शनिवार, 5 दिसंबर 2009

भदेसपन की बुद्धू बक्से में प्रभावी दस्तक


उमेश चतुर्वेदी
बुद्धू बक्से के पर्दे पर बिहार और उत्तर भारतीय हिंदी भाषियों को अब तक दरबान, चपरासी और मजाक का पात्र बनते रहे उत्तर भारतीय हिंदीभाषी अब कहानियों के केंद्र में हैं और मजे की बात ये है कि इनकी उपस्थिति अब टीआरपी की दौड़ में सफलता की गारंटी भी मानी जा रही है। अगले जनम मोंहे बिटिया ही कीजौ, सबकी जोड़ी वही बनाता-भाग्यविधाता, तेरे मेरे सपने, ना आना इस देस लाडो और बैरी पिया जैसे धारावाहिक इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि बाजार के दबाव में भी कभी हंसोड़ और मजाक के पर्याय रहे उत्तर भारतीय छोटे शहरों की पृष्ठभूमि वाली कहानियां भी अब बुद्धू बक्से के ना सिर्फ केंद्र में हैं, बल्कि विज्ञापन के बाजार को नियंत्रित करने वाली टैम जैसी खालिस अंग्रेजी दां कंपनी की रेटिंग में भी अव्वल स्थान बनाने में कामयाब रही हैं।
पढ़े-लिखे होने का दावा करने वाले दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में भले ही सत्ता विमर्श के केंद्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग आने लगे हैं, इसके बावजूद उन्हें लेकर इन महानगरों के साथ ही इनके आसपास के इलाकों के लोगों का आग्रह कम नहीं हुआ है। दिल्ली की सड़कों पर बिहारी शब्द आज भी सम्मान का पात्र नहीं है, मुंबई में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को धूल चटाने की हैसियत रखने वाला पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार का समाज उन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की नजर में भी सम्मान हासिल नहीं कर पाया है। इसके बावजूद वह मायानगरी जैसे खालिस अंग्रेजी दां हाथों से संचालित होने वाले टेलीविजन धारावाहिकों की दुनिया में इस इलाके की देसज पृष्ठभूमि वाली कहानियां और देसज पात्र प्रमुख पात्र संभ्रांत वर्ग के ड्राइंग रूम तक प्रभावी असर बना पाए हैं तो हैरतभरे सवाल उठेंगे ही।
चाहे आजादी का आंदोलन रहा हो या फिर बाद के दौर में दिल्ली की गद्दी पर कब्जे की लड़ाई, उत्तर भारत की खास भूमिका रही है। अंग्रेजों से लोहा लेने में गंगा-घाघरा की उपजाऊ मिट्टी से निकले सपूतों ने अहम भूमिका निभाई। आजादी के बाद 1991 तक दिल्ली की गद्दी पर वही काबिज होता रहा, जिसने उत्तर भारत के सबसे बड़े इलाके उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश लोगों के दिलों पर राज किया। पीबी नरसिंह राव पहले प्रधान मंत्री रहे, जिनकी पार्टी को इन दोनों राज्यों से पहले की तरह सम्मान और प्यार हासिल नहीं हो पाया। इसके बावजूद इस इलाके के लोगों को सामाजिक विमर्श में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसका वह हकदार था। लेकिन यह हालत अब बदल रही है। अंग्रेजी वर्चस्व वाली टेलीविजन की दुनिया में विमर्श और कहानी का केंद्र बन रहे इस समाज की भी स्वीकार्यता बढ़ने लगी है। यह स्वीकार्यता ही है कि चाहे अगले जनम मोहें बिटिया ही कीजौ हो या फिर सबकी जोड़ी वही बनाता-भाग्य विधाता, ठेठ उत्तर भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली कहानी और उसके देसज पात्र अब केंद्रीय भूमिका में हैं। अब उनकी कहानी भी संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों के लोगों की आंखों से भी आंसू लाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
