बिहार के एक ठेठ गांव से उठकर हिंदी साहित्य की आलोचना के क्षितिज पर अहम मुकाम बना रहे ज्योतिष जोशी को साल 2007 के प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान के लिए चुना गया है। डॉक्टर नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, विजयमोहन सिंह और उदय प्रकाश की निर्णायक समिति ने ज्योतिष की आलोचना पुस्तक - उपन्यास की समकालीनता- को पिछले तीन साल की आलोचना पुस्तकों में श्रेष्ठ पाया है। ललित कला अकादमी की पत्रिका – समकालीन कला- के संपादक ज्योतिष जोशी ने आलोचना के स्तर पर कभी श्रेष्ठता से समझौता नहीं किया। उनकी आलोचना दृष्टि में समकालीनता के साथ ही लोक संस्कृति के मूल्य पर पूरी शिद्दत से दिखते हैं। अपनी सहजता से किसी को प्रभावित कर सकने वाले ज्योतिष जोशी का लेखन भी सहज है। इसे उनके संपादन वाली पत्रिका – समकालीन कला- में भी देखा-परखा जा सकता है।
मीडिया मीमांसा की ओर से इस मौके पर ज्योतिष जोशी को बधाई !
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
शनिवार, 23 फ़रवरी 2008
यशवंत व्यास को बिहारी सम्मान
धारदार और किस्सागोई शैली में व्यंग्य के चलते हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बना चुके यशवंत व्यास को बिहारी सम्मान के लिए चुना जाना बेहद सटीक फैसला है। के के बिड़ला फाउंडेशन ने उनके उपन्यास कामरेड गोडसे को इस सम्मान से सम्मानित करने का ऐलान किया है। इस उपन्यास में एक ओर जहां आज के दौर में सांप्रदायिकता के खतरे का चित्रांकन करता है, वहीं अपनी अद्वितीय और ताजगी भरी भाषा और शैली के लिए जाना जाता है। शायद यही वजह है कि मशहूर कथाकार कमलेश्वर को इसका बारहवां अध्याय पसंद आया तो पत्रकार अरविंद मोहन को बेहद पठनीय उपन्यास लगा।
पिछले साल प्रकाशित होते ही इस उपन्यास ने हिंदी साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। लिहाजा इसकी चर्चा भी खूब हुई और पाठकों की सराहना भी। यशवंत लेखन और पत्रकारिता में शैलीगत नए और सफल प्रयोगों के लिए भी जाने जाते हैं। अमिताभ बच्चन पर लिखी किताब अमिताभ का अ से लेकर बिड़ला फाउंडेशन की फेलोशिप पर तैयार शोध पुस्तक अपनी गिरेबान में उनकी ये शैलीगत भंगिमा भी खासतौर पर उभर कर सामने आई। उनके संपादन में निकल रही पत्रिका अहाजिंदगी में भी इस नएपन का बार-बार अहसास होता है।
यशवंत व्यास को ये सम्मान पाने पर मीडिया मीमांसा की ओर से बधाई।
पिछले साल प्रकाशित होते ही इस उपन्यास ने हिंदी साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। लिहाजा इसकी चर्चा भी खूब हुई और पाठकों की सराहना भी। यशवंत लेखन और पत्रकारिता में शैलीगत नए और सफल प्रयोगों के लिए भी जाने जाते हैं। अमिताभ बच्चन पर लिखी किताब अमिताभ का अ से लेकर बिड़ला फाउंडेशन की फेलोशिप पर तैयार शोध पुस्तक अपनी गिरेबान में उनकी ये शैलीगत भंगिमा भी खासतौर पर उभर कर सामने आई। उनके संपादन में निकल रही पत्रिका अहाजिंदगी में भी इस नएपन का बार-बार अहसास होता है।
यशवंत व्यास को ये सम्मान पाने पर मीडिया मीमांसा की ओर से बधाई।
शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008
जरूरत नए मीडिया की ..
