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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
कहां है लोक......
उमेश चतुर्वेदी
लोक के बिना जिंदगी के रसधार की कल्पना नहीं की जा सकती। रोजाना की जिंदगी की टीस और उससे उपजी पीड़ा को स्वर देने का काम लोक की अपनी भाषा और उसका अपना साहित्य ही दे सकता है। लोक के दर्द की टीस को लोकसाहित्य इतनी खूबसूरती से अभिव्यक्ति देता है कि सुनने या पढ़ने वाले के लिए वह दर्द अपना सा हो जाता है।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि दर्दभरी यह लोकअभिव्यक्ति ही थी कि हिंदी में लोकसाहित्य के विधिवत अध्ययन की नींव पड़ी। हिंदी के प्रसिद्ध कवि पंडित रामनरेश त्रिपाठी एक बार कवि सम्मेलन में जाने के सिलसिले में अपने जिले जौनपुर के तिवारीपुर रेलवे स्टेशन पर रेल के इंतजार में बैठे थे। इसी दौरान एक परिवार अपने परदेसी सदस्य को छोड़ने स्टेशन आया। पिछड़े वर्ग के इस परिवार में महिलाएं भी थीं। कलकत्ता जाने वाली रात की रेल छुक-छुक करती आई और उस परदेसी को ट्रेन में बैठाकर वह परिवार लौट गया। लौटते-लौटते वह परिवार त्रिपाठी जी को एक टीस दे गया। लोक में रची वह लाइनें थीं – रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी.....पइसवा बैरी भइले ना...यानी रेल दुश्मन नहीं है, जहाज भी दुश्मन नहीं....दुश्मन तो वह खोटा पैसा है, जिसके लिए अपनों को छोड़ परदेसी होना पड़ता है।
दर्द की इस अभिव्यक्ति ने ही त्रिपाठी जी को हिंदी में लोकसाहित्य के विधिवत अध्ययन की नींव डालने की प्रेरणा दी। जिसे वासुदेश शरण अग्रवाल, कृष्णदेव उपाध्याय, हंसकुमार तिवारी आदि ने आगे बढ़ाया। लेकिन दुख की बात है कि अब यह अध्ययन सिर्फ किताबी रटंत की तरह कुछ विश्वविद्यालयों के हिंदी के पाठ्यक्रम में सिमट कर रह गया है। वहां भी नए काम या तो हो नहीं रहे हैं या फिर इक्का-दुक्का छिटफुट ही हो रहे हैं। लोक से लगातार गायब होते लोकसाहित्य और उससे आम जन की बढ़ती दूरी को लेकर पहले चिंताएं भी जताई जाती रही हैं। लेकिन अब ये चिंताएं भी विद्वत्त जनों को परेशान नहीं कर रहीं हैं और जब विद्वत्तजन परेशान नहीं हैं तो लोक को क्यों चिंता होने लगी। उसे उदारीकरण ने मनोरंजन के ढेरों सरंजाम मुहैया करा दिए हैं। घर में टेलीविजन है, मोबाइल फोन में एफएम है...वीसीडी और डीवीडी प्लेयर भी हैं तो फिर किसे और क्यों चिंता होने लगी लोक के टीस की...
लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि लोक से उसकी अपनी पारंपरिक और देसज अभिव्यक्ति खत्म हो गई है। बाजार ने लोक को भले ही उसके अपने माध्यमों से दूर कर दिया है, लेकिन वह बदले हुए रूप में जरूर सामने आ रहा है। इसे उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों और बिहार में होली और शादी-विवाह के दिनों में जाकर देखना और सुनना बेहतर होगा। सहज और दैनंदिन जीवन के दर्द लोक के स्वरों से गायब हैं। अगर कुछ बाकी बचा दिखता है तो वह है लोक का तर्ज..बाकी लय और धुन में परोसी जाती हैं फूहड़ भाषा ...इसे गालियां भी कह सकते हैं, जिन्हें सभ्यताशील कान शायद ही सुन सकें।
लोक बाजार में राजस्थानी गीत नीबूड़ा-नीबूड़ा के तौर पर फिल्मी दुनिया में भी दिख-सुन जाता है। तब लोक के मिठास भरे सुर हमें अच्छे लगने लगते हैं....लोक साहित्य की एक पहचान रही है उसका लोगों के होठों पर चढ़ जाना। इस चढ़ने के पीछे पहले कहीं कोई बाजार नहीं होता था। लेकिन अब बाजार इसकी बड़ी वजह होता है। इस बाजार का माध्यम बनती है - हम दिल दे चुके सनम जैसी फिल्म। 2009 में आई फिल्म दिल्ली-6 का गीत – ससुराल गेंदा फूल- भी छत्तीसगढ़ी लोकगीत से प्रभावित था। वह आज भी लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है तो इसकी एक बड़ी वजह है कि उसके जरिए लोक की देसज और सहज अभिव्यक्ति जिंदा है।
यानी आज अगर लोक की अभिव्यक्ति कहीं जिंदा है तो इसकी बड़ी वजह बाजार की जरूरत है। बाजार चाहता कि कोई खास लोक की अभिव्यक्ति जिंदा रहे तो उसे वह जिंदा करता है..इसके लिए वह पैसा बहाता है, क्योंकि पैसा कमाना उसका मकसद होता है। लेकिन जहां वह नहीं चाहता कि लोकअभिव्यक्ति बचे, उसे बचाने की ताकीद भी नहीं करता। क्योंकि उसे वहां पैसा नजर नहीं आता। निश्चित तौर पर लोक की सहज – दर्दीली अभिव्यक्ति का नुकसान हो रहा है। लेकिन उम्मीद की किरण उस बाजार में ही है। जो पैसे के लिए ही सही, इसे कभी-कभी जिंदा रखने की कोशिश करता है या करता है। इस उम्मीद को बढ़ाना आज की जरूरत है। तभी हम अपने पुरखों की थाती से आने वाली पीढ़ियों को परिचित कराते रहने की परंपरा को आगे बढ़ा सकेंगे।
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