पहले अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ने वाले इस इलाके ने विकास की दौड़ में पिछड़कर काफी कीमत चुकाई। आजादी के बाद दिल्ली की गद्दी के दावेदारों ने इस इलाके के वोटों के लिए इस इलाके के लोगों की ताबेदारी तो की, लेकिन ये भी सच है कि उन्हें विकास की जैसी चिकनी और साफ-सफ्फाक सड़क मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली। इसके लिए इलाके के राजनेता भी ज्यादा जिम्मेदार रहे। खेती के साथ प्रधानमंत्री और असरदार मंत्रियों की भरपूज उपज यहां की धरती राजनीति और समाज को देती रही, लेकिन जो हरियाली यहां के चेहरों पर आनी चाहिए थी, उससे यहां के चेहरे हमेशा महरूम रहे। संविधान के संकल्प के मुताबिक आजादी के पंद्रह साल बाद भी अंग्रेजी इस देश के राजकाज और भाग्यविधाता की भूमिका से अलग होती नजर नहीं आई तो डॉक्टर राममनोहर लोहिया की अगुआई में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में इसी इलाके ने जोरदार भूमिका निभाई। आज समाजवादी धारा की राजनीति में नीतीश कुमार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे लोग असरदार बने हुए हैं, उसके पीछे भी कहीं ना कहीं लोहिया का ये आंदोलन भी रहा है। लेकिन दुर्भाग्य ये कि इस पीढ़ी के अधिकांश नेताओं ने सत्ता की सवारी करने के बाद अपने इस आंदोलन और आंदोलन की साथी रही अपनी जनता को भी भुलाने में देर नहीं लगाई। जब कर्णधार ही अपने लोगों का सम्मान नहीं करेंगे, दुनिया क्योंकर सम्मानित करती। दूसरी बात ये हुई कि अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के बावजूद हिंदी का वर्चस्व राजकाज की दुनिया में नहीं बढ़ा तो अंग्रेजी को लेकर एक खास तरह की कट्टरता का भी विस्तार हुआ। इन कट्टरवादियों की नजर में अंग्रेजी ना जानने वाले लोग हंसोड़ और मजाक के साथ ही उपहास के ही पात्र बन गए। कहना ना होगा, फिल्मी दुनिया हो या फिर टेलीविजन का रूपहला संसार - वहां बिहार या उत्तर प्रदेश के लोग भदेस और देसज रूप में ही सामने आते रहे। बाद के दौर में भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच जब राजनीति विदूषक जैसी भूमिका में आ गई तो इस इलाके के लोग और भी ज्यादा मजाक और दया के पात्र बन गए। सही मायने में फिल्मी और टेलीविजन के पर्दे भी इसी दुनिया की ही कॉपी कर रहे थे।
यहीं पर याद आते हैं खुशवंत सिंह। भारतीय अंग्रेजी लेखन और पत्रकारिता में खुशवंत सिंह सम्मानित नाम है, लेकिन खांटी हिंदीभाषियों को उनकी कई टिप्पणियां चुभती रही हैं। हिंदी की दुनिया में भी सम्मान के साथ पढ़े जाने के बावजूद हिंदीवालों को लेकर उनके विचार आग्रही ही रहे हैं। एक बार उन्होंने हिंदी की संप्रेषणीयता पर यह कहते हुए सवाल उठाया था कि उसके पास रैट और माउस के लिए एक ही शब्द चूहा ही है। इसी तरह उनकी नजर में उत्तर भारतीयों ने चूंकि अंग्रेजी की पढ़ाई नहीं की – यही वजह है कि उन्हें ज्यादातर दरबान या चपरासी की नौकरियां ही करनी पड़ीं हैं। खुशवंत सिंह भी भारत के उसी अंग्रेजीदां तबके के ही प्रतिनिधि रहे हैं। जिनकी सोच हिंदीभाषियों और खासकर उत्तर भारतीयों को लेकर पूर्वाग्रही रही है।
हालांकि उत्तर भारत की तस्वीर का एक उजला पक्ष भी है। भदेसपन और देसज संस्कारों के साथ ही अंग्रेजी विरोध के चलते जो उत्तर भारत और बिहार कथित संभ्रांत भारतीयों के लिए आशंका की वजह रहे हैं, वहां पढ़ाई को लेकर भी खासतरह की भूख बढ़ी है। केंद्रीय सिविल सेवाओं के लिए यहां के छात्रों के उत्साह को देखिए कि ये परीक्षाएं आयोजित करने वाले संघ लोक सेवा आयोग की ही पिछले साल की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 तक देश के सभी तकरीबन छह सौ जिलों का डीएम या एसपी या फिर दोनों बिहारी ही होगा। इस बीच भदेसपन और जंगलराज का पर्याय रहे बिहार में भी बदलाव की बयार बह रही है। वहां भी सत्ता तंत्र को लेकर भरोसा बढ़ा है। हालांकि वह भरोसा भी अभी काफी नहीं है। लेकिन बदलाव की शुरूआत ने देश की सोच भी बदली है। लिहाजा अब बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श के केंद्र में हैं। उनकी चिंताओं और परेशानियों की ओर भी ध्यान जा रहा है। यही वजह है कि अब किसी चैनल का ध्यान तेरे मेरे सपने के जरिए अब खालिस उत्तर भारतीय गांवों के सपने बेचने का बहाना मिल गया है या फिर अगले जनम मोहें बिटिया ही कीजौ की लाली के बहाने बिहार की लड़कियों और जमींदारी प्रथा की कुरीतियों को बेचने का बाजार बनने लगा है।
यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को अपनी यूएसपी अपना देसज स्वरूप ही नजर आती रही है। उसी देसज से देश का संभ्रांत किस्म का इलाका परहेज करता रहा है। परहेज ही क्यों हंसी भी उड़ाता रहा है। फिल्म और टेलीविजन की दुनिया भी इसका अपवाद नहीं रही है। प्रकाश झा, शत्रुघ्न सिन्हा और आशुतोष राणा जैसे खांटी हिंदी और देसज पृष्ठभूमि वाले लोगों के फिल्मी दुनिया में आने के बावजूद भी मायानगरी के नजरिए में खास बदलाव नहीं आया। लेकिन अब इसे लेकर बदलाव नजर आ रहा है तो इसकी एक मात्र वजह सिर्फ सियासी परिवर्तन का चक्र ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हंसी का पात्र रहे इस देसज इलाके में भी बाजार ने नए तरह से पैठ बनाई है। निश्चित तौर पर इसमें सियासी बदलाव की बयार ने यहां की खुशहाली में अहम भूमिका निभाई है। इसके साथ ही पिछले दो दशक से यह इलाका जिस तरह केंद्रीय राजनीति में भूमिका नहीं निभा पा रहा था, उसमें भी बदलाव आ रहा है। अब यह इलाका एक बार फिर राजनीतिक और सामाजिक विमर्श की दुनिया में प्रभावी भूमिका निभाने की तैयारी में जुट गया है। इस इलाके के मानस में एक बदलाव ये भी आया है कि अब यह भूमिका खाली हाथ नहीं निभाई जाएगी, बल्कि इसकी कीमत भी वसूली जाएगी। जब समाज इस तरह उठ खड़ा होता है, उसे विमर्श के केंद्रों को भी उचित अहमियत देनी पड़ती है। कहना ना होगा- फिल्म और टेलीविजन की ये दुनिया भी वही कर रही है। इस समाज को सम्मानित कर रही है।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

ह्वाइट हाउस में हिंदी का जयघोष


उमेश चतु्र्वेदी
हिंदुस्तानी महानगरीय उपेक्षाबोध के बीच लगातार ताकतवर बन रही हिंदी ने ह्वाइट हाउस तक में दस्तक दे दी है। इस दस्तक का जरिया हमारे अपने राजनेता या हिंदीभाषी हस्तीन नहीं बने हैं। दुनिया के सबसे बड़े सत्ता के केंद्र ह्वाइट हाउस में हिंदी का ये जयगान दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी की जबान के जरिए हुआ है। ह्वाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री के सम्मान में दिए भोज में पहुंचे मनमोहन सिंह का ठेठ हिंदी में ही स्वागत किया। उन्होंने भले ही सिर्फ एक लाइन – आपका स्वागत है- बोलकर अमेरिकी धरती पर सिर्फ भारतीय प्रतिनिधिमंडल का दिल ही नहीं जीता है, बल्कि ये साफ संदेश दे दिया है कि हिंदी और उसे बोलने वाले करीब पचास करोड़ लोगों को लेकर उसका नजरिया कैसे बदल रहा है। अमेरिकी धरती पर हिंदुस्तानी लोगों की धमक को महसूस करने के बाद उनकी मातृभाषा को इस तरह सम्मानित करने का भले ही ये पहला मौका है, लेकिन इससे साफ है कि आने वाले दिनों में अमेरिकी राजनीति के लिए हिंदी और हिंदुस्तानी लोग कितनी अहम होने जा रही है।
बाजारवाद के बढ़ते दौर में भले ही हिंदी बाजार की एक बड़ी ताकत बन गई है। लेकिन यह भी सच है कि अब भी यह नीति नियंताओं और अभिजन समाज के नियमित विमर्श का जरिया नहीं बन पाई है। दूसरे देशों की कौन कहे, भारतीय अभिजन समाज और नीति नियंता अब तक अपनी सोच और विमर्श की भाषा के तौर पर हिंदी को सहजता से अपना नहीं पाए हैं। कहना ना होगा, उद्योग, समाज और राजनीति की दुनिया में नीतियों के प्रभावित करने वाला ये समाज ज्यादातर महानगरों में ही रहता है और उसकी दैनंदिन की भाषा वही अंग्रेजी है, जिसका अमेरिका और ब्रिटेन में सहज व्यवहार होता है। दरअसल हमारा आज जो अभिजन समाज है, उसके पैमाने अमेरिका और ब्रिटेन के सामाजिक चलन से ही प्रभावित होते हैं। यही वजह है कि रोजी और रोटी की भाषा के तौर पर हिंदी के बढ़ते कदम के बावजूद आज भी उसे लेकर महानगरों में एक उपेक्षाबोध बना हुआ है। कहना न होगा कि इस उपेक्षाबोध की शुरूआत उसी ब्रिटिश और अमेरिकी मानसिकता के ही जरिए हुई थी। ये बिडंबना ही है कि हिंदी को लेकर ये उपेक्षाबोध उसकी अपनी ही धरती पर बना हुआ है, लेकिन जहां से इस उपेक्षाबोध का बीज पनपा था, वहां की राजनीति इसे लेकर उदार होती नजर आ रही है।
