उमेश चतुर्वेदी
उत्साह और उत्सव का गहरा नाता है..दोनों के उत्स में उत्स ही है, उत्स यानी नया जन्म, शुरूआत..नवजीवन हमेशा नव ऊर्जा का वाहक होता है.. नियमित खांचे में यात्रावान जिंदगी एकरस हो जाती है..एकरसता कुछ उसी तरह होती है, जैसे रूका हुआ पानी...बहता पानी ऊर्जा ही नहीं, नवजीवन का प्रतीक भी होता है..बहता पानी निर्मला इस अवधारणा के मूल में यह नवजीवन और नव ऊर्जा ही तो है...जिंदगी को उसी अंदाज में नवसंचारी बनाने के लिए, उसमें उत्साह की अंतर्निहित ऊर्जा को भरने के लिए संस्कृतियों को वक्त के साथ उपादानों की जरूरत महसूस हुई होगी..और उसने पर्वों का विधान किया होगा..ये पर्व भी एक दिन में नहीं बने होंगे, बल्कि समय-शिला की कसौटी पर वे कसे गए...समय के साथ उनमें नए-नए मुलम्मे चढ़ते गए..वे सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज होते जाएं, इसलिए उनकी गुणवत्ता बढ़ाने लायक उपादान जुड़ते गए..और एक वक्त के बाद नए रूप में ये त्योहार हमारी जिंदगी के अभिन्न अंग बनते गए..आनंद मठ उपन्यास में बंकिम चंद्र का मशहूर गीत है, वंदे मातरम्...भारतीय संविधान ने उसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया है..आजादी प्राप्त करने और उसके पहले तक हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के मन में राष्ट्र को लेकर एक स्वप्न था..स्वप्न का वह राष्ट्र यथार्थ के राष्ट्र से कहीं ज्यादा विस्तृण, कहीं ज्यादा महान, कहीं ज्यादा गहरा था...प्लेटो साहित्य शास्त्र में एक अवधारणा देते हैं..त्रिधा अपेत की..थ्री डाइमेंशन थियरी..उसके मुताबिक हमारे स्वप्नों में जो विचार आते हैं, उन्हें ही वास्तविक जगत में हम मूर्त करने की कोशिश करते हैं.लेकिन हकीकत की भौतिक दुनिया में आते-आते और मूर्त होते-होते इन विचारों में कुछ विचलन हो जाता है..यानी स्वप्न जितना महान होता है, हमारा विचार जगत जितना बड़ा होता है, असलियत की दुनिया उतनी गंभीर और ठीक वैसी ही नहीं हो पाती..उतनी महान नहीं होती..लेकिन दोनों का अपना महत्व है. दुनिया का दैनंदिन कार्य-व्यापार हकीकत से ही चलता है..लेकिन उसे और बेहतर बनाने के विचार स्वप्नों से ही आते हैं..यही महान स्वप्न वंदेमातरम् गीत में भी है...लेकिन आजादी के सत्तर साल में यह स्वप्न विदीर्ण हुआ है..वंदेमातरम् पर भी सवाल हैं..यथार्थ का राष्ट्र, स्वप्न के राष्ट्र के मुताबिक हो..लेकिन उसकी सीमा है, वह पूर्णत: स्वप्न जैसा नहीं हो सकता..अथर्ववेद में भी राष्ट्र का यह स्वप्न अपने ढंग से आता है...माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या...बहरहाल वंदेमातरम् गीत में एक पंक्ति है..सुजलां, सुफलां, मलयज शीतलां, शस्य श्यामलां मातरम्...यह शस्य श्यामलां क्या है..शस्य यानी खेती-फसल और उससे आच्छादित हमारी महान भारत माता श्यामल यानी सांवले रंग की दिखती है..वंदेमातरम् में बंकिम उस भारत के महान स्वप्न को ही रूपायित करते हैं, जिसका आधार खेती रही है..इसीलिए भारतीय संस्कृति को शस्य संस्कृति भी कहते हैं..शस्य यानी कृषि संस्कृति पर हमारे त्योहार आधारित हैं.. यानी फसल का एक चक्र पूरा हुआ तो त्योहार..फसल तैयार है या बढ़ रही है तो उसका त्योहार... फसल की बुवाई का त्योहार...मानव मूल में शस्य केंद्रित ही है..इसलिए दुनियाभर के लोकपर्वों को देखेंगे तो उनके पीछे कहीं न कहीं खेती, स्थानीय आखेट का ही असर है..आधुनिकता की नई परिभाषा देकर परंपराओं को नकारने का दर्शन देने वाले पश्चिम में भी देखेंगे तो वहां के भी लोक त्योहार फसल आधारित ही नजर आएंगे..इस संदर्भ में वहां के आधुनिकता से लबरेज त्योहारों को इस निकष से तज ही दीजिए..हमारी दीवाली भी ऐसा ही त्योहार है...बरसात के बाद फसलें तैयार होती हैं..यही वह दिन होता है, जब धान की फसल पकती है..पके धान की झूमती सुनहली बालियों से हमारे रीति कवि भी प्रभावित हुए है..लोक की रचनाओं की नायिकाएं पके धान की लोच खाती सुनहली बालियों की तरह लय में झूमती नजर आती हैं..