उमेश चतुर्वेदी
भारतीय परंपरा में भावी वक्त और परिदृश्य के लिए हमेशा अच्छे की ही आशा प्रकट की जाती है। पत्रकारिता इससे आगे आगत की चिंताओं से आगाह कराने का दायित्व निभाती है। लेकिन मौजूदा परिदृश्य के आधार पर पत्रकारिता के भावी स्वरूप और जन सरोकारों की बात की जाती है तो कम से कम निकट भविष्य में मुझे आश्वस्तकारी नजारा नहीं दिखता।
ये सच है कि हमारी पीढ़ी तक के पत्रकार अखबारनवीसी की दुनिया में महज कैरियर बनाने की चाहत लेकर नहीं आए थे। पत्रकारिता के जरिए सिर्फ जीविका कमाना उनका मकसद नहीं था। उनमें से ज्यादातर की अपेक्षा जिंदगी में व्याप्त असमानताओं को दूर करने, वंचितों की आवाज उठाने और शोषण के समाजशास्त्र का भी विरोध करने की रही। लेकिन मीडिया की दुनिया में उन्होंने जो देखा, वह उनकी सपनीली राहों कहीं अलग था। तब पत्रकारों को लगता था कि समाचार पत्र लोकतंत्र के वाहक ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सच्चे प्रतिदर्श भी हैं। लेकिन पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य में - जब मौजूदा आर्थिक उदारवाद शैशवावस्था को पार कर रहा था – तब इन पत्रकारों के सपने एक-एक कर चकनाचूर होते नजर आए। पत्रकारिता की दहलीज पर दो-चार कदम बढ़ा चुके पत्रकारों को पत्रकारिता- खासकर हिंदी- की दुनिया में जब पता चला कि नौकरी पाने के मापदंड महज योग्यता नहीं हैं – बल्कि संपादक की चापलूसी, उसके घर की साग-भाजी ढोना मात्र है तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। आज भी कई पत्रकार ऊंची कुर्सियों पर विराजमान हैं – जिनके लिए दूसरे पत्रकारों का छवि भंजन पत्रकारीय सरोकारों से कहीं ज्यादा जरूरी और अच्छा कर्म लगता है। मजे की बात ये है कि पत्रकारिता के मंचों और सार्वजनिक स्थलों से उन्हें पत्रकारिता में नैतिकता की चिंताएं औरों की बनिस्बत कुछ ज्यादा ही सताती हैं। हमारे साथ वाली पीढ़ी का सामना ऐसे संपादकों से भी पड़ा है – जिन्हें अपने विरोधी संपादकों को रिश्वतखोर और रंगीन मिजाज बताना बेहद प्रिय कर्म रहा है। लेकिन असलियत में उनकी खुद की दुनिया पत्रकारिता के नाम पर दलाली कर रहे लोगों- रंगीन मिजाज महिला और पुरूष पत्रकारों से भरपूर रही है। कुछ एक वरिष्ठ पत्रकार ऐसे भी हैं – जिन्हें नए पत्रकारों को ये प्रस्ताव देने में हिचक नहीं होती की फलां नामी-गिरामी आदमी का इंटरव्यू तुम करो, तुम्हें पैसा मिल जाएगा- लेकिन इंटरव्यू के साथ मेरा नाम छपेगा। कई पत्रकारनुमा राजनेता और राजनेतानुमा पत्रकार ऐसे भी हैं – जिनके नाम से प्रकाशित होने वाले लेख-स्तंभ कोई गुमनाम पत्रकार लिखता है। जिसके एवज में उसे महज चंद रूपए मिल जाते हैं। आज की हिंदी पत्रकारिता पर ऐसी नैतिकता वाले लोगों का बोलबाला है। उन्हीं के हाथ में हिंदी की पत्रकारीय दुनिया की निर्णयात्मक शक्तियां निहित हैं और अगले कुछ वर्षों में यह परिदृश्य बदलता हुआ नजर नहीं आ रहा है।
हिंदी की दुनिया में रविवार और बालमेला जैसी पत्रिकाओं के जरिए कोलकाता के आनंदबाजार समूह ने पिछली सदी के आठवें दशक में सार्थक हस्तक्षेप किया था। रविवार और बालमेला इसलिए बंद नहीं हुए कि उनके पाठक नहीं थे, बल्कि हिंदी पत्रकारिता के पुरोधाओं ने जो आपसी राजनीति की नीचता की हद तक एक-दूसरे के कपड़े फाड़े और नकाब उतारे- उससे क्षुब्ध होकर समूह ने न सिर्फ दोनों पत्रिकाओं को बंद कर दिया , बल्कि भविष्य में दोबारा हिंदी में हाथ न डालने का कठोर फैसला भी ले लिया।
नवभारत टाइम्स के पटना,जयपुर और लखनऊ संस्करणों की बंदी के टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के प्रबंधन की बदलती प्राथमिकताओं को ज्यादा जिम्मेदार बताया गया। लेकिन यह सिर्फ तस्वीर का एक पहलू है। दूसरी बात ये है कि यहां कार्यरत कुछ वरिष्ठ पत्रकार एक –दूसरे को नीचा दिखाने के लिए चारित्रिक लांछन लगाने से नहीं हिचकते थे। ऐसी परिस्थितियों में भला प्रबंधन क्यों किसी की परवाह करता। अगर प्रबंधन ने हिंदी पत्रकारों के बारे में गलत धारणा बनाई तो इसके लिए एक हद तक जिम्मेदार स्वयं पत्रकार भी रहे। पत्रकारीय फूट और खींचतान के चलते प्रबंधन को अपने संस्करणों को देर की बजाय जल्द ही बंद करने की सहूलियत मिल गई। .....क्रमश:….
