, भई हम तो ठहरे साहित्यिक जीव, राजनीति और आंदोलन की दुनिया में हमारा क्या काम। हिंदी साहित्य से आंदोलनकारी धर्म का लोप होता जा रहा है। सिर्फ ड्राइंगरूमी सभ्यता और उसके साथ रसपान की अभिव्यक्तियों में डूब जाता है। हिंदी के समादृत कवि नागार्जुन की जन्मशताब्दी चल रही है। शताब्दी आयोजनों के सिलसिले चल रहे हैं। लेकिन उनके आंदोलनकारी रूप को कम ही याद किया जा रहा है। अगर बाबा आज होते तो वे भट्ठा पारसौल गांव में पुलिस की लाठियों के खिलाफ धरने पर बैठे होते, अन्ना के आंदोलन के मंच पर उनकी मौजूदगी होती। विचारधाराओं की बंदिशें उनके मानवीय और आंदोलनकारी सरोकारों को उनसे दूर नहीं रख पाती। अगर विचारधाराओं की बंदिशें में वे बंधे होते तो 1974 के जयप्रकाश आंदोलन में मंच पर नहीं जा पाते। क्योंकि वे कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट थे और जयप्रकाश आंदोलन के साथ वामपंथी धड़ों का सहयोग नहीं था। इसके बावजूद जयप्रकाश आंदोलन में मंचों से गाते फिर रहे थे – आओ रानी ढोएं हम तुम्हारी पालकी, यही हुई है राय जवाहर लाल की। बाबा यहीं नहीं रूके। उस दौर की तानाशाह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलेआम कविता सुनाने से नहीं रूके – इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको, सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को। जिसकी कीमत उन्हें भी चुकानी पड़ी। आपातकाल में जेल यात्रा उन्हें करनी पड़ी। लेकिन आज हिंदी का साहित्यकार की जन आंदोलनों में ऐसी उपस्थिति नहीं दिखती। गजानन माधव मुक्तिबोध की एक मशहूर रचना है – पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है? मुक्तिबोध की ये रचना दरअसल हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों से खासतौर पर मौजूदा दौर में बार-बार पूछ रही है। हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक लोगों की सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में इस उदासीनता की चर्चा की वजह है पश्चिम बंगाल में आई बदलाव की आंधी। सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन और वहां पुलिस दमन के बाद पश्चिम बंगाल के बौद्धिक वर्ग सड़कों पर उतर आया था। जिसमें सिनेमा की मशहूर हस्ती अपर्णा सेन भी थीं तो मशहूर कवि शंखो घोष, नवारूण भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी जैसे कितने ही नाम पुलिस की लाठियों के खिलाफ मैदान में उतर पड़े थे। इन्हें अपने वातानुकूलित घर मैदान में उतरने से रोक नहीं पाए। जनता के बीच उनकी उपस्थिति ने बंगाल की हवा को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बुद्धिजीवियों का यह सहयोग बंगाल की राजनीति की बदलाव का भागीदार बना। क्या ऐसा दावा हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक कर सकते हैं। जाहिर है, इसका जवाब ना में है।
जनांदोलनों-सामाजिक करवटों से दूर रहने का ही खामियाजा है कि हिंदी समाज अपने बौद्धिकों के प्रति वह लगाव और सम्मान नहीं दिखा पाता, जो बांग्ला, मलयालम या मराठी में दिखता है। वहां का बौद्धिक पूरे दमखम के साथ अपने लोगों के सामाजिक संघर्षों में साथ देता है। उनके साथ खड़ा रहता है तो बांग्ला या मराठी मानुष को भी लगता है कि उसका साहित्यकार सिर्फ कागज-कलम से ही रिश्ता नहीं रखता, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी की जद्दोजहद में भी उसके साथ है। लोगों से जुड़ने का यह तार ही वहां साहित्यिक गरिमा और विस्तार का माध्यम बनता है। जिससे राग और सम्मान दोनों हासिल होते हैं। दूसरी बात यह है कि राजनीति की सत्ताओं से मोह ना होने का दिखावा हिंदी के बौद्धिकों में खूब नजर आता है, इसी बहाने वे राजनीतिक आंदोलनों से समान दूरी बनाए रखने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि सत्ताओं की बदलती भूमिका में अपनी जगह पक्की रखने की जोड़जुगत में वे जुटे रहते हैं। इसीलिए सत्ताएं बदलने के बावजूद सत्ता तंत्र में ज्यादातर की भूमिकाएं नहीं बदलतीं।
क्या हिंदी बौद्धिक समाज अपनी इन सीमाओं पर चिंतन की तरफ बढ़ने की कोशिश करेगा ?
