शनिवार, 30 जुलाई 2011

पच्चीस साल का हंस

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में जब सांस्कृतिक पत्रिकाओं की मौत हो रही थी, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं के दिन लदने लगे थे, हिंदीभाषी इलाके की बौद्धिक और राजनीतिक धड़कन रह चुकी पत्रिका दिनमान के दम भी उखड़ने लगे थे, उन्हीं दिनों हंस को पुनर्जीवित करने का माद्दा दिखाना ही अपने आप में बड़ी बात थी। लेकिन कथा सम्राट प्रेमचंद का यह बिरवा भले ही पचास के दशक में सूख गया था, उसे फिर से अपनी उम्मीदों के जरिए खाद-पानी देकर ना सिर्फ जिंदा करना, बल्कि उसमें कोंपले निकालना राजेंद्र यादव के जीवट की ही बात थी। 1986 में पुनर्जीवित हुआ हंस अब पच्चीस साल का हो गया है और हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक धड़कनों के प्रतीक के तौर पर राज कर रहा है। जिस समय आप ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब सभागार में हंस के पुनर्जन्म की पच्चीसवीं सालगिरह की तैयारियां अपने चरम पर होंगी। नई कहानी आंदोलन के जरिए हिंदी कहानी के केंद्र में स्थापित हो चुके राजेंद्र यादव को हंस के बाद पैदा हुई साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्कारों वाली पीढ़ियां उनके विमर्शों के लिए कहीं ज्यादा जानेगी, बनिस्बत उनके कथा लेखन के लिए। राजेंद्र यादव भी मानते हैं कि हंस के संपादन के साथ ही उनका कथा लेखन कहीं पीछे छूट गया। लेकिन उन्हें इसका गम इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने जो साहित्य की दुनिया में हस्तक्षेप के लिए हंस का जो बिरवा लगाया था, जरूरी विमर्शों के जरिए उसने ना सिर्फ रचनात्मक हस्तक्षेप किया है, बल्कि हिंदी के वैचारिक धरातल को जरूरी आधार भी मुहैया कराया है। हर महीने संपादकीय के तौर पर छपने वाला उनका स्तंभ मेरी-तेरी उसकी बात की हिंदी क्षेत्र में अगर प्रतीक्षा की जाती है तो इसीलिए कि उसमें हर बार कुछ नया, कुछ ज्यादा बौद्धिक उत्तेजक और खास होता है। कथाकार राजेंद्र यादव की कलम के इस नवोन्मेष ने उन्हें साहित्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया है। इस एक स्तंभ ने उन्हें बौद्धिक लोकप्रियता तो दिलाई ही, इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। कई बार उनके विवादित विचारों ने राजनीतिक बवंडर भी खड़ा किया। लेकिन राजेंद्र यादव अपनी बात पर टिके रहे।
राजेंद्र यादव की एक खासियत यह है कि आप उनसे भले ही असहमत हों, लेकिन विमर्श में वे आपके विचारों को भी स्पेस देने का लोकतांत्रिक माद्दा रखते हैं। हंस की सालगिरह पर होने वाले एक कार्यक्रम में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर के संपादक रहे शेषाद्रि चारी को भी बोलने के लिए बुलाया था। हंस की चौबीसवीं साल गिरह के कार्यक्रम में कथाकार और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय को बुलाया था। तब विभूति नारायण राय हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाओं पर विवादित बयान देकर अलोकप्रिय हो चुके थे। हंस के मंच पर इसके लिए उनका जोरदार विरोध हुआ। राजेंद्र यादव ने उस वक्त के छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को भी बुलाया था। तब विमर्श का विषय था – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। तब सलवा जुडूम