अब तक ये ही माना जाता था कि अखबार और पत्रिकाएं ही गिफ्ट दे-देकर अपना सर्कुलेशन बढ़ाते हैं। इसके लिए उनकी आलोचना भी होती रही है। लेकिन अब खुलासा हो गया है कि टीआरपी की माया के पीछे भी गिफ्ट महाराज का हाथ है। ट्राई की ओर से टीआरपी की वैकल्पिक रणनीति तैयार करने के लिए ट्राई ने 15 मई को एक बैठक बुलाई थी। इसी बैठक में खुद
टेलीविजन ऑडिएंस मीजरमेंट यानी टैम के सीईओ एल वी कृष्णन इजहार किया कि जिन घरों में टीआरपी के मीटर लगे हुए हैं-उनके सदस्यों को गिफ्ट दिया जाता है। सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा करने में उसे कोई बुराई भी नजर नहीं आती। ऐसे में क्या गारंटी है कि टेलीविजन चैनलों के कर्ता-धर्ता गिफ्ट देकर या टैम अधिकारियों के जरिए टीआरपी मीटर वाले घरों के सदस्यों तक गिफ्ट पहुंचा कर अपनी रेटिंग में कमीबेशी नहीं कराते होंगे।
जब इंडियन रीडरशिप सर्वे में ये सब संभव है तो टीआरपी में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ..पिछले साल राजस्थान के दो प्रमुख हिंदी अखबारों का विवाद सामने आया था। एक का आरोप था कि दूसरे ने आईआरएस के सर्वेक्षकों को पटाकर - घूस देकर अपनी पाठक संख्या ज्यादा दिखाई है। अब हमें तैयार रहना होगा कि प्रतिद्वंदी चैनलों के बीच भी ऐसे आरोप-प्रत्यारोप के दौर शुरू हो सकते हैं।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
गुरुवार, 15 मई 2008
मंगलवार, 13 मई 2008
पार्टनर आपकी बीट क्या है ....
उमेश चतुर्वेदी
जानकार कहते हैं कि अगर पुलिस कांस्टेबल की कमाऊ बीट बदल दी जाय तो उसके दिल पर सांप लोटने लगता है। कुछ ऐसा ही हाल दिल्ली में राजनीतिक दलों को कवर कर रहे कुछ पत्रकारों का भी है। खासतौर पर जो लोग कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कवर करते हैं, उनमें से कुछ लोगों की हालत ये है कि अगर उनकी ये बीट ब्यूरो चीफ या राजनीतिक संपादक बदल दे तो उनका दिल का चैन और रात की नींद खो जाती है।
कांग्रेस बीट कवर करने वाले प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है- जो हर नए आने वाले पत्रकार और अपने ग्रुप से बाहर के पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने देना चाहता। गलती से उसने अपने अखबार और इलाके की जरूरत के मुताबिक कोई सवाल पूछ लिए तो समझो- उसकी शामत आ गई। इनमें वरिष्ठ भी हैं और गरिष्ठ पत्रकार भी हैं। पूरे ग्रुप में से कोई हो सकता है , उस सवाल पर मुंह ही बिचका ले। कोई वरिष्ठ या गरिष्ठ ये भी कह सकता है - ह्वाट ए हेल क्वेश्चन यार ...हो सकता है इस ग्रुप का कोई पत्रकार सवाल पूछने वाले पत्रकार से मुखातिब ये भी बोलता पाया जाए- अरे चुप भी रहोगे।
1999 के चुनाव में कई बार दैनिक भास्कर की ओर से मुझे भी कांग्रेस की ब्रीफिंग कवर करने जाना पड़ता था। विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल तब प्रवक्ता का जोरदार तरीके से मोर्चा संभाले हुए थे। उनकी ब्रीफिंग के बाद उस ग्रुप के पत्रकार उनकी डीप ब्रीफिंग में पहुंच जाते थे और लगे हाथों उंगलियों से गिनकर बताने लगते थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। कई तो उसे दो सौ का आंकड़ा पार करा देते तो कई सवा दो सौ। इस जमात के लोग आज भी कांग्रेस कवर कर रहे हैं। मैं उन्हीं दिनों से कपिल सिब्बल का कायल हूं। अपने ईमानदार आकलन से वे पूछने लगते कि ये आंकड़ा कहां से आएगा तो उस जमात के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगतीं। 1999 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कपिल सिब्बल सही थे और कोटरी में शामिल गिरोहबाजों का आकलन कितना हवाई था। यहां ये बता देना जरूरी है कि डीप ब्रीफिंग में पार्टियों के प्रवक्ता ऑफ द बीट जानकारियां देते हैं। उन्हें आप रिकॉर्ड पर उनके हवाले से नहीं पेश कर सकते।
