शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

वेतन आयोग लाएगा महंगाई


उमेश चतुर्वेदी

कर्मचारियों की सुख समृद्धि बढ़े, उनका जीवन स्तर ऊंचा उठे, इससे इनकार कोई विघ्नसंतोषी ही करेगा। लेकिन सवाल यह है कि जिस देश में 125 करोड़ लोग रह रहे हों और चालीस करोड़ से ज्यादा लोग रोजगार के योग्य हों, वहां सिर्फ 33 लाख एक हजार 536 लोगों की वेतन बढ़ोत्तरी उचित है? सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद केंद्र सरकार की तरफ से अपने कर्मचारियों को लेकर यही आंकड़ा सामने आया है। बेशक सबसे पहले केंद्र सरकार ही अपने कर्मचारियों को वेतन वृद्धि का यह तोहफा देने जा रही है। लेकिन देर-सवेर राज्यों को भी शौक और मजबूरी में अपने कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन देना ही पड़ेगा। जब यह वेतन वृद्धि लागू की जाएगी, तब अकेले केंद्र सरकार पर ही सिर्फ वेतन के ही मद में एक लाख दो हजार करोड़ सालाना का बोझ बढ़ेगा। इसमें अकेले 28 हजार 450 करोड़ का बोझ सिर्फ रेलवे पर ही पड़ेगा। इस वेतन वृद्धि का दबाव राज्यों और सार्जजनिक निगमों पर कितना पड़ेगा, इसका अंदाजा राज्यों के कर्मचारियों की संख्या के चलते लगाया जा सकता है। साल 2009 के आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी क्षेत्र के 8 करोड़ 70 लाख कर्मचारियों में से सिर्फ 33 लाख कर्मचारी केंद्र सरकार के हैं। जाहिर है कि बाकी कर्मचारी राज्यों के हैं या फिर सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों के। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्यों पर कितना बड़ा आर्थिक बोझ आने वाला है।याद कीजिए 2006 को। इसी वर्ष छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, जिससे केंद्र पर 22 हजार करोड़ रुपए का एक मुश्त बोझ बढ़ा था। केंद्रीय कर्मचारियों की तनख्वाहें अचानक  एक सीमा के पार चली गईं। केंद्र के कुल खर्च का 30 फीसदी अकेले वेतन मद में ही खर्च होने लगा।
इसका दबाव राज्यों पर भी पड़ा। उनका खर्च छठवें वेतन आयोग के चलते 74 फीसदी तक बढ़ गया। कई राज्यों ने तो केंद्र पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया था कि उनके कर्मचारियों को बढ़ा हुआ वेतन देने के लिए केंद्र मदद करे। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तक चरमरा गई। उनके पास विकास मद में खर्च करने के लिए पैसे तक नहीं बचे। 2006 के बाद ही हमें महंगाई में तेजी दिखने लगीं। इसी के बाद पेट्रोलियम की कीमतें आसमान छूने लगीं। उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में भी इजाफा हुआ । यह बात और है कि दो साल बाद आई वैश्विक मंदी और उससे घटी विकास दर के सिर पर महंगाई का ठीकरा सरकार और एक हद तक रिजर्व बैंक ने फोड़ दिया था। इसी दौर में आर्थिक जानकारों का एक तबका ऐसा भी था, जो छठवें वेतन आयोग को भी इस महंगाई से जोड़कर देख रहा था, लेकिन तत्कालीन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अगुआई वाली सरकार और उसके वित्त मंत्रियों ने इसे महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं माना। ठीक नौ साल पहले लागू हुए छठवें वेतन आयोग की रिपोर्ट के बाद आशंकित सामाजिक असमानता और उससे बढ़ने वाली आर्थिक दिक्कतों और महंगाई को लेकर समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं, कम्युनिस्ट पार्टी शासित केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ने इस समस्या की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश की । लेकिन तब की कांग्रेसी सरकार ने इस अनसुना कर दिया। उसका फायदा ठीक तीन साल बाद हुए आम चुनावों में मिला, जब कांग्रेस की सीटें 145 से बढ़कर 206 तक जा पहुंची।

रविवार, 8 नवंबर 2015

सम्मान वापसी बनाम किताब वापसी



उमेश चतुर्वेदी

वैचारिक असहमति और उन असहमतियों के आधार पर विमर्श होना लोकतांत्रिक समाज का भूषण होता है..लेकिन कथित असहिष्णुता के खिलाफ जारी साहित्यिक-सांस्कृतिक-फिल्मी और वैज्ञानिक जगत में जारी वैचारिक आलोड़न को क्या इसी कसौटी पर देखा-परखा जा सकता है ? सम्मान वापसी के विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि भले ही सम्मान वापस करने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक विचार और ताकतें काम कर रही हैं। इसके लिए सम्मान वापसी विरोधियों को एक पर एक होती रही घटनाओं ने तार्किक सवाल उठाने का मौका दे दिया है...प्रतिरोध की आवाजों के उठने के अगले ही दिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी असहिष्णुता के खिलाफ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के दरबार पहुंच गईं। यह तो उनकी व्यक्तिगत मुलाकात थी। इसके ठीक अगले दिन उन्होंने सवा सौ नेताओं के लाव-लश्कर समेत बाकायदा जुलूस निकालकर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से शिकायत कर डाली। मौजूदा दौर में एजेंडा तय करना और किसी भी घटना या हादसे को उत्सवी रंग देना मीडिया का काम हो गया, लिहाजा असहिष्णुता का यह लाव-लश्करी विरोध मीडिया के लिए आकर्षक बन गया और इस नाते कांग्रेस खबरों की केंद्र में बनी रही। इससे साफ है कि पहले लेखकों का विरोध और फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी का कदम कहीं न कहीं सोची-समझी रणनीति के तहत हुए। अव्वल तो होना चाहिए कि इन घटनाओं के बीच जुड़े तंतुओं की पड़ताल की जाती, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

कल्पना और बदरी विशाल पित्ती का रचनात्मक संघर्ष

मेश चतुर्वेदी
(यथावत के नवंबर प्रथम 2015 अंक में प्रकाशित)
1.कल्पना और हिंदी साहित्य
लेखक- विवेकी राय/प्रकाशक-अनिल प्रकाशन,इलाहाबाद/मूल्य- 150 रूपए
2.स्वातंत्रयोत्तर हिंदी के विकास में कल्पना के दो दशक/ लेखक- शशिप्रकाश चौधरी/प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य-500 रूपए 
3.बदरी विशाल
संपादक - प्रयाग शुक्ल
प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
मूल्य - 250 रूपए
गांधी जी की कामयाबियां, कर्म और प्रयोग उनके जाने के महज 67 साल बाद ही अतिमानवीय और हैरतअंगेज लगने लगे हैं। आने वाली पीढ़ियां तो यह सोचने के लिए बाध्य ही हो जाएंगी कि सचमुच वे हाड़मांस का हमारे-आपके जैसे ही साधारण पुतले भी थे। कंटेंट और विचार के स्तर पर हिंदी पत्रकारिता जितनी तेजी से छीजती जा रही है, उसे देखते हुए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ इसी अंदाज में आने वाले दिनों में पत्रकारिता के कर्मयोगी और छात्रों के सामने जब कल्पना की गुणवत्ता की जानकारी आए तो वे हैरत में पड़ जाएं। लेकिन सुदूर अहिंदीभाषी क्षेत्र से निकलती रही कल्पना ने जिस तरह का रूख हिंदी भाषा और साहित्य के सवालों को लेकर दुनिया के सामने रखा, वह आज के दौर में कल्पनातीत ही कहा जाएगा। भारतेंदु युग के बाद हिंदी को मांजने और सार्वजनिक विमर्श की भाषा बनाने में जो काम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में सरस्वती ने किया, आजादी के बाद कुछ वैसा ही योगदान कल्पना का भी रहा। कल्पना ने हिंदी की दुनिया को कल्पना की सीमारेखा से यथार्थ के धरातल पर लाने और भाषाई स्वाधीनता के आंदोलनों से लेकर हिंदी में नए और आधुनिक चलन को स्थापित करने में जो भूमिका निभाई, उसे विवेकी राय की किताब कल्पना और हिंदी साहित्य में बखूबी देखा जा सकता है। कल्पना की शुरूआत यानी 1949 से लेकर 1977 में अंत तक के उसके अंकों के आधार पर तैयार इस पुस्तक के मूल में खुद कल्पना के संस्थापक और मानस पिता हैदराबाद के सुरूचिपूर्ण मारवाड़ी कारोबारी के बेटे बदरी विशाल पित्ती ही थे। विवेकी राय जी के शब्दों में कहें तो कल्पना का सर्वेक्षण नाम से यह सर्वेक्षण शुरू हुआ। इसका कल्पना में ही धारावाहिक तौर पर प्रकाशन भी हुआ। कल्पना निश्चित तौर पर साहित्य, वर्तनी, व्याकरण, कला-समीक्षा, प्रकीर्ण विधाएं आदि के संदर्भ मे अपने मुकम्मल और ठोस विचार रख ही रही थी। लेकिन उसने किस तरह हिंदी साहित्य और भाषा की सेवा की, उसका चौंकाऊ आयाम उसके प्रतिबद्ध पाठक भी नहीं जान पाए थे। लेकिन विवेकी राय के सर्वेक्षण ने जैसे कल्पना को समझने के लिए नई वीथि ही खोल कर रख दी।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी के शलाका पुरूष डॉक्टर नामवर सिंह के निर्देशन में हिंदी साहित्य के विकास में कल्पना के दो दशक यानी सिर्फ 1968 तक पर शशिप्रकाश चौधरी ने शोध किया है। निश्चित तौर पर इनके शोध में कल्पना के दो दशकों के योगदान को केंद्रित किया गया है। शशिप्रकाश चौधरी ने शोध प्रविधि के लिए तमाम पाठ्य सामग्री इकट्ठी की है और उनके आधार पर कल्पना के योगदान पर विश्लेषण किया है। लिहाजा कल्पना के बीस साल की यात्रा के जरिए हासिल कामयाबियों-खूबियों का जिक्र ज्यादा है। लेकिन हैरत होती है कि कल्पन की सामग्री के सर्वेक्षण पर शशिप्रकाश चौधरी के शोध में चर्चा तक नहीं है। अगर इस सर्वेक्षण पर शशि प्रकाश की नजर पड़ी होती तो शायद उनका शोध निकष कुछ और व्यापक होता और उनके शोध मंथन से हासिल कल्पना का मक्खन कहीं ज्यादा स्वादिष्ट होता।