हमारे त्योहार चूंकि फसली चक्र पर आधारित हैं, इसलिए उसमें उन्हीं चीजों का इस्तेमाल होता है, जो उस फसल चक्र से अन्न से हासिल होते हैं..दीपावली पर हम खील चढ़ाते हैं..धान का खील, उसी का प्रतीक है..गुड़ से बनी मिठाइयां भी एक दौर में खूब तैयार की जाती थीं..
उत्साह के उत्स से संचारित त्योहार कहीं हमारे अवचेतन में छिपी बैठी उदासी का जरिया भी बनकर आते हैं..हर त्योहार के कुछ पहले और कुछ बाद...हमारे अवचेतन से यह उदासी बाहर निकल आती है..कई बार आंसुओं के रूप में तो कई बार निराशा के रूप में.. आंसू कई बार अंतरतम के अंधकार को, विकार को बाहर निकालने का जरिया भी बनते हैं..जीवन में कई बार ऐसा हुआ है, त्योहारों पर आंसूं निकले हैं..अवचेतन में गहरे पैठी करूणा बाहर झांकने लगती है..कई बार प्यार और न्योछावर होने का भाव भी इन आंसुओं के जरिए छलक आता है..गोरखपुर में देशभक्ति के गीत सुन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आंखों का छलछलाना उसी भाव का प्रकटीकरण था..उसका नव उत्साही मीडिया ने मजाक उड़ाया..वैसे आज के दौर में मजाक और आलोचना के स्वर कुछ ज्यादा ही हो गए हैं..हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी भी ने ऐसे मौके पर आए अपने आंसुओं को कभी छुपाया नहीं..अपने मशहूर स्तंभ कागद कारे में जिक्र भी करते रहे..उसका भी मजाक उड़ाया गया..एक मशहूर कवि-पत्रकार ने उन पर आरोप ही जड़ दिया था, उसके अंदर एक बूढ़ी विधवा रहती है जो मौके-बेमौके विलाप करती रहती है...
ये आंसू वीरता के भी प्रतीक हैं..मनुष्यता की रक्षा के लिए उमड़ने वाले भावों के प्रतीक....आंसू को समझना है तो जयशंकर प्रसाद के पास जाना पड़ेगा..वे कहते हैं.. इस करुणा कलित हृदय में / अब विकल रागिनी बजती / क्यों हाहाकार स्वरों में / वेदना असीम गरजती
इसका जवाब वे आगे देते हैं..