जब भी हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की चर्चा होती है - अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा प्रोफेशनल बताया जाता है। लेकिन इस गिरोहबाजी में अंग्रेजी के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। मेरी तो संसद के कमरा नंबर 53 की एक ब्रीफिंग में इस गिरोह से भिड़ंत भी हो चुकी है। उस वक्त राबड़ी देवी की बिहार में सरकार थी। वहां कहीं जनसंहार हुआ था। संयोग से उसके पहले के जनसंहार के दौरान कांग्रेस ने बयान दिया था कि अगर बिहार में जनसंहार रोकने में राबड़ी सरकार बिफल हुई तो कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी। उस वक्त बिहार में राबड़ी सरकार का कांग्रेस समर्थन कर रही थी। संयोग से उसी दिन जयराम रमेश ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की आलोचना की थी। बहरहाल उस दिन की ब्रीफिंग में कांग्रेस के पुराने बीटधारी पत्रकारों ने इसी पर बहस-मुबाहिसा तब की कांग्रेस प्रवक्ता मार्गरेट अल्वा से शुरू कर दिया था। इसी बीच हमारे मित्र जितेंद्र कुमार ने मार्गरेट अल्वा से सवाल पूछा कि क्या कांग्रेस अब राबड़ी सरकार से समर्थन वापस लेगी। जितेंद्र तब प्रभात खबर के दिल्ली ब्यूरो में काम करते थे। अब दैनिक हिंदुस्तान के रांची में वरिष्ठ संवाददाता हैं। जितेंद्र का सवाल आया नहीं कि कांग्रेस बीटधारियों ने उन्हें हूट करना शूरू किया। इसके बाद मुझसे रहा नहीं गया और झड़प हो गयी।
कई बार असहज सवालों से ऐसे ग्रुप के पत्रकार प्रवक्ताओं और नेताओं को उबारने के लिए सवाल को ही घुमा देते हैं या बीच में ही टपककर दो कोनों से ऐसा सवाल पूछेंगे कि बहस की धारा ही बदल जाएगी। मजे की बात ये है कि अब टीवी के भी कई पत्रकार ऐसे ग्रुपों में शामिल हो गए हैं।
सवाल ये है कि क्या पत्रकारिता के मानदंडों के लिए ये प्रवृत्ति अच्छी है..क्या इससे पत्रकारिता की पहली शर्त वस्तुनिष्ठता बनी रह सकती है। जवाब निश्चित रूप से ना में है। ऐसे में जरूरत है कि इस कोटरी पत्रकारिता की अनदेखी की जाय और ये काम नए पत्रकार ही कर सकते हैं।
जानकार कहते हैं कि अगर पुलिस कांस्टेबल की कमाऊ बीट बदल दी जाय तो उसके दिल पर सांप लोटने लगता है। कुछ ऐसा ही हाल दिल्ली में राजनीतिक दलों को कवर कर रहे कुछ पत्रकारों का भी है। खासतौर पर जो लोग कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कवर करते हैं, उनमें से कुछ लोगों की हालत ये है कि अगर उनकी ये बीट ब्यूरो चीफ या राजनीतिक संपादक बदल दे तो उनका दिल का चैन और रात की नींद खो जाती है।
कांग्रेस बीट कवर करने वाले प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है- जो हर नए आने वाले पत्रकार और अपने ग्रुप से बाहर के पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने देना चाहता। गलती से उसने अपने अखबार और इलाके की जरूरत के मुताबिक कोई सवाल पूछ लिए तो समझो- उसकी शामत आ गई। इनमें वरिष्ठ भी हैं और गरिष्ठ पत्रकार भी हैं। पूरे ग्रुप में से कोई हो सकता है , उस सवाल पर मुंह ही बिचका ले। कोई वरिष्ठ या गरिष्ठ ये भी कह सकता है - ह्वाट ए हेल क्वेश्चन यार ...हो सकता है इस ग्रुप का कोई पत्रकार सवाल पूछने वाले पत्रकार से मुखातिब ये भी बोलता पाया जाए- अरे चुप भी रहोगे।