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

13 दिसंबर की याद, संदर्भ असहिष्णुता का विरोध....

उमेश चतुर्वेदी


13 दिसंबर 2001
संसद पर आतंकी हमले को सुरक्षा बलों ने नेस्तनाबूद कर दिया था...संसद भवन और उसके आसपास सेना और अर्धसैनिक बलों की टुकड़ियां तैनात हो चुकी थीं..तब मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर संवाददाता तैनात था और उस घटना को रिपोर्ट कर रहा था...सेना ने संसद परिसर और उसके आसपास विमानभेदी तोपें तैनात कर दी थीं..ताकि अगर हवाई हमले भी हों तो उन्हें नेस्तनाबूद किया जा सके..अफरातफरी के बाद नई दिल्ली इलाके में धीरे-धीरे शांति लौट रही थी..लेकिन संसद के केंद्रीय कक्ष में बदहवास बैठे सांसद अपने डर पर काबू नहीं पा रहे थे..तब गृहमंत्री के नाते लालकृष्ण आडवाणी और रक्षा मंत्री के नाते जार्ज फर्नांडिस ने केंद्रीय कक्ष में जाकर सांसदों को आश्वस्त करना तय किया..पहले आडवाणी गए और उन्होंने सांसदों को बताया कि हालात काबू में हैं और जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा। इसके बाद जार्ज फर्नांडिस केंद्रीय कक्ष पहुंचे। ऐसे मौकों पर अपने देश में सेना और उसकी ताकत पर भरोसा पुलिस से कहीं ज्यादा नजर आता है..जार्ज बोलने के लिए तैयार हुए...तो सांसदों ने उन्हें घेर लिया. सुरक्षा के जो-जो उपाय हो सकते थे, जार्ज ने रक्षा मंत्री के नाते कर ही दिए थे, उनकी जानकारी भी सांसदों को दी..आखिर में जार्ज ने यह भी बताया कि सेना ने संसद परिसर में विमान भेदी तोपें तैनात कर दी है और हालात पूरी तरह सेना और सुरक्षा बलों के नियंत्रण में हैं..इसलिए घबराने की कोई बात नहीं है.. इतना कहकर जार्ज जैसे ही लौटने लगे, उन्हें सांसदों ने घेर लिया...जार्ज से हाथ मिलाने के लिए सांसदों में होड़ लग गई..उनमें तब की विपक्ष खासकर कांग्रेस के सांसद सबसे आगे थे...सभी जार्ज का शुक्रिया कर रहे थे..कुछ ने तो यहां तक कह दिया है कि जार्ज यू आर अ ग्रेट डिफेंस मिनिस्टर..यू हैव डन वैरी गुड जॉब लाइक अ ग्रेट डिफेंस मिनिस्टर...ये कहने में कोई हर्ज भी नहीं था..लेकिन विपक्षी सांसदों के मुंह से निकली ये बात तब इसलिए कहीं ज्यादा अहम थी, क्योंकि तब जॉर्ज को विपक्ष रक्षा मंत्री ही नहीं मान रहा था..जिस ताबूत घोटाले में हाल ही में जॉर्ज को सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया और सीबीआई को झाड़ पिलाई, उसी कथित घोटाले के चलते विपक्ष उन्हें संसद के दोनों सदनों में देखना तक नहीं पसंद करता था..जिस दिन लोकसभा या राज्यसभा में रक्षा मंत्रालय की बारी होती, प्रश्नकाल शुरू होते ही कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष सदन से बाहर निकल जाता था - भाई जब रक्षा मंत्री मानते ही नहीं तो सवाल का जवाब क्यों सुनें...लेकिन आतंकी हमले के बाद उन्हीं सांसदों में संसद के केंद्रीय कक्ष में जॉर्ज का आभार जताने के लिए होड़ मच गई...असहिष्णुता को लेकर मौजूदा केंद्र सरकार पर उठ रहे सवाल, मोदी सरकार के साथ विपक्ष के जारी असहयोग को देखते हुए एक बार फिर यह घटना याद आ गई...

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

साहित्य अकादमी में रचा गया नया इतिहास

उमेश चतुर्वेदी
1994 की बात है..साहित्य अकादमी का साहित्योत्सव चल रहा था...उस वक्त साहित्य अकादमी के सचिव थे इंद्रनाथ चौधरी...अध्यक्ष शायद असमिया लेखक वीरेंद्र भट्टाचार्य..गलत भी हो सकता हूं..उस साल साहित्य अकादमी ने संवत्सर व्याख्यान का आयोजन किया था-साहित्योत्सव के मौके पर... इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के संभ्रांत माहौल और हॉल में व्याख्यान और खान-पान का भव्य आयोजन था..उसी दौरान इस भुच्चड़ देहाती को दिल्ली के शहराती साहित्यकर्म का परिचय मिला..भारतीय जनसंचार संस्थान में तकरीबन मुफलिसी की तरह पढाई करते वक्त साहित्य चर्चा के साथ सुस्वादु भोजन का जो स्वाद लगा तो तीन दिनों तक लगातार जाता रहा..दूसरे सहपाठी मित्र भी साथ होते थे..वहीं पहली बार नवनीता देवसेन को सुना...मलयालम की विख्यात लेखिका कमला दास, जो बाद में सुरैया हो गई थीं..उन्हें भी सुना अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में..हिंदी के तमाम कवियों-लेखकों को लाइन में लगकर खाना लेते और खाते देखकर अच्छा लगा...हैरत भी हुई....क्योंकि इन्हीं में से कुछ को अपने जिले बलिया के एक-दो आयोजनों में नखरे में डूबते और रसरंजन की नैया में उतराते देखा था...तब अपनी नजर में उन लेखकों-कवियों की हैसियत देवताओं से कुछ ही कम होती थी..यह बात और है कि इनमें से कई के साथ जब ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत की, उनके धत्कर्म देखॅ तो लगा कि असल में वे भी सामान्य इंसान ही हैं...
सवाल यह कि इन बातों की याद क्यों..क्योंकि 23 अक्टूबर 2015 को साहित्य अकादमी के सामने नया इतिहास रचा गया है..भारतीय-खासकर हिंदी का साहित्यकर्म राष्ट्रीयता और भारतीयता की अवधारणा को धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा के खिलाफ मानता है...उसे यह सांप्रदायिक लगता है.. अतीत में इसी बहाने हिंदी साहित्यकर्म की मुख्यधारा की शख्सियतें भारतीयता-राष्ट्रीयता की बात करने वाले कलमचियों से चिलमची की तरह व्यवहार करती रही हैं...1994 में साहित्योत्सव के संवत्सर व्याख्यान में भारतीयता की बातें अकेले रख रहे थे –देवेंद्र स्वरूप..तब उनका उपहास उड़ाया गया था... उनसे हिंदी साहित्यकर्म के आंगन में आए विदेशी-आक्रांता घुसपैठिया जैसा व्यवहार वहां मौजूद साहित्यिक समाज ने किया था..तब उनके साथ एक ही नौजवान खड़ा होता था...उसका प्रतिवाद उन दिनों काफी चर्चित भी हुआ था..साहित्यिक समाज के वाम विचारधारा पर वह हमले करते वक्त कहता था- पनीर खाकर पूंजीवाद को गाली देते हैं—बाद में पता चला कि वह नौजवान नलिन चौहान है..नलिन अगले साल भारतीय जनसंचार संस्थान का विद्यार्थी बना...