ये सच है कि हिंदी को लेकर दुनिया की महाशक्ति का नजरिया बदल रहा है। इसके बावजूद उसने पिछले साल यानी 2008 में तीस सितंबर को अपनी रेडियो सेवा वॉयस ऑफ इंडिया की हिंदी सर्विस को बंद कर दिया। ये सच है कि वॉयस ऑफ अमेरिका की हिंदी सेवा भारत में बीबीसी की तरह लोकप्रिय नहीं रही है। इसके बावजूद उसे चाहने वालों की कमी नहीं रही है। यही वजह है कि तब हिंदी सर्विस की आवाज बंद होने की खबर ने हिंदी प्रेमियों के एक बड़े तबके में मायूसी भर दी थी। जॉर्ज बुश ने जाते-जाते हिंदुस्तानी लोगों को जोरदार झटका दिया था। लेकिन ओबामा का नजरिया बदला नजर आ रहा है। ऐसी खबर है कि ओबामा की सरकार एक बार फिर से हिंदी सेवा को शुरू करने जा रही है। ये सच है कि 54 साल पहले जब हिंदी सर्विस की शुरूआत हुई थी, तब शीतयुद्ध का जमाना था और इस सर्विस के जरिए अमेरिकी सरकार का उद्देश्य अपनी नीतियों को लेकर प्रोपेगंडा करना था। लेकिन 1990 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद से शीतयुद्ध का दौर खत्म होता चला गया। इसी बीच भारत और अमेरिकी संबंधों ने नया इतिहास रच दिया। बुश के ही दौर में भारत और अमेरिका के बीच एटमी समझौता हुआ। इस समझौते के साथ ही हिंदी – अमेरिकी भाई-भाई की नई इबारत लिखी गई। लेकिन इसी बुश के लिए हिंदी सर्विस बेगानी होती चली गई। लेकिन अब अमेरिका का नजारा बदल रहा है। यही वजह है कि हिंदी सर्विस की शुरूआत की खबरें और ह्वाइट हाउस में हिंदी का जयगान को घोष तकरीबन साथ-साथ सुनाई पड़ा है।
वैसे हिंदी को लेकर महाशक्ति का नजारा यूं ही नहीं बदला है। साठ करोड़ के विशाल मध्य वर्ग के सहारे भारत दुनिया के लिए बड़ा बाजार बनता नजर आ रहा है। वैश्विक आर्थिक मंदी के इस दौर में भी टिके रहकर भारतीय अर्थव्यवस्था ने साबित कर दिया है कि अमेरिकी बाजारवाद के दौर में भी उसमें काफी दमखम है। यही वजह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर सत्ता केंद्र की नजर में ना सिर्फ हिंदुस्तानी लोग, बल्कि उसकी भाषा सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत जानती है कि भारतीय भूमि पर अंग्रेजी भले ही विमर्श की आज भी मजबूत भाषा बनी हुई है। लेकिन ये सच है कि आम लोगों से सहज संवाद और उन तक अपनी बात पहुंचाने का जरिया हिंदी ही बन सकती है। करीब पचास करोड़ लोगों का दिल अंग्रेजी की बजाय हिंदी के जरिए ही जीता जा सकता है। उसे ये भी पता है कि बाजार आज हिंदी की इस ताकत को पहचान गया है और उसका मौका-बेमौका इस्तेमाल भी कर रहा है। इसी हफ्ते आई एक खबर ने विकसित सरजमीं पर हिंदी की बढ़ती पहुंच और पकड़ को ही जाहिर किया है। ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर (जीएलएम) के मुताबिक ऑस्कर विजेता फिल्म 'स्लमडॉग मिलिनेयर' के एक गीत के बोल में शामिल जुमला 'जय हो' दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय शब्दों की लिस्ट में 16वें नंबर पर आ गया है। जबकि हिंदी फिल्मों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द 'बॉलिवुड' 17वें पायदान पर है। साफ है कि हिंदी को लेकर विकसित दुनिया के आम मानस का भी नजारा बदल रहा है। ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा सत्ता केंद्र मनमोहन सिंह का हिंदी में स्वागत करके दरअसल विकसित दुनिया में हिंदी को लेकर आए बदलाव को ही रेखांकित कर रहा है।
ह्वाइट हाउस तक हिंदी ने दस्तक दे दी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या विकास और ताकत के साथ ही सभ्यता और सलीके के लिए अमेरिका को अपना पैमाना बना चुके भारतीय महानगरीय मानस को हिंदी का ये जयघोष झकझोर पाएगा ।