1999 के चुनाव में कई बार दैनिक भास्कर की ओर से मुझे भी कांग्रेस की ब्रीफिंग कवर करने जाना पड़ता था। विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल तब प्रवक्ता का जोरदार तरीके से मोर्चा संभाले हुए थे। उनकी ब्रीफिंग के बाद उस ग्रुप के पत्रकार उनकी डीप ब्रीफिंग में पहुंच जाते थे और लगे हाथों उंगलियों से गिनकर बताने लगते थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। कई तो उसे दो सौ का आंकड़ा पार करा देते तो कई सवा दो सौ। इस जमात के लोग आज भी कांग्रेस कवर कर रहे हैं। मैं उन्हीं दिनों से कपिल सिब्बल का कायल हूं। अपने ईमानदार आकलन से वे पूछने लगते कि ये आंकड़ा कहां से आएगा तो उस जमात के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगतीं। 1999 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कपिल सिब्बल सही थे और कोटरी में शामिल गिरोहबाजों का आकलन कितना हवाई था। यहां ये बता देना जरूरी है कि डीप ब्रीफिंग में पार्टियों के प्रवक्ता ऑफ द बीट जानकारियां देते हैं। उन्हें आप रिकॉर्ड पर उनके हवाले से नहीं पेश कर सकते।
जब भी हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की चर्चा होती है - अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा प्रोफेशनल बताया जाता है। लेकिन इस गिरोहबाजी में अंग्रेजी के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। मेरी तो संसद के कमरा नंबर 53 की एक ब्रीफिंग में इस गिरोह से भिड़ंत भी हो चुकी है। उस वक्त राबड़ी देवी की बिहार में सरकार थी। वहां कहीं जनसंहार हुआ था। संयोग से उसके पहले के जनसंहार के दौरान कांग्रेस ने बयान दिया था कि अगर बिहार में जनसंहार रोकने में राबड़ी सरकार बिफल हुई तो कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी। उस वक्त बिहार में राबड़ी सरकार का कांग्रेस समर्थन कर रही थी। संयोग से उसी दिन जयराम रमेश ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की आलोचना की थी। बहरहाल उस दिन की ब्रीफिंग में कांग्रेस के पुराने बीटधारी पत्रकारों ने इसी पर बहस-मुबाहिसा तब की कांग्रेस प्रवक्ता मार्गरेट अल्वा से शुरू कर दिया था। इसी बीच हमारे मित्र जितेंद्र कुमार ने मार्गरेट अल्वा से सवाल पूछा कि क्या कांग्रेस अब राबड़ी सरकार से समर्थन वापस लेगी। जितेंद्र तब प्रभात खबर के दिल्ली ब्यूरो में काम करते थे। अब दैनिक हिंदुस्तान के रांची में वरिष्ठ संवाददाता हैं। जितेंद्र का सवाल आया नहीं कि कांग्रेस बीटधारियों ने उन्हें हूट करना शूरू किया। इसके बाद मुझसे रहा नहीं गया और झड़प हो गयी।
कई बार असहज सवालों से ऐसे ग्रुप के पत्रकार प्रवक्ताओं और नेताओं को उबारने के लिए सवाल को ही घुमा देते हैं या बीच में ही टपककर दो कोनों से ऐसा सवाल पूछेंगे कि बहस की धारा ही बदल जाएगी। मजे की बात ये है कि अब टीवी के भी कई पत्रकार ऐसे ग्रुपों में शामिल हो गए हैं।
सवाल ये है कि क्या पत्रकारिता के मानदंडों के लिए ये प्रवृत्ति अच्छी है..क्या इससे पत्रकारिता की पहली शर्त वस्तुनिष्ठता बनी रह सकती है। जवाब निश्चित रूप से ना में है। ऐसे में जरूरत है कि इस कोटरी पत्रकारिता की अनदेखी की जाय और ये काम नए पत्रकार ही कर सकते हैं।
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