23 अक्टूबर 2015 को अभिव्यक्ति पर कथित रोक, कलबुर्गी नामक कन्नड़ लेखक की हत्या और सांप्रदायिकता फैलाने वालों के खिलाफ साहित्य अकादमी की चुप्पी के खिलाफ हिंदी की कथित मुख्य़धारा की साहित्यिक बिरादरी ने विरोध जुलूस निकाला..साहित्य अकादमी के आंगन में कभी वाम विचारधारा के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दूसरी विचारधारा नहीं करती थी..उसी साहित्य अकादमी के प्रांगण में कथित विरोध और सम्मान वापसी अभियान के खिलाफ लेखकों का हुजूम उमड़ पड़ा..कुछ लोग उन लेखकों का मजाक उड़ा रहे हैं कि वे प्रेमचंद से बड़े लेखक हैं..प्रेमचंद ने क्या लिखा है..इस पर अलग से लेख लिखने की इच्छा है..बहरहाल साहित्य अकादमी के इतिहास में यह पहला मौका था...जब वहां वंदे मातरम का नारा लगा, भारत माता की जय बोली गई..मालिनी अवस्थी ने विरोध में आवाज बुलंद की..नरेंद्र कोहली, बलदेव वंशी विरोधियों की नजर में लेखक ना हों तो ना सही...पाठकों के दिलों में जरूर बसते हैं..उनकी किताबों की रायल्टी कथित मुख्यधारा की आंख खोलने के लिए काफी है...
साहित्य कर्म में बदलते इतिहास को सलाम तो कीजिए

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

सवाल भी कम नहीं हैं सम्मान वापसी अभियान पर

(आमतौर पर मेरे लेख अखबारों में स्थान बना लेते हैं..लेकिन यह लेख नहीं बना पाया..देर से छपने से शायद इसका महत्व कम हो जाए)
उमेश चतुर्वेदी
वैचारिक असहमति और विरोध लोकतंत्र का आभूषण है। वैचारिक विविधता की बुनियाद पर ही लोकतंत्र अपना भविष्य गढ़ता है। कोई भी लोकतांत्रिक समाज बहुरंगी वैचारिक दर्शन और सोच के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता। लेकिन विरोध का भी एक तार्किक आधार होना चाहिए। तार्किकता का यह आधार भी व्यापक होना चाहिए। कथित सांप्रदायिकता और बहुलवादी संस्कृति के गला घोंटने के विरोध में साहित्यिक समाज में उठ रही मुखालफत की मौजूदा आवाजों में क्या लोकतंत्र का व्यापक तार्किक आधार नजर आ रहा है? यह सवाल इसलिए ज्यादा गंभीर बन गया है, क्योंकि कथित दादरीकांड और उसके बाद फैली सामाजिक असहिष्णुता के खिलाफ जिस तरह साहित्यिक समाज का एक धड़ा उठ खड़ा हुआ है, उसे वैचारिक असहमति को तार्किक परिणति तक पहुंचाने का जरिया माना जा रहा है। 2015 का दादरीकांड हो या पिछले साल का मुजफ्फरनगरकांड उनका विरोध होना चाहिए। बहुलतावादी भारतीय समाज में ऐसी अतियों के लिए जगह होनी भी नहीं चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या क्या सचमुच बढ़ती असहिष्णुता के ही विरोध में साहित्य अकादमी से लेकर पद्मश्री तक के सम्मान वापस किए जा रहे हैं।

भारतीय संविधान ने भारतीय राज व्यवस्था के लिए जिस संघीय ढांचे को अंगीकार किया है, उसमें कानून और व्यवस्था का जिम्मा राज्यों का विषय है। चाहकर भी केंद्र सरकार एक हद से ज्यादा कानून और व्यवस्था के मामले में राज्यों के प्रशासनिक कामों में दखल नहीं दे सकती। लालकृष्ण आडवाणी जब देश के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे, तब उन्होंने जर्मनी की तर्ज पर यहां भी फेडरल यानी संघीय पुलिस बनाने की पहल की दिशा में वैचारिक बहस शुरू की थी। जर्मनी में भी कानून और व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी है। बड़े दंगे और अराजकता जैसे माहौल में वहां की केंद्र सरकार को फेडरल यानी संघीय पुलिस के जरिए संबंधित राज्य या इलाके में व्यवस्था और अमन-चैन बहाली के लिए दखल देने का अधिकार है। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघीय पुलिस यानी फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन के जरिए केंद्र सरकार को कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन आज कथित हिंसा के विरोध में अकादमी पुरस्कार वापस कर रहे लेखकों और बौद्धिकों की जमात में तब आडवाणी की पहल को देश के संघीय ढांचे पर हमले के तौर पर देखा गया था।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

सांप्रदायिकता का चश्मा और गीता प्रेस का योगदान

उमेश चतुर्वेदी
(यथावत पत्रिका के अक्टूबर प्रथम 2015 अंक में प्रकाशित)
पूजास्थल पवित्रता और श्रद्धा के केंद्र होते हैं.. देवताओं की मूर्तियां, उनके चित्र और धार्मिक ग्रंथदुनिया के हर मतावलंबी के पूजा और आस्था के केंद्र मानव की आध्यात्मिक यात्रा का जरिया होते हैं। लेकिन हिंदू परिवारों के पूजा स्थलों में अगर इष्ट देवताओं की मूर्तियों या चित्रों के अलावा किसी ग्रंथ ने सबसे ज्यादा सम्मान हासिल किया है, जिसे देवताओं के समतुल्य दर्जा दिया गया है, वह ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस है। अपनी रचना के काल से ही रामचरित मानस भारतीय जनमानस की आस्था का केंद्र रहा है..लेकिन इस ग्रंथ को हर घर के पूजा स्थल तक पहुंचाने में 1923 में स्थापित गीता प्रेस का महत्वपूर्ण योगदान है। जिस गीता प्रेस को जयदयाल गोयंदका ने हनुमान प्रसाद पोद्दार के सहयोग से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में 92 साल पहले स्थापित किया, उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व की प्राचीन और अजस्रधारा के सांस्कृतिक ग्रंथों को उनकी सहज-सरल टीकाओं के साथ घर-घर तक पहुंचाना था। अपनी उम्र की शतकीय यात्रा की तरफ बढ़ रहे इस सांस्कृतिक संस्थान की चर्चा इन दिनों खास है। खास इसलिए कि यहां के कर्मचारियों ने हड़ताल कर रखी है और इस वजह से यहां कामकाज ठप है। भारतीयता की सांस्कृतिक परंपरा की जब भी चर्चा होती है, हिंदुत्व का ही चेहरा हमारे सामने आता है। लेकिन यह हिंदुत्व इन दिनों सांप्रदायिकता का प्रतीक बन गया है या बौद्धिकता की कथित आधुनिक परंपरा की चाशनी ने उसे संकुचित स्तर पर स्थापित कर दिया है।

रविवार, 27 सितंबर 2015

समाजवादी संवेदनशील व्यक्तित्व की याद

अमर उजाला में प्रकाशित
उमेश चतुर्वेदी
पुस्तक - बदरी विशाल
संपादक - प्रयाग शुक्ल
प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
मूल्य - 250 रूपए
आज राजनीति खुद ही कमाई का साधन बन गई है, अब राजनेता स्वयं ही करोड़ों में खेलते हैं। लिहाजा उनके अनुयायी उनसे आर्थिक सहयोग और ताकत ही हासिल करने की उम्मीद और लालच में उनके अनुगामी बने रहते हैं। वैचारिकता की खुराक की उम्मीद अब राजनेताओं से कम ही की जाती है। सोचिए, अगर राममनोहर लोहिया से भी उनके अनुयायी सिर्फ आर्थिक ताकत ही हासिल करने की उम्मीद लगाए बैठे होते और उनके अनुगामी बने रहते तो क्या देश को झिझोड़ देने वाले विचार लोगों के सामने आ पाते, तब क्या देश को आलोड़ित करने वाली लोकसभा की तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस देशव्यापी चर्चा का विषय बन पाती। डॉक्टर राममनोहर लोहिया महज चार साल तक लोकसभा के सदस्य रहे, लेकिन पहले नेहरू, फिर शास्त्री और बाद में इंदिरा गांधी की सरकारों की नीतियों की कलई जिस अंदाज में उन्होंने संसद के सामने खोली, वैसा दशकों तक संसद की शोभा बढ़ाते रहे लोग नहीं कर पाए हैं। उनके विचार आज भी अगर जनमानस की स्मृतियों में ताजा हैं तो इसके बड़े कारक हैदराबाद के कारोबारी खानदान के चिराग बदरी विशाल पित्ती और कोलकाता के मारवाड़ी व्यापारी बालकृष्ण गुप्त परिवार है। हैदराबाद के निजाम के आर्थिक प्रबंधक रहे पित्ती परिवार को राजा की उपाधि मिली थी। उस परिवार के इकलौते चश्म-ओ-चिराग बदरी विशाल पित्ती का लोहिया विचार और हिंदी की गंभीर पत्रकारिता को अमोल योगदान है। इन्हीं बदरी विशाल की जिंदगी पर आधारित इसी नाम से वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार और लेखक प्रयाग शुक्ल ने संपादित की है। जिसमें बदरी विशाल की कलाप्रियता, साहित्यधर्मिता और सांस्कृतिक सोच को लेकर 21 हस्तियों ने अपने विचार लिखे हैं। इससे बदरी विशाल के सांस्कृतिक व्यक्तित्व की एक मुकम्मल तसवीर सामने आती है।