भारतीय परंपरा में भावी वक्त और परिदृश्य के लिए हमेशा अच्छे की ही आशा प्रकट की जाती है। पत्रकारिता इससे आगे आगत की चिंताओं से आगाह कराने का दायित्व निभाती है। लेकिन मौजूदा परिदृश्य के आधार पर पत्रकारिता के भावी स्वरूप और जन सरोकारों की बात की जाती है तो कम से कम निकट भविष्य में मुझे आश्वस्तकारी नजारा नहीं दिखता।
ये सच है कि हमारी पीढ़ी तक के पत्रकार अखबारनवीसी की दुनिया में महज कैरियर बनाने की चाहत लेकर नहीं आए थे। पत्रकारिता के जरिए सिर्फ जीविका कमाना उनका मकसद नहीं था। उनमें से ज्यादातर की अपेक्षा जिंदगी में व्याप्त असमानताओं को दूर करने, वंचितों की आवाज उठाने और शोषण के समाजशास्त्र का भी विरोध करने की रही। लेकिन मीडिया की दुनिया में उन्होंने जो देखा, वह उनकी सपनीली राहों कहीं अलग था। तब पत्रकारों को लगता था कि समाचार पत्र लोकतंत्र के वाहक ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सच्चे प्रतिदर्श भी हैं। लेकिन पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य में - जब मौजूदा आर्थिक उदारवाद शैशवावस्था को पार कर रहा था – तब इन पत्रकारों के सपने एक-एक कर चकनाचूर होते नजर आए। पत्रकारिता की दहलीज पर दो-चार कदम बढ़ा चुके पत्रकारों को पत्रकारिता- खासकर हिंदी- की दुनिया में जब पता चला कि नौकरी पाने के मापदंड महज योग्यता नहीं हैं – बल्कि संपादक की चापलूसी, उसके घर की साग-भाजी ढोना मात्र है तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। आज भी कई पत्रकार ऊंची कुर्सियों पर विराजमान हैं – जिनके लिए दूसरे पत्रकारों का छवि भंजन पत्रकारीय सरोकारों से कहीं ज्यादा जरूरी और अच्छा कर्म लगता है। मजे की बात ये है कि पत्रकारिता के मंचों और सार्वजनिक स्थलों से उन्हें पत्रकारिता में नैतिकता की चिंताएं औरों की बनिस्बत कुछ ज्यादा ही सताती हैं। हमारे साथ वाली पीढ़ी का सामना ऐसे संपादकों से भी पड़ा है – जिन्हें अपने विरोधी संपादकों को रिश्वतखोर और रंगीन मिजाज बताना बेहद प्रिय कर्म रहा है। लेकिन असलियत में उनकी खुद की दुनिया पत्रकारिता के नाम पर दलाली कर रहे लोगों- रंगीन मिजाज महिला और पुरूष पत्रकारों से भरपूर रही है। कुछ एक वरिष्ठ पत्रकार ऐसे भी हैं – जिन्हें नए पत्रकारों को ये प्रस्ताव देने में हिचक नहीं होती की फलां नामी-गिरामी आदमी का इंटरव्यू तुम करो, तुम्हें पैसा मिल जाएगा- लेकिन इंटरव्यू के साथ मेरा नाम छपेगा। कई पत्रकारनुमा राजनेता और राजनेतानुमा पत्रकार ऐसे भी हैं – जिनके नाम से प्रकाशित होने वाले लेख-स्तंभ कोई गुमनाम पत्रकार लिखता है। जिसके एवज में उसे महज चंद रूपए मिल जाते हैं। आज की हिंदी पत्रकारिता पर ऐसी नैतिकता वाले लोगों का बोलबाला है। उन्हीं के हाथ में हिंदी की पत्रकारीय दुनिया की निर्णयात्मक शक्तियां निहित हैं और अगले कुछ वर्षों में यह परिदृश्य बदलता हुआ नजर नहीं आ रहा है।
हिंदी की दुनिया में रविवार और बालमेला जैसी पत्रिकाओं के जरिए कोलकाता के आनंदबाजार समूह ने पिछली सदी के आठवें दशक में सार्थक हस्तक्षेप किया था। रविवार और बालमेला इसलिए बंद नहीं हुए कि उनके पाठक नहीं थे, बल्कि हिंदी पत्रकारिता के पुरोधाओं ने जो आपसी राजनीति की नीचता की हद तक एक-दूसरे के कपड़े फाड़े और नकाब उतारे- उससे क्षुब्ध होकर समूह ने न सिर्फ दोनों पत्रिकाओं को बंद कर दिया , बल्कि भविष्य में दोबारा हिंदी में हाथ न डालने का कठोर फैसला भी ले लिया।
नवभारत टाइम्स के पटना,जयपुर और लखनऊ संस्करणों की बंदी के टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के प्रबंधन की बदलती प्राथमिकताओं को ज्यादा जिम्मेदार बताया गया। लेकिन यह सिर्फ तस्वीर का एक पहलू है। दूसरी बात ये है कि यहां कार्यरत कुछ वरिष्ठ पत्रकार एक –दूसरे को नीचा दिखाने के लिए चारित्रिक लांछन लगाने से नहीं हिचकते थे। ऐसी परिस्थितियों में भला प्रबंधन क्यों किसी की परवाह करता। अगर प्रबंधन ने हिंदी पत्रकारों के बारे में गलत धारणा बनाई तो इसके लिए एक हद तक जिम्मेदार स्वयं पत्रकार भी रहे। पत्रकारीय फूट और खींचतान के चलते प्रबंधन को अपने संस्करणों को देर की बजाय जल्द ही बंद करने की सहूलियत मिल गई। .....क्रमश:….
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