(यह लेख बहुवचन में प्रकाशित हुआ है)
नई आर्थिकी, कारपोरेट कल्चर और मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
‘ दुनिया जैसी भी है, बनी रहेगी और चलती
रहेगी ।’
वाल्टर लिपमैन, अमेरिकी पत्रकार
भारतीय
दर्शन में भी जीवन और दुनिया को लेकर कुछ वैसी ही धारणा रही है। जैसा वाल्टर
लिपमैन ने कहा था। इस कथन में नियति को स्वीकार करने का भी एक बोध छुपा हुआ
है। दुनिया और अपने आसपास के माहौल में
मौजूद तमाम तरह के अंतर्विरोधों के बावजूद यह नियतिवादी दर्शन ही उसके प्रति विरोध
और विद्रोह की संभावनाओं को खारिज करता रहता है। कहना न होगा कि इसी नियतिवाद का
शिकार इन दिनों भारतीय मीडिया और उसमें सक्रिय लोग भी हैं। लेकिन इसका मतलब यह
नहीं है कि वे अपनी नियति से विद्रोह करना नहीं चाहते। लेकिन नई आर्थिकी ने जिस
तरह खासतौर पर महानगरीय जिंदगी को आर्थिक घेरे में ले लिया है, वहां विरोध और
विद्रोह की गुंजाइश लगातार कम होती गई है। कर्ज के किश्तों पर टिका जिंदगी की
जरूरतें और आडंबर ने मीडिया में काम कर रहे लोगों को भी इतना घेर लिया है कि तमाम
तरह की विद्रूपताओं के बावजूद इसे झेलने के लिए मजबूर हैं।