रविवार, 23 अगस्त 2015

लय में लौट आए पीएम



उमेश चतुर्वेदी
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री से उम्मीद लगा रखे लोगों को उनके भाषण में वैसी ताजगी और नई दिशा नजर नहीं आई, जैसा चुनाव अभियान से लेकर पिछले पंद्रह अगस्त तक उनके शब्दों में नजर आती रही। प्रचंड जनमत की आकांक्षाओं के रथ पर सवार होकर जिस तरह सत्ता के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी पहुंचे हैं, उसमें जनता की कसौटियों पर कसे जाने की चुनौतियां कुछ ज्यादा होनी ही थी और वह प्रधानमंत्री के सामने है भी। ऐसे में पंद्रह अगस्त के भाषण को लेकर उन पर टीका-टिप्पणी होनी ही थी। दस-पंद्रह साल पहले की बात होती तो इस टीका-टिप्पणी को देखने के लिए कुछ वक्त की दरकार होती। लेकिन फटाफट खबरों वाले खबरिया चैनलों की अनवरत कथित बहस यात्रा और प्रतिपल सक्रिय सोशल मीडिया के दौर में इससे बचाव कहां। अब तत्काल फैसले भी होने लगते हैं और उन पर टिप्पणियों की बौछार भी होने लगती है। जाहिर है कि पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को लेकर ऐसी टिप्पणियां शुरू भी हो गईं। तब सवाल यह उठने लगा कि प्रधानमंत्री अब चूकने लगे हैं। सवाल यह भी उठा कि अब तक अभियान के मूड में रही उनकी शैली से जनता का मोहभंग होने लगा है।

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

ओम थानवी के बहाने जनसत्ता पर कुछ विचार

उमेश चतुर्वेदी
1986-87 की बात है...तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह में अदावत शुरू हो गई थी..उन्हीं दिनों बोफोर्स तोप सौदे को लेकर राजीव सरकार कठघरे में थी...इंडियन एक्सप्रेस अखबार से पहली बार पल्ला उन्हीं दिनों पड़ा..चित्रा सुब्रमण्यम की रिपोर्टें उन दिनों तहलका मचा रखी थीं..उन्हीं दिनों इंडियन एक्सप्रेस के अखबार जनसत्ता से परिचित हुआ..बेहद पतले कागज पर महज आठ पेज का वह अखबार बलिया में अगले दिन मिलता था और कीमत भी दिल्ली में मिलने वाले अखबार की कीमत की तुलना में कुछ महंगी होती थी..बहरहाल उस बासी अखबार को भी पढ़ने की जो लत लग गई...वह दिल्ली आने के बाद बरसों तक बनी रही..बलिया में रहते वक्त ही रविवार को छपने वाले उस अखबार के संपादकीय पृष्ठ किताबें में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संदर्भ में अपना एक लेख छप चुका था..आचार्य द्विवेदी का बलिया..उस लेख के लिए तब एमए में पढ़ने वाले मुझ जैसे छात्र को स्थानीय पत्रकारों और साहित्यकारों की ठीक-ठाक गालियां भी मिली..तब भी संतोष यह था कि गालियों के बावजूद जनसत्ता में तो छपे..इन्हीं दिनों जनसत्ता के बढ़ते प्रसार और उसे पूरा न कर पाने की मजबूरी का ऐलानिया इजहार भी पढ़ा..प्रभाष जोशी का मिल-बांटकर पढ़ने वाली अपील पढ़ी तो इस अखबार को लेकर एक अलग तरह की छवि मन में बनी...
दिल्ली आए तो जनसत्ता का नया ही रूप देखा..भारतीय जनसंचार संस्थान ने छात्रावास नहीं दिया तो पहले पनाह लेनी पड़ी तत्कालीन बाहरी दिल्ली के इलाके रोहिणी और बाद में संस्थान के बगल कटवारिया सराय में..दोनों ही इलाके उन दिनों जाट आबादी बहुल थे..दोनों ही इलाकों का शायद ही कोई घर था, जिनके यहां जनसत्ता नहीं आता था..तब जनसत्ता में यमुना आर और यमुना पार नाम के पेज आते थे..यमुना था या जमना..इस पर थोड़ा भ्रम है...कुमार संजय सिंह(जो अब संजॉय हो गए हैं) ठीक करेंगे...बहरहाल दोनों पेजों की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि दिल्ली की स्थानीय खबरें यहां छपवाने के लिए लोग लालायित रहते...बोफोर्स को लेकर राजीव गांधी की मिट्टी पलीद करने वाले एक्सप्रेस ग्रुप के अखबार जनसत्ता ने कई बार एक्टिविस्ट की भूमिका निभाई...दिल्ली में रेडलाइन बसों का 1993-94 में खासा आतंक था.. उनके खिलाफ सरकारी तंत्र कार्रवाई तक नहीं कर पाता था..जनसत्ता ने रेडलाइन के खिलाफ अभियान छेड़ा..लोगों से सीधी कार्रवाई करने की अपील की..इसका असर हुआ...जनसत्ता के अभियान के सामने रेडलाइन वाले जो तब ज्यादातर मवाली थे, अपनी औकात पर आ गए..क्योंकि जनता ने ठांव फैसला करना शुरू कर दिया..नतीजतन तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना को कार्रवाई करनी पड़ी...मुझे याद है, दिल्ली के पहले वित्त मंत्री जगदीश मुखी के आदेश के बावजूद बिजली विभाग, जिसे तब डेसू कहा जाता था...के अधिकारी सुधरने को तैयार नहीं थे..तब उन्होंने अपने लोगों से खुद कहा था कि जनसत्ता के रिपोर्टर से संपर्क करो..अब सत्येंद्र झा पत्रकारिता में नहीं हैं..लेकिन दो किश्तों में उन्होंने खोजी रिपोर्ट लिखी और डेसू के कई अफसर सस्पेंड हुए...प्रभाष जोशी तब केंद्रीय टेलीफोन सलाहकार समिति के सदस्य थे..तब एमटीएनएल का दिल्ली में फोन पर एकाधिकार होता था..उसके कर्मचारी और अफसर रिश्वतखोरी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे..इलाके के लाइन मैन को पूजा-प्रसाद ना दो तो टेलीफोन खराब होना तय था..प्रभाष जोशी के एक मित्र के साथ ऐसा ही होता था..वे सिफारिश करते तो फोन तो ठीक हो जाता..लेकिन कुछ दिनों बाद फिर जानबूझकर खराब कर दिया जाता। जोशी जी के मित्र को लाइनमैन ने कहा कि देखता हूं कितने दिनों तक आप  सिफारिश करा पाते हो..कहने का मतलब ये कि चढ़ावा तो चढ़ाना ही पड़ेगा..प्रभाष जी भी जान गए कि अब उनका असल हथियार ही काम आएगा..उन्होंने तब के अपने प्रमुख संवाददाता से एक रिपोर्टर की मांग की..सत्येंद्र झा प्रभाष जी के पास भेजे गए..उन्होंने एमटीएनएल पर ऐसी स्टोरी लिखी कि जिसे कहते हैं तहलका मचना..वह मच गया..इसका जिक्र खुद प्रभाष जी ने अपने कागद कारे स्तंभ में किया..
जनसत्ता के इतिहास में ऐसी ढेरों कामयाबियां हैं..प्रभाष जी के गुलदस्ते में आक्रामक रिपोर्टिंग टीम थी तो उनके साथ गांधीवादी, दक्षिणपंथी, वामपंथी सब लोग थे...दिल्ली में 1994-95 में जब पत्रकारिता में काम शुरू किया तो अंग्रेजी पत्रकारों को ही तरजीह मिलते देखता था..अफसर तो हिंदी के अखबारों और पत्रकारों को कुछ समझते ही नहीं थे..हिंदी पत्रकारों से सीधे मुंह बात करना तो केंद्र के अफसरों को शायद रास ही नहीं आता था..ऐसे घोर हिंदी विरोधी माहौल में भी जनसत्ता के रिपोर्टरों की धाक थी..राजनीतिक ब्यूरो के रामबहादुर राय जी, प्रदीप सिंह जी, ओमप्रकाशजी, राजेश जोशी, असरार खान जी, अतुल जैन जी, विवेक सक्सेना जी की धाक अपनी नंगी आंखों से तमाम पार्टियों, पीआईबी और सरकार के अंगों को कवर करते वक्त मैंने खुद देखी है...हवाला की रामबहादुर राय और राजेश जोशी ने ऐसी रिपोर्टिंग की कि तब की राजनीति ही बदल गई..शरद यादव, लालकृष्ण आडवाणी, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, मदनलाल खुराना आदि को इस्तीफे देने पड़े...लाखूभाई पाठक घूसकांड हो या बबलू श्रीवास्तव का जेल से इंटरव्यू, इन खबरों ने तो भारतीय राजनीति को झकझोर दिया था..एक बात और अंग्रेजी अखबारों के दफ्तरों में तब मैंने सिर्फ जनसत्ता की फाइलें ही देखी थीं..साहित्यिक रिपोर्टिंग में रवींद्र त्रिपाठी ने कामयाबी और स्तरीयता के नए प्रतिमान गढ़े..लेकिन बाद के दिनों में जनसत्ता में ऐसा कुछ नहीं बचा..प्रभाष जी के विदा होते और अच्युतानंद मिश्र के कार्यकाल के खत्म होते ही या तो ये रिपोर्टर ही वहां नहीं रहे, या बचे भी तो निस्तेज कर दिए गए..
सवाल यह उठता है कि जनसत्ता की इन कामयाबियों का यहां जिक्र क्यों..इसलिए कि ओम थानवी जी जनसत्ता की 16 साल की संपादकी से रिटायर हो गए हैं और उसे लेकर हिंदी के एक खास वर्ग के बुद्धिजीवियों में शोक की लहर दौड़ पड़ी है...कि अब जनसत्ता सूना हो गया कि अब जनसत्ता बिना मेरी सुबह नहीं पूरी होगी..आदि- आदि .
थानवी जी का जनसत्ता को लेकर एक मात्र योगदान है..उसे उन्होंने साहित्यिक अखबार बना दिया..जिसमें वितंडों को भी खूब जगह मिली...प्रभाष जोशी ने जिस जनसत्ता को हर वर्ग और विचारधारा के गुलदस्तों से सजाकर एक मुकम्मल और ठेठ अखबार बनाने की ना सिर्फ कोशिश की थी, बल्कि उसे प्रतिष्ठित अखबार बनाया था, वह प्रतिष्ठा कहीं पीछे छूट गई..थानवी जी का योगदान इसमें भी है..जिस रिपोर्टिंग के चलते जनसत्ता सत्ता को हिलाता था, वह रिपोर्टिंग गायब ही हो गई...हां एक साहित्यिक अखबार के तौर पर उसकी प्रतिष्ठा बनी और वह भी एक खास वर्ग में..कई बार तो वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र लोकलहर की रिवाइज्ड कॉपी बनता नजर आया..अगर किसी प्रतिष्ठित अखबार की कामयाबी का यह पैमाना है तो निश्चित तौर पर थानवी जी कामयाब रहे...उनकी कामयाबी को सलाम तो किया ही जाना चाहिए..चलते-चलते एक बात और...थानवी जी बहुत अच्छे व्यक्ति हैं..सबने उनका गुणगान किया है..इतने अच्छे कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती संपादक अच्युतानंद मिश्र का आखिरी संपादकीय नहीं प्रकाशित किया था..तब अच्युतानंद जी को गुस्सा आया कि नहीं..तकलीफ हुई या नहीं..यह तो पता नहीं.. क्योंकि इसे उन्होंने जाहिर नहीं किया..लेकिन तब भानुप्रताप शुक्ल जी जिंदा थे और हिंदी के तमाम प्रमुख अखबारों में नियमित स्तंभ लिखते थे..उन्होंने अपने स्तंभ में वह आखिरी संपादकीय शामिल किया था...जिसे तब करीब 14-15 अखबारों ने प्रकाशित किया था..हां..कुछ पढ़ता-लिखता मैं भी हूं..लेकिन अब मुझे जनसत्ता का उस तरह बेसब्री से इंतजार नहीं रहता..जैसा दस-पंद्रह साल पहले रहता था..मुझे तो वही जनसत्ता पसंद है..जिसकी रिपोर्टिंग सबकी खबर लेती थी और सबको खबर देती थी...