कबीर की ये पंक्तियां जिंदगी की जद्दोजहद में अध्यात्म से दूर रही आत्माओं की बेबसी को अभिव्यक्त करती हैं। लेकिन पांच सौ साल पहले की ये पंक्तियां आज के दौर में हिंदी क्षेत्र में सक्रिय बुद्धिजीवियों पर सटीक बैठती हैं। हिंदी के बुद्धिजीवी को जगति गति कम ही व्यापती है। भट्ठा-पारसौल गांव में चलती पुलिस की गोलियां हों या गोरखपुर में मजदूरों पर फैक्टरी मालिकों की शह पर हो रहा लाठी चार्ज, उन्हें प्रभावित नहीं करता। वे राजधानी या राज्यों की राजधानियों के वातानुकूलित कक्षों में साहित्यिक रसपान में व्यस्त रहते हैं। अगर उनसे इन समस्याओं की चर्चा कर भी लो तो उनका एक ही जवाब होगा, भई हम तो ठहरे साहित्यिक जीव, राजनीति और आंदोलन की दुनिया में हमारा क्या काम। हिंदी साहित्य से आंदोलनकारी धर्म का लोप होता जा रहा है। सिर्फ ड्राइंगरूमी सभ्यता और उसके साथ रसपान की अभिव्यक्तियों में डूब जाता है। हिंदी के समादृत कवि नागार्जुन की जन्मशताब्दी चल रही है। शताब्दी आयोजनों के सिलसिले चल रहे हैं। लेकिन उनके आंदोलनकारी रूप को कम ही याद किया जा रहा है। अगर बाबा आज होते तो वे भट्ठा पारसौल गांव में पुलिस की लाठियों के खिलाफ धरने पर बैठे होते, अन्ना के आंदोलन के मंच पर उनकी मौजूदगी होती। विचारधाराओं की बंदिशें उनके मानवीय और आंदोलनकारी सरोकारों को उनसे दूर नहीं रख पाती। अगर विचारधाराओं की बंदिशें में वे बंधे होते तो 1974 के जयप्रकाश आंदोलन में मंच पर नहीं जा पाते। क्योंकि वे कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट थे और जयप्रकाश आंदोलन के साथ वामपंथी धड़ों का सहयोग नहीं था। इसके बावजूद जयप्रकाश आंदोलन में मंचों से गाते फिर रहे थे – आओ रानी ढोएं हम तुम्हारी पालकी, यही हुई है राय जवाहर लाल की। बाबा यहीं नहीं रूके। उस दौर की तानाशाह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलेआम कविता सुनाने से नहीं रूके – इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको, सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को। जिसकी कीमत उन्हें भी चुकानी पड़ी। आपातकाल में जेल यात्रा उन्हें करनी पड़ी। लेकिन आज हिंदी का साहित्यकार की जन आंदोलनों में ऐसी उपस्थिति नहीं दिखती। गजानन माधव मुक्तिबोध की एक मशहूर रचना है – पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है? मुक्तिबोध की ये रचना दरअसल हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों से खासतौर पर मौजूदा दौर में बार-बार पूछ रही है। हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक लोगों की सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में इस उदासीनता की चर्चा की वजह है पश्चिम बंगाल में आई बदलाव की आंधी। सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन और वहां पुलिस दमन के बाद पश्चिम बंगाल के बौद्धिक वर्ग सड़कों पर उतर आया था। जिसमें सिनेमा की मशहूर हस्ती अपर्णा सेन भी थीं तो मशहूर कवि शंखो घोष, नवारूण भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी जैसे कितने ही नाम पुलिस की लाठियों के खिलाफ मैदान में उतर पड़े थे। इन्हें अपने वातानुकूलित घर मैदान में उतरने से रोक नहीं पाए। जनता के बीच उनकी उपस्थिति ने बंगाल की हवा को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बुद्धिजीवियों का यह सहयोग बंगाल की राजनीति की बदलाव का भागीदार बना। क्या ऐसा दावा हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक कर सकते हैं। जाहिर है, इसका जवाब ना में है।
जनांदोलनों-सामाजिक करवटों से दूर रहने का ही खामियाजा है कि हिंदी समाज अपने बौद्धिकों के प्रति वह लगाव और सम्मान नहीं दिखा पाता, जो बांग्ला, मलयालम या मराठी में दिखता है। वहां का बौद्धिक पूरे दमखम के साथ अपने लोगों के सामाजिक संघर्षों में साथ देता है। उनके साथ खड़ा रहता है तो बांग्ला या मराठी मानुष को भी लगता है कि उसका साहित्यकार सिर्फ कागज-कलम से ही रिश्ता नहीं रखता, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी की जद्दोजहद में भी उसके साथ है। लोगों से जुड़ने का यह तार ही वहां साहित्यिक गरिमा और विस्तार का माध्यम बनता है। जिससे राग और सम्मान दोनों हासिल होते हैं। दूसरी बात यह है कि राजनीति की सत्ताओं से मोह ना होने का दिखावा हिंदी के बौद्धिकों में खूब नजर आता है, इसी बहाने वे राजनीतिक आंदोलनों से समान दूरी बनाए रखने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि सत्ताओं की बदलती भूमिका में अपनी जगह पक्की रखने की जोड़जुगत में वे जुटे रहते हैं। इसीलिए सत्ताएं बदलने के बावजूद सत्ता तंत्र में ज्यादातर की भूमिकाएं नहीं बदलतीं।
क्या हिंदी बौद्धिक समाज अपनी इन सीमाओं पर चिंतन की तरफ बढ़ने की कोशिश करेगा ?