अवकाश भला हैं किसको,/ सुनने को करुण कथाएँ /बेसुध जो अपने सुख से / जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ
बचपन की दीवाली याद आती है..दीवाली के अगले दिन मां और दादी के लिए मुंह अंधेरे ही निकल जाते..कटेली की खोज में आयुर्वेदिक दवाओं की जान कटेली..कांटों भरी कटेली जिसे हमारी भोजपुरी में रेंगनी कहते..रेंगनी की डालियां उखाड़ कर लाई जातीं..मां और दादी को सौंप दिया जाता..गोधन पूजा की तैयारियों में जुटी मां और दादी अपनी मसरूफियत में से कुछ पल निकालतीं..उस कटेली की कांटेदार एक-एक पत्ती तोड़तीं, अपने सिर के चारों तरफ घुमातीं और परिवार के एक-एक पुरूष सदस्य की मृत्यु की घोषणा करतीं, अगर वे शादी-शुदा हुए तो उनकी पत्नियों को बेवा घोषित करतीं और कटेली की पत्ती पहले से बिछे कोंहड़ा के पत्ते पर डालती जातीं..किसी साध्वी को विधवा कह कर देखिए. वह चंडी रूप धारण कर लेगी, लेकिन दीपावली की उस अगली सुबह साध्वी खुद ही खुद को बेवा घोषित करती..इस पूरी प्रक्रिया को श्रापना कहते...यह परंपरा आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड के गांवों में जारी है..फिर उन पत्तियों को बटोर कर गोधन पूजा की जगह लाया जाता..वहां बने गोबर के गोवर्धन के पास रखा जाता..गोवर्धन पूजा के बाद वहां का जल लेकर हम बच्चे घर लौटते और फिर उस श्रापने की प्रक्रिया को उल्टे क्रम में लाया जाता..मां और दादी अपने बालों से एक लट निकालतीं..उसे हाथ में लेतीं और उस पर वह लाया हुआ जल गिराया जाता...इस दौरान जितने लोगों को वह श्राप चुकी होतीं..उनके जिंदा होने की कामना की जाती औऱ फिर शुरू हो पाता था..गोवर्धन पूजा के बाद का भोज...पूरन पूरी और गुड़ की खीर का भोज
यह श्रापना और उसे जिंदा रखना क्या है..यह सृष्टि के संहार और उससे उपजी उदासी का ही प्रतीक है..और इस संहार और उदासी के बाद ही नवसृजन होता है..सृष्टि के संहार और सृजन की इस परंपरा को सहज भाव से लेने का संदेश भी है इसमें... आध्यात्मिकता की इस डोर के जरिए इसे बांधे रखा गया...लेकिन वक्त के साथ इस डोर पर विस्मृति की तहें चढ़ती गईं और हम भूल गए इन परंपराओं के संदेशों को...आधुनिक शिक्षा ने इन्हें दकियानूसी घोषित कर दिया..अंधविश्वासी भी बना दिया...इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी..बहरहाल उदासी इसलिए भी आती है कि आप नवसृजन का उमंगों से स्वागत भी कर सकें..
कभी आपने दीये को देखा है..पारंपरिक दीये को...देर रात टिमटिमाना..दीया अंधकार के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक है..वह अंधेरे की काली दुनिया को अपने प्रकाश से चुनौती देता है..दीया भले ही टिमटिमाता रहे, वह अंधेरे को चुनौती ही देता है..टिमटिमाना उदासी का प्रतीक भी है...गौर से आज की रात देखिएगा अकेले टिमटिमाते..चुपचाप बल खाते दीये को..उसकी राह में हवाओं की बाधा भी आएगी..वह बल खाएगा..उसकी लौ कंपित होगी...लेकिन वह खड़े रहने की कोशिश करेगा..हवा के थपेड़ों के सामने वह बुझ जाएगा..लेकिन अपनी आखिरी लौ तक वह प्रकाश फैलाता रहेगा...अंधेरे के खिलाफ उसका संघर्ष आखिरी दौर तक जारी रहेगा..दीप और अंधेरे की प्रकृति में बुनियादी अंतर है..अंधेरा एकात्म भाव से रोशनी को भगाता है...दीया अकेले ही रोशनी को चुनौती देगा..यह बिना सोचे कि उसकी रोशनी सिर्फ उसके लिए ही नहीं, सबके लिए होगी..
अज्ञेय कहते हैं.. यह वह विश्वास नहीं, जो अपनी लघुता में भी काँपा / वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा / कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में / यह सदा द्रवित, चिर जागरूक, अनुरक्त नेत्र / उल्लंब-बाहु, यह चिर अखंड अपनापा
हर दीपक ऐसा ही है..दीवाली पर ऐसे ही ढेरों दीपों की पंक्तियां सजती हैं..मनुष्यता की रक्षा के लिए..