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

आह आकाशवाणी, वाह आकाशवाणी...

उमेश चतुर्वेदी
लिखने और फिर छपने के चस्का लगने के दिन थे.. उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते वक्त कलम ना सिर्फ चल पड़ी थी..बल्कि उसे राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिलने लगी थी..तब के गांव आज की तुलना में कहीं ज्यादा गांव थे..ललित निबंधकार विवेकी राय के शब्दों को उधार लूं तो देसज गांव...जिसमें उसका भूगोल ही नहीं, अपनी सोच और संस्कृति भी समाहित होती थी...तब के गांवों में रोजाना देसी चूल्हे से उठता धुआं भी उन दिनों के गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाया था...गांव आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा लोकगीतों को अपने दिलों में संजोए बैठे थे..सावन की बदरिया के बीच धनरोपनी होती थी तो खेत-बधार में रोपनी के गीतों की झन्नाती मधुर आवाज गूंज उठती थी..धनरोपनी करते हाथों की चूड़ियों की खनक और गले की मधुर आवाज कब एकाकार हो जाती, कहना मुश्किल था..झींसी और बादलों के बीच लुका-छिपी करते सूरज की छाया में मकई के खेतों की सोहनी भी जैसे गूंजायमान हो जाती थी..शादी-विवाह के अनुष्ठान तो अपने पितरों को याद करने, उन्हें न्योतने और उनका आभार ज्ञापन करने के बिना पूरा ही नहीं होते थे..संझा-पराती के साथ खानदान की दो-चार बूढ़ी दादियां-परदादियां अपनी लरजती आवाज के साथ पितरों का सुबह-शाम आवाहन करतीं..संझा-पराती के गीतों में लय और मधुरता पर जोर देने की बजाय श्रद्धा पर कहीं ज्यादा ध्यान रहता था..रात को राम-जानकी मंदिर पर मुनिलाल कोंहार राम चरित मानस का कंठेसुर से पाठ करते तो गांव का पूरा सीवान जैसे तुलसी की भक्ति में डूब जाता...कभी-कभी सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरह-संघर्ष वाले कथागीत सीवान के किसी कोने से उभर आते और बिजलीविहीन गंवई रातों के सन्नाटे को अपने दर्द भरे सुर से चीर देते..लेकिन उस दर्द में भी एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म होता..जिसका जिक्र करना आसान नहीं..बस उसे समझा जा सकता है..चैत राजा आते तो गेहूं, चना, अरहर की कटनी के साथ ही नए तरह के गीतों की लय फूटती और पछिया हवा के झोंकों के साथ खास तरह की तरन्नुम में खो जातीं..चैत-बैसाख और जेठ की रातों में महोबा के वीर भाईयों आल्हा-उदल की वीर रस वाली कहानियां उत्साहित लय में रात के किसी कोने से किसी पुरूष आवाज में गूंजती तो सीवान, खलिहान या अपने दुआरों पर खटिया पर लेवा बिछाकर सो रहे लोगों के कान उधर ही केंद्रित हो जाते...दुर्भाग्य.. अब वैसे गांव नहीं रहे...
दिन भर जिला मुख्यालय पर पढ़ाई और अपना कम, पड़ोसी बड़की माईयों या चाचियों के सौदे-सुलफ खरीदने, दवा जुटाने, किसी रिश्तेदार की मिजाज या मातमपुर्सी के बाद शाम को जब तक कोहबर की शर्त वाली चरबज्जी ट्रेन से गांव लौटते, तब तक मन-तन बुरी तरह थक चुका होता..फिर भी मन के कोने में कहीं न कहीं लिखने का उत्साह बचा रहता था..इन्हीं दिनों हाथ लगा लोक का एक गीत...सीता निष्कासन के संदर्भ का गीत..उस भोजपुरी गीत में अलग तरह का दर्द था..बेशक उस गीत में सीता के दर्द को ही सुर और अभिव्यक्ति मिली है..लेकिन सच कहें तो भोजपुरी इलाके की हर महिला के दर्द, उसकी पीड़ाओं को समाहित किए हुए है वह गीत...वैसे ही 1857 के बाद से लगातार शासकीय उपेक्षा की मार भोजपुरी इलाका झेल रहा है...दुर्भाग्यवश ही कहेंगे कि उसने लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए..कहने को तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भोजपुरी इलाके के ही प्रतिनिधि हैं..हालांकि उन्हें भोजपुरी मनई नहीं माना जा सकता..शासकीय पिछड़ेपन की मार झेलती गाय-गोबर की उपेक्षा भरे विशेषण वाली भोजपुरी पट्टी में महिलाओं के हिस्से दर्द कुछ ज्यादा ही है.. बहरहाल सीता निष्कासन के उस भोजपुरी गीत ने ऐसा बांध लिया कि लगा दर्द की लहरियों से हम भी गुजरने लगे हैं..तब तक कलम चलने लगी थी और मैंने एक समीक्षात्मक लेख लिख डाला..तब रेनॉल्ड की बॉल प्वाइंट पेन बाजार में आई ही थी..उससे सफेद फुलस्केप कागज पर उस वक्त की समझ के मुताबिक लेख लिख डाला और टिकट लगे और अपना पता लिखे लिफाफे के साथ कादंबिनी पत्रिका के दिल्ली दफ्तर भेज दिया..तब कादंबिनी पत्रिका के संपादक राजेंद्र अवस्थी होते थे..बेशक तब मेरा नाम छपने लगा था..लेकिन छपने की तुलना में लेखों की वापसी की फ्रीक्वेंसी कहीं ज्यादा थी..इसलिए उम्मीद नहीं थी कि कादंबिनी जैसी गंभीर पत्रिका में मुझ जैसे गंवईं गंध का लेख छप जाएगा..लेकिन एक महीने बीते नहीं कि वापसी का लिफाफा तो नहीं लौटा..अलबत्ता एक छपा हुआ कार्ड जरूर मिला...जिस पर लिखा था कि आपका लेख प्रकाशनार्थ स्वीकार कर लिया गया है..धुर देहाती, गंवई गंध के बीच जिंदगी गुजार रहे उस किशोर के लिए वह कार्ड जैसे सफलता की नई सीढ़ी ही था, जिसने अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही हो..लेख शायद जून 1992 के कादंबिनी के अंक में छपा..तब बलिया में कादंबिनी की करीब पांच सौ प्रतियां आती थीं..तब कादंबिनी में लेखक का पता भी उसके लेख के साथ छपता था..जाहिर है कि लेख के साथ अपना भी पता छपा..पता छपा नहीं कि प्रतिक्रियास्वरूप चिट्ठियों की आमद शुरू हो गई..देश के कई कोनों से खत कई हफ्तों तक आते रहे..लेख तो आज भी छपते हैं..अव्वल तो अब डाक से चिट्ठियां तो आती ही नहीं..लेकिन यह भी सच है कि प्रतिक्रिया स्वरूप ईमेल भी कम ही आते हैं.. लेख की प्रशंसा तो खैर उनमें थी

