रविवार, 25 अगस्त 2013

शुरूआती संघर्ष के दिनों की यादें- 2..

मीडिया की एक बड़ी समस्या यह हो गई है कि यहां एक पारदर्शी भर्ती नीति नहीं है..नए लोगों से मिलने में सीनियरों को तकलीफ होती है..हालांकि उनकी भी सीमाएं हैं..जॉब की तलाश करते कई कई नए पत्रकारों की तकलीफ यही है कि अगर पहचान नहीं हुई तो आपकी सीवी कूड़े के ढेर में फेंक दी जाती है..हमने जब पत्रकारिता शुरू की, उन्हीं दिनों पारदर्शी भर्ती प्रक्रिया को किनारे लगाया जाने लगा था...लेकिन ऐसा नहीं है कि उस दौर में भी लोग नए लोगों के लिए दरवाजे खोलकर रखा करते थे...अपना भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा है....1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान से निकलते वक्त मैंने संस्थान के ही एक रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम किया था..कीटनाशक बनाम पर्यावरण के इस प्रोजेक्ट के लिए मुझे ठीकठाक 25 मीडिया शख्सीयतों से मिलकर उनका इंटरव्यू करने की जिम्मेदारी दी गई। तब मैं दिल्ली में मीडिया के तब के गढ़ आईएनएस बिल्डिंग पहुंचा। उन दिनों इतने मीडिया वालों को जानता भी नहीं था। लिहाजा भारतीय जनसंचार संस्थान के रिसर्च विभाग ने बाकायदा एक सूची भी दी। आईएनएस पहुंचा और जिस कमरे में जाता और वहां के संबंधित व्यक्ति से मिलकर अपना परिचय देता..एक ही जवाब मिलता..नहीं मैं कैसे जवाब दे सकता हूं या हाउ कैन आई एंटरटेन यू...लेकिन मेरा सौभाग्य...आईएनएस बिल्डिंग में तीन लोगों ने ना मुझे पहली ही मुलाकात में इंटरव्यू दिया..बल्कि उस दौर के फटेहाल मुझ जैसे शावक पत्रकार को नाश्ता-चाय भी कराया। ये शख्यिसतें थीं उस दौर के अमर उजाला के ब्यूरो प्रमुख प्रवाल मैत्र, जन्मभूमि समूह के ब्यूरो प्रमुख कुंदनलाल व्यास और मराठी के सकाल की विशेष संवाददाता सुरेखा टकसाल। प्रवाल जी और सुरेखा जी अपने-अपने पदों से अवकाश ग्रहण कर चुके हैं, जबकि कुंदनजी अब मुंबई में जन्मभूमि के प्रमुख संपादक हैं। बाद में तो प्रवाल जी ने मुझसे अमर उजाला में बीसियों रिपोर्टें लिखवाईं। सुरेखा जी के साथ 2008-09 में साथ काम करने का मौका भी मिला। तब मैं सकाल के टीवी डिविजन के दिल्ली दफ्तर में ठीकठाक पद पर काम कर रहा था। वैसे तो संघर्ष अब भी जारी है। लेकिन शुरुआती संघर्ष के दिन जब भी याद आते हैं..ये तीनों ही हस्तियां याद आती हैं..उनका प्यार और नए लोगों की मदद करने का जज्बा भुलाना मुश्किल है... काश कि ऐसे ही तमाम वरिष्ठ होते..तब पत्रकारिता की दशा ही कुछ और होती...