उमेश चतुर्वेदी
मीडिया का जब भी कोई नया माध्यम आता है, उससे पहले के माध्यमों के लिए शोक गीत गाने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। वेब माध्यम के आने के बाद भी कुछ ऐसा रूदन शुरू हो गया था। इस रोने-गाने में मीडिया समीक्षक भूल जाते हैं कि वेब माध्यम अपने चरित्र और अपनी तकनीक के चलते दूसरे सभी माध्यमों से अलग है। बीसवीं सदी के शुरू में जब रेडियो माध्यम आया था तो निश्चित तौर पर वह प्रिंट माध्यम से चरित्र और तकनीकी दोनों स्तर पर अलग था। इसी तरह 1930 के दशक में आया टेलीविजन भी रेडियो के ऑडियो गुणों से थोड़ा युक्त होने के बावजूद अपने पहले के दोनों माध्यमों से अलग था। लेकिन 1969 में आए इंटरनेट माध्यम अपने पहले के तीनों माध्यमों से अलग होते हुए भी इन तीनों को अपने में समाहित किए हुए है। यही वजह है कि इस माध्यम के लिए पत्रकारिता का काम सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इस माध्यम की चुनौती को जिस पेशेवराना अंदाजा से जूझने की तैयारी होनी चाहिए, कम से कम भारतीय भाषाओं में यह नदारद ही दिखती है। वेब जर्नलिज्म की अलख अगर भारतीय भाषाओं में दिख रही है तो उसका सबसे बड़ा जरिया बने हैं इस माध्यम की ताकत और महत्व को समझने वाले कुछ शौकिया लोग। लेकिन यह भी सच है कि शौकिया और सनकी किस्म के लोग किसी नए विचार और माध्यम को शुरूआती ताकत और दिशा ही दे सकते हैं, उसके लिए जरूरी आधार मुहैया करा सकते हैं, लेकिन उस विचार या माध्यम को आखिरकार आगे ले जाने की जिम्मेदारी पेशवर लोगों और उनके पेशेवराना अंदाज पर ज्यादा होती है।
वेब पत्रकारिता की चुनौतियों को समझने के लिए सबसे पहले हमें आज के दौर में मौजूद माध्यमों, उनके चरित्र और उनकी खासियतों-कमियों पर ध्यान देना होगा। इंटरनेट के आने से पहले तक सभी माध्यमों की अपनी स्वतंत्र पहचान और स्पेस था। लेकिन इंटरनेट ने इसे पूरी तरह बदल डाला है। इंटरनेट पर स्वतंत्र समाचार साइटें भी हैं तो अखबारों के अपने ई संस्करण भी मौजूद हैं। स्वतंत्र पत्रिकाएं भी हैं तो उनके ई संस्करण भी आज कंप्यूटर से महज एक क्लिक की दूरी पर मौजूद हैं। इसी तरह टेलीविजन और रेडियो के चैनल भी कंप्यूटर पर मौजूद हैं। कंप्यूटर का यह फैलाव सिर्फ डेस्क टॉप या फिर लैपटॉप तक ही नहीं है। बल्कि यह आम-ओ-खास सबके हाथों में मौजूद पंडोरा बॉक्स तक में पहुंच गया है। 2003 में बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा की लखनऊ में शुरूआत करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने मोबाइल फोन को पंडोरा बॉक्स ही कहा था। भारत में मोबाइल तकनीक और फोन सेवा की संभावनाओं का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के बड़े टेलिकॉम ऑपरेटरों ने 3G सेवाओं के लाइसेंस के लिए हाल ही में करीब 16 अरब डॉलर यानी 75,600 करोड़ रुपए की बोली लगाई। संचार मंत्रालय के एक आंकड़े के मुताबिक देश में जून 2010 तक मोबाइल फोन उपभोक्ताओं की संख्या 67 करोड़ तक पहुंच गई थी। यहां इस तथ्य पर गौर फरमाने की जरूरत यह है कि इन में से ज्यादातर फोन पर इंटरनेट सर्विस भी मौजूद है। लेकिन मोबाइल के जरिए इंटरनेट का जोरशोर से इस्तेमाल अभी नहीं हो रहा है। एक अमरीकी संस्था 'बोस्टन कंस्लटिंग ग्रुप' ने 'इंटरनेट्स न्यू बिलियन' नाम से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक इस समय भारत में 8.1 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं। इस संस्था के मुताबिक 2015 में भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या बढ़कर 23.7 करोड़ हो जाएगी। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत का मौजूदा इंटरनेट उपभोक्ता रोजाना आधे घंटे तक इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। जिसके बढ़ने की संभावना अपार है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 2015 तक ही भारत का आम इंटरनेट उपभोक्ता रोजाना आधे घंटे की बजाय 42 मिनट इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगेगा। इसकी वजह भी है। दरअसल आज भी दिल्ली-मुंबई या लखनऊ-जयपुर जैसे शहरों को छोड़ दें तो तकरीबन पूरा देश बिजली की किल्लत से जूझ रहा है। इंटरनेट के पारंपरिक माध्यमों को चलाने के लिए बिजली जरूरी है। ऐसे में कंप्यूटर निर्माता कंपनियां ऐसे कंप्यूटरों के निर्माण में जुटी हैं, जिन्हें बैटरियों या ऐसे ही दूसरे वैकल्पिक साधनों से चलाया जा सके। इस दिशा में तकनीकी विकास जैसे हो रहा है, जाहिर है कि ऐसा होना देर-सवेर संभव होगा ही। कल्पना कीजिए कि अगर ऐसा हो गया तो देश में कंप्यूटर क्रांति आ जाएगी और फिर इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ना लाजिमी हो जाएगा। विविधतावादी भारत देश में तब इंटरनेट पाठकों, स्रोताओं और दर्शकों का विविधता युक्त एक बड़ा समूह होगा, जिनकी जरूरतें और दिलचस्पी के क्षेत्र विविध होंगे। जिनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। हालांकि इसकी एक झलक आज भी प्रिंट माध्यमों में दिख रहा है। जहां पाठकों की विविधरंगी रूचियां और जरूरतें साफ नजर आती हैं। अखबार और पत्रिकाएं अपने पाठकों को लुभाने के लिए उनकी दिलचस्पी और जरूरत की पाठ्य सामग्री मुहैया करा रही हैं।
इंटरनेट की एक और खासियत है, समय की मजबूरियों से मुक्ति। अखबार या पत्रिकाएं एक निश्चित अंतराल के बाद ही प्रकाशित होते हैं। टेलीविजन ने इस अंतराल को निश्चित तौर पर कम किया है। रेडियो ने भी वाचिक माध्यम के तौर पर इस अंतराल को घटाया ही है। लेकिन वहां अब भी तकनीकी तामझाम ज्यादा है। विजुअल को शूट करना, उसे एडिट करना और उसे सॉफ्टवेयर में लोड करना अब भी ज्यादा वक्त लेता है। लेकिन इंटरनेट ने वक्त की यह पाबंदी भी कम कर दी है। खबर आई या उसका वीडियो या ऑडियो शूट किया गया और उसे इंटरनेट पर लोड कर दिया गया। हालांकि अभी तक उपलब्ध 2 जी तकनीक के चलते इस पूरी प्रक्रिया में थोड़ी दिक्कतें जरूर होती हैं। लेकिन 3 जी के आने के बाद ये दिक्कतें पूरी तरह से कम हो जाएंगी। तब निश्चित तौर पर इस माध्यम के लिए कंटेंट जुटाने और तैयार करने वाले लोगों की परेशानियां थोड़ी कम हो जाएंगी।
भारतीय भाषाओं की वेब पत्रकारिता को परेशानी कमाई के स्रोत कम होना है। जिस तरह प्रिंट माध्यमों में विज्ञापन दिख रहे हैं, टेलीविजन में भी विज्ञापनों की कमाई बढ़ रही है, वैसा अभी फिलहाल इंटरनेट की दुनिया में नहीं दिख रहा है। हालांकि प्राइस वाटर हाउस कूपर की पिछले साल जारी रिपोर्ट ने इंटरनेट विज्ञापनों की दुनिया में 12.4 फीसद बढ़त का आकलन किया था।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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