बुधवार, 15 जुलाई 2015

एस एन झा या भवेश नंदन झा के गजबे दुनिया

आर्द्रा मूवीज प्राइवेट लिमिटेड द्वारा दूरदर्शन बिहार के लिए देश-विदेश में रह रहे दर्शकों को ध्यान में रखते हुए एक धारावाहिक का निर्माण किया गया है, जिसका नाम है अमूल “एस.एन.झा के गजबे दुनिया”. मैथिली भाषा में प्रसारित होने वाले इस हास्य धारावहिक का प्रसारण 16 जुलाई से होने जा रहा है. इसे हर बृहस्पतिवार को शाम 6:00 बजे से प्रसारित किया जाएगा. इसके प्रस्तुतकर्ता हैं अमूल. “एस. एन. झा के गजबे दुनिया” एक महत्वाकांक्षी पत्रकार एस.एन.झा (सूर्य नारायण झा) के पत्रकारिता जीवन और आम जनता की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने जैसे मुद्दे को लेकर बनाया गया है. अपने शुरूआती दिनों में पत्रकारिता करने वाले निर्माता-निर्देशक भवेश नन्दन यकीन के साथ कहते हैं कि ये धारावाहिक सभी वर्गों को पसंद आएगा.
भवेश नन्दन का धारावाहिक के विषय वस्तु के बारे में कहना है, “एक पत्रकार के लिए जहाँ बड़े-बड़े राजनेता, हस्ती एवं उद्योगपतियों के साथ उठना-बैठना सामान्य बात है, वहीं दूसरी और वह छोटी-छोटी घरेलू समस्याओं से परेशान भी रहता है. पत्रकार एस. एन. झा (सूर्यनारायण झा) की पत्नी (चन्द्रकला झा) पत्रकारिता को आम पेशा की तरह रोजी-रोटी का एक साधन मात्र मानती है. वहीं पत्रकार एस. एन. झा  इसे पेशा न मानकर इसे कर्तव्य मानते हैं. वह भले ही आम लोगों की समस्या को उजागर करने के लिए दिन रात की कड़ी मेहनत करते है, परन्तु अपनें घर की समस्याओं को नज़रअंदाज कर साप्ताहिक छुट्टी वाले दिन घर में आराम फरमाना चाहते हैं. किन्तु हर सप्ताह एक नये कड़ी में आगाज होता है एक समस्या का, जिसको सुलझाने में श्रीमान की छुट्टी खराब हो जाती है, इसको सुलझाने में सरल हास्य उत्पन्न होता है..यही इस सीरियल का मुख्य आधार है”
“ये धारावाहिक एक पत्रकार की कहानी है और हम सभी कहीं ना कहीं इस कहानी से अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे. जिंदगी की भाग-दौड़ में अगर हास्य व्यंग्य का समावेश ना रहे तो किसी भी सामान्य आदमी के लिए दैनिक कार्य करना मुस्किल हो जाता है, धारावाहिक एक आम इंसान के दैनिक जीवन में हास्य व्यंग्य के महत्ता को परिभाषित करता है.”
दर्शकों को भरपूर मनोरंजन देने के लिए इस धारावहिक की विशेषता है कि किसी ख़ास समस्या को केंद्र में रखकर संभवतः निदान भी उसी कड़ी में कर दिया जाता है, जिससे दर्शकों को अगली कड़ी में रखे जाने वाला एक नई समस्या को देखने के लिए बेसब्री से इंतज़ार होगा.धारावाहिक के निर्माता और निर्देशक हैं भवेश नन्दन झा, भवेश नन्दन नंदन झा इससे पहले कई एड फिल्म, डॉक्युमेंट्री फिल्म तथा लघु फिल्म का निर्देशन कर चुके हैं.  इस धारावाहिक में मुख्य भूमिका है अनिल मिश्र व रोशनी झा की.  इस धारावाहिक की स्क्रिप्ट लिखा है विकास झा ने..जबकि सिनेमेटोग्राफी खालिद अब्बास के जिम्मे है..सम्पादन एल. के. शशि कर रहे हैं. इसके सहायक निर्देशक हैं अमिताभ भूषण, ओमप्रकाश गुंजन, अविनाश प्रभाकर व अपर्णा झा, कार्यकारी निर्माता हैं प्रशांत कुमार व मुकेश चन्दन.

रविवार, 12 जुलाई 2015

बनावटीपन से ताजिंदगी दूर रहे यादवराव देशमुख


उमेश चतुर्वेदी
पांचजन्य के संपादक रहे, सहजता की अनन्य मूर्ति, खालिस सहज इन्सान और अपने चहेतों के बीच काकू के तौर पर मशहूर यादवराव देशमुख चार जून को वहां के लिए कूच कर गए, जहां से कोई लौटकर नहीं आता...दीनदयाल शोध संस्थान के प्रमुख रहे 87 साल के यादव राव देशमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे कार्यकर्ता थे, जिन्हें अहंकार छू तक नहीं गया था...जिस वक्त उन्होंने महाप्रयाण किया, उस वक्त अशोक महान की बेटी संघमित्रा द्वारा बनवाए गए सांची के स्तूप की यात्रा पर था..लिहाजा बाबा की आखिरी यात्रा का मौन और मार्मिक गवाह नहीं बन पाया..लेकिन विदिशा से दिल्ली लौटने के क्रम में जैसे ही यह खबर मिली..स्मृतियों के हिंडोले में बाबा से जुड़ी कई सारी यादें एक-एक कर आने लगीं..उनके सुपुत्र भारतीय जनसंचार संस्थान की वीथियों में अपने सहपाठी रहे हैं..इसीलिए बाबा से परिचय भी हुआ और यादवराव देशमुख हमारे लिए भी बाबा यानी पिता ही हो गए..यशवंत की मां भी हमें बेटा ही मानती रहीं..कभी नाम नहीं लिया..बहरहाल यादों के हिंडोले से छनकर आयी एक याद साझा कर रहा हूं..जो खालिस पत्रकारीय अनुभव से परिपूर्ण है..

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

रिपोर्टर की नोटबुक

उमेश चतुर्वेदी
उपन्यास-रेड जोन
उपन्यासकार-विनोद कुमार
प्रकाशक- अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली -110092
मूल्य -395 रूपए
(यह पुस्तक समीक्षा मशहूर पत्रकार रामबहादुर राय के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका यथावत के 01-15 अप्रैल 2015 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है।)
रिपोर्टर की नोटबुक अव्वल तो आंकड़ों, तथ्यों और उन्हें रचने और प्रभावित होने वाले लोगों के अनुभवों का संग्रह होती है। इतना ही नहीं, अपने समय सापेक्ष इतिहास से भी रिपोर्टर अपनी नोटबुक के जरिए ही साक्षात्कार करता रहता है। कई बार तथ्यों को दर्ज करते वक्त रिपोर्टर का एक मात्र मकसद अखबार-पत्रिका की भावी स्टोरी के लिए साक्ष्य के तौर पर उसमें तथ्यों को दर्ज कर रखनाभर होता है। लेकिन जाने-अनजाने में दर्ज किए जाते रिपोर्टर की नोटबुक के विवरण कई बार तात्कालिक इतिहास को रचने, किसी की जिंदगी के दर्द को जमाने की सहानुभूति हासिल कराने का माध्यम भी बन जाते हैं। पेशे से पत्रकार विनोद कुमार के उपन्यास रेड जोन को पढ़ते वक्त बार-बार ऐसा लगता है, मानो आप किसी रिपोर्टर की नोट बुक से गुजर रहे हों। जिसमें रिपोर्टर के कार्यक्षेत्र में स्थित कुछ अभावग्रस्त जिंदगियों का दर्द है..हालात की मारी इन जिंदगियों का शोषण करती सामाजिक व्यवस्था है। उस व्यवस्था से लोहा लेने और इन जिंदगियों को राहत दिलाने की स्वघोषित जिम्मेदारी निभाने का दावा करने वाली पत्रकारिता भी हमाम में नंगे की तरह नंगी नजर आती है। राजनीति तो वैसे ही बदनाम है, उससे तो अब उम्मीद भी अनिवार्य रस्म अदायगी ही रह गई है। रेडजोन को पढ़ते वक्त इस रस्मअदायगी के पीछे का घिनौना सच भी बार-बार सामने आता है।

मंगलवार, 31 मार्च 2015

पत्रों में साया सनातनी संस्कृति का तप

 मेश चतुर्वेदी
(यह समीक्षा पांचजन्य के 05 अप्रैल 2015 के अंक में संपादित करके प्रकाशित की जा चुकी है)
उदात्त भारतीय परंपराओं के बिना भारतीय संस्कृति की व्याख्या और समझ अधूरी है। सनातनी व्यवस्था अगर पांच हजार सालों से बनी और बची हुई है तो इसकी बड़ी वजह उसके अंदर सन्निहित उदात्त चेतना भी है। पश्चिम की विचारधारा पर आधारित लोकतंत्र के जरिए जब से नवजागरण और कथित आधुनिकता का जो दौर आया, उसने सबसे पहले सनातनी व्यवस्था को दकियानुसी ठहराने की की कोशिश शुरू की। सनातनी संस्कृति के पांच हजार साल के इतिहास के सामने अपेक्षाकृत बटुक उम्र वाली संस्कृतियां भी अगर हिंदू धर्म और संस्कृति पर सवाल उठाने का साहस कर पाईं तो उसके पीछे पश्चिम आधारित लोकतंत्र और आधुनिकता की अवधारणा बड़ी वजह रही। लेकिन इसी अवधारणा के दौर में एक शख्स अपनी पूरी सादगी और विनम्रता के साथ तनकर हिंदुत्व की रक्षा में खड़ा रहा। उसने अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा और कठिन तप के सहारे आधुनिकता के बहाने हिंदुत्व पर हो रहे हमलों का ना सिर्फ मुकाबला करने की जमीन तैयार की, बल्कि देवनागरी पढ़ने वाले लोगों के जरिए दुनियाभर में हिंदुत्व, सनानती व्यवस्था, सनातनी ज्ञान और उदात्त संस्कृति को प्रस्तारित करने में बड़ी भूमिका निभाई।

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

हस्तिनापुर में बीजेपी की करारी हार के पीछे की हकीकत

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी कमी यह मानी जाती रही है कि यहां की बहुदलीय व्यवस्था में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला दल या व्यक्ति ही जीता मान लिया जाता है। भले ही जमीनी स्तर पर उसे कुल वोटरों का तिहाई ही समर्थन हासिल हुआ हो। नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारी बहुमत वाली केंद्र सरकार भी महज कुछ मतदान के तीस फीसदी वोटरों के समर्थन से ही जीत हासिल कर पाई है। इन अर्थों में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जीत दरअसल लोकतांत्रिक व्यवस्था की सर्वोच्च मान्यताओं की जीत है। केजरीवाल की अगुआई में मिली जीत में दिल्ली के 54 फीसदी वोटरों का समर्थन हासिल है। आधे से ज्यादा वोट हासिल करने वाली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 90 फीसदी से ज्यादा सीट हासिल की है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बड़ी और साफ जीत है। जाहिर है कि उनकी जीत के गुण गाए जा रहे हैं और गाए जाएंगे भी। दुनियाभर की संस्कृतियों में चढ़ते सूरज को सलाम करने और उसकी पूजा करने की एकरूप परंपरा रही है। इन अर्थों में केजरीवाल की ताजपोशी की बलैया लिया जाना कोई अनहोनी नहीं है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2015



भुवनेश्वर में आल इंडिया रेडियो द्वारा आयोजित
सर्वभाषा कवि-सम्मेलन-2015
की कुछ आंखों-देखी झलकियां 
  • दिनेश कुमार माली
पता नहीं क्यों, हिन्दी-साहित्य के प्रति उमड़ता हुआ मेरा प्रेम मुझे कहाँ-कहाँ नहीं खींच ले जाता है।मन के भीतर सुषुप्त भावनाओं की अभिव्यक्ति की तड़प बड़े-बड़े लेखकों और कवियों से मिलने का एक भी अवसर खोना नहीं चाहती है। तभी तो, इस वर्ष की शुरूआत से ही भुवनेश्वर में आयोजित होने वाले साहित्यिक आयोजनों जैसे इडकॉल प्रेक्षागृह में जगदीश मोहंती फाउंडेशन के प्रथम श्रद्धांजलि समारोह में ओड़िया भाषा के विशिष्ट साहित्यकारों में विभूति पटनायक, सदानंद त्रिपाठी, प्रकाश महापात्र, सरोज बल, सुनील पृष्टि तथा इस संस्थान की अध्यक्षा डॉ सरोजिनी साहू से भेंटवार्ता, कलिंग इंडस्ट्रियल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के यूनिवर्सिटी कैंपस में कादंबिनी पत्रिका द्वारा आयोजित अद्यतन वार्षिकोत्सव में ओड़िया-भाषा के बड़े-बड़े साहित्यकारों में श्री रमाकांत रथ, श्री राजेन्द्र किशोर पंडा, श्री सातकड़ी होता, श्री दीपक मिश्र एवं हिन्दी भाषा के नामी साहित्यकार चित्रा मुद्गल व अरुण कमल से आत्मीय मुलाकात करने बाद ऑल इंडिया रेडियो द्वारा भुवनेश्वर के भंज कला मंडप में आयोजित 15 जनवरी को ‘सर्वभाषा कवि सम्मेलन ( नेशनल सिम्पोजियम ऑफ पोएट्स) में 22 भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट कवियों तथा उनके अनुवादकों की कविताओं को सुनने के लिए तालचेर से अपने नौकरी वाले कर्तव्य-कर्मों से लुकाछिपी करते हुए वहां पहुंच गया। यहाँ तक कि, महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड की लिंगराज खुली खदान से नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन, कनिहा में होने वाले कोयले के आवश्यक सम्प्रेषण जैसे गंभीर कार्य को ताक पर रख कर मैंने अपनी दूसरी दुनिया की ओर प्रस्थान कर लिया। कभी-कभी मजाक में कहा हुआ महाप्रबंधक महोदय का यह कथन सही प्रतीत होने लगता है कि ‘बाय डिफ़ाल्ट’ मैं माइनिंग इंजिनियर बना हूँ आजीविका के लिए, अन्यथा एक विशिष्ट साधना की तरह साहित्य-कर्म में गहन अभिरुचि मुझे अपना गंतव्य स्थान लगने लगती है।
जो भी हो, यह कार्यक्रम मेरे लिए विशिष्ट था। इस कार्यक्रम में मुझे उद्भ्रांत साहब से मिलना था। हिन्दी भाषा के अग्रणी कवि के तौर पर वह इस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले थे। दो दिन पहले उन्होने मुझे इस संदर्भ में फोन भी किया था यह कहते हुए, “मैं भुवनेश्वर पहुँच रहा हूं 15 जनवरी को। ऑल इंडिया रेडियो द्वारा आयोजित ‘सर्वभाषा कवि सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए। आप भुवनेश्वर से कितने दूर रहते हो ?”
फोन पर उद्भ्रांत जी की आवाज सुनते ही मन बहुत खुश हो गया।मैं उन्हें अपना आदर्श कवि मानता था और उनसे मिलने का मौका बिलकुल खोना नहीं चाहता था। वह मेरे मार्गदर्शक भी थे। मैं उन्हें साल की शुरुआत में नए साल का अभिवादन भी नहीं कर पाया था,क्योंकि उन्होने मुझे चीनी कवि लू-शून का अध्याय जोड़कर ‘चीन का संस्मरण’ पूरा करने का सलाह दी थी, मगर इधर-उधर के कामकाज की वजह से उस पाण्डुलिपि को पूरा कर नहीं पाया था। यह अपराध-बोध मुझे अपनी प्रतिबद्धता के खिलाफ चोटिल कर रहा था। अगस्त 2014 में सृजनगाथा द्वारा चीन में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की बहुत सारी मधुर स्मृतियां मानस पटल पर रह-रहकर ताजा हो रही थी,अचानक उनके भुवनेश्वर आने का कार्यक्रम मन को अत्यंत सुकून दे रहा था।फोन पर हो रही बातचीत के दौरान उन्होंने अपने अंतस में छुपे स्नेह के अथाह महासागर में से कुछ मोती मेरी तरफ उछालते हुए कहा था, “अगर बहुत ज्यादा दूर हो तो रहने दो। मगर तुम्हें देखे हुए बहुत दिन हो गए हैं। इस कार्यक्रम में रमाकांत रथजी ,उदगाताजी जी भी आएंगे। कोशिश करना ........ ”
“आपसे मिलने के लिए दूरी कोई बाधा नहीं है,सर। मैं पूरा प्रयास करूंगा आपसे मिलने का आप भुवनेश्वर आकर अगर बिना मिले चले जाएंगे तो मुझे बड़ा अफसोस होगा। और तो और, इसी बहाने रमाकांत रथ जी व उदगाता जी से भी मिलना हो जाएगा।” यह कहते हुए मैंने मन ही मन भुवनेश्वर जाने का संकल्प लिया।
मेरे उत्तर से आश्वस्त होकर प्रसन्नतापूर्वक वह कहने लगे, “ सर्वभाषा कवि सम्मेलन या (नेशनल सिम्पोजियम ऑफ पोएट्स) ऑल इंडिया रेडियो द्वारा सन 1956 से हर साल आयोजित किया जाता है। जिसमें देश की 22 भाषाओं के उत्कृष्ट कवि भाग लेते हैं। यह एकमात्र ऐसा मंच है, जो समस्त समकालीन भारतीय भाषाओं के बीच पारस्परिक भाषायी सौहार्द्र के साथ-साथ ‘अनेकता में एकता’ के सूत्र को अक्षुण्ण रखने की प्रेरणा देता है। इस कार्यक्रम में सभी मूल कवि पहले अपना कविता पाठ करते हैं, फिर उनके अनुवादक कवि उनकी कविताओं के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। इस कार्यक्रम की दो घंटे की रिकॉर्डिंग की जाती है, जिसे 25 जनवरी की रात को दस बजे आल इंडिया रेडियो से प्रसारित किया जाता है। उसी दिन,आल इंडिया रेडियो की रीज़नल शाखाएँ उनकी रीजनल भाषाओं में अनुवाद प्रसारित करती है। इस तरह देश के कोने-कोने में ये सारी कविताएं पहुँच जाती है।”
यह थी इस कार्यक्रम के बारे में संक्षिप्त जानकारी, मगर मेरे लिए यह अलग किस्म का प्रोग्राम था,जिसे मैंने अपने जीवन में न पहले कभी देखा और न ही सुना। एक भाषा के बाईस अनुवाद तो बाईस भाषा के कुल अनुवाद 484 हो जाते हैं। इतने व्यापक स्तर पर भारतीय भाषाओं के अनुवाद का अनोखा प्रयोग था यह। मैं मन ही मन सोच रहा था कि अगर ऐसे ही प्रयोग होते रहें तो भारतीय भाषाओं के शब्द-कोश अपने आप में किसी विश्व-कोश से कम नहीं होगा। “सर्वभाषा कवि सम्मेलन” के माध्यम से आल इंडिया रेडियो संविधान में मान्यता प्राप्त सारी भारतीय भाषाओं की समृद्धि, साहित्यिक धरोहर व उच्च कोटि की सांस्कृतिक प्रस्तुति के महा-संगम को एक मंच पर देखने के लिए किस साहित्य-प्रेमी का मन नहीं ललचाता होगा! एक-दो दिन बाद, इससे पहले कि मैं फर्टिलाइजर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के मेरे साहित्य-अनुरागी मित्र, सेवा-निवृत केमिकल इंजीनियर डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल को मेरी यह मंशा बताता तो उन्होने पहले ही वहाँ का आमंत्रण-पत्र मुझे दिखाते हुए इस कार्यक्रम की सारी रूपरेखा के बारे में विस्तृत जानकारी देने लगे।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

भोजपुरी के संघर्ष की मुकम्मल किताब

उमेश चतुर्वेदी
किताब का नाम: तलाश भोजपुरी भाषायी अस्मिता की
लेखक: अजीत दुबे
प्रकाशक: इंडिका इन्फोमीडिया 
मूल्य: 400 रुपये
तकनीक के विस्तार और सूचना क्रांति के दौर में जब दुनिया ग्लोबल गांव के तौर पर तब्दील हो रही हो, तब स्थानीयता स्थानिकता देसज सोच और पारंपरिक संस्कृति का कोई मतलब ही नहीं रह जाता लेकिन मनुष्य के जीवन में अगर आज भी ये चीजें मायने रखती हैं तो निश्चित तौर पर इसका श्रेय हजारों साल के मानवीय विकासक्रम और इसके जरिए परंपरा और संस्कृति को लेकर स्थापित सोच को ही जाता है यही वजह है कि भाषा और उसकी स्थानीयता आज दुनिया भर में राजनीति का औजार और कारण दोनों बन गए हैं...चेकोस्लोवाकिया के विभाजन की पृष्ठभूमि में चेक और स्लोवाक भाषाओं की भी भूमिका रही...भारत में भाषाएं अब भी राजनीतिक हथियार और सांस्कृतिक संघर्ष का जरिया बनी हुई हैं....तमिल बंगला और मराठी जैसी भाषाओं को लेकर उन्हे बोलने वालों का आग्रह इसका उदहारण है...दुर्भाग्यवश आजादी के बाद हिंदी भारतीयता और भारतीय राजनीति का हथियार नहीं बन पाई जबकि आजादी के पहले वह भारतीयता और राष्ट्र की भाषायी अस्मिता का प्रतीक थी...जाहिर है कि आजादी के बाद जब हिंदी ही राजनीतिक हथियार नहीं बन पाई तो उसकी सहोदर भाषाएं अवधी- भोजपुरी कैसे हथियार बन पाती...लेकिन 17 मई 2012 को जब भारतीय राजनीति के एलीट चेहरे और तब के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में भोजपुरी में लोगों की भावनाओं को समझने का विचार जाहिर किया, तब माना गया कि भोजपुरी भले ही राजनीतिक हथियार न बन पाए लेकिन उसकी अहमियत जरुर समझी जाएगी...

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

वर्गीज को श्रद्धांजलि के बहाने

यह स्वीकार करने में अब एकदम हिचक नहीं रही कि भारतीय पत्रकारिता का बहुसंख्यक चेहरा अर्थ यानी धन से ही संचालित होे रहा है, सरोकार तो पता नहीं पत्रकारिता कहां पीछे छोड़ आई है। दिल्ली जैसे शहर में... जहां पत्रकारिता में तुलनात्मक रूप से स्थायीत्व और निरंतरता कहीं ज्यादा है.... वहां भी सरोकार या तो पीछे छूट चुके हैं या छूटने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन इसी दिल्ली और इसी दौर में बी जी वर्गीज़ भारतीय पत्रकारिता के लिए मशाल की तरह रहे... सरोकार, विकास और धारा से विपरीत लेकिन संस्कारों से ओतप्रोत विचार.... बी जी वर्गीज़ की पहचान रही। वर्गीज़ के बहाने सरोकार और संस्कार की दबी ढंकी चाहत रखने वाले पत्रकारों के मानस में बेहतर भविष्य की आकांक्षा वाली एक लौ जलती रही, लेकिन दुर्भाग्य.... अब वह लौ भी बुझ गई है... उम्मीद करें कि वह लौ पथभ्रष्ट हो रही पत्रकारिता को उसके मूल सरोकारी पथ पर लाने का प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी.... श्रद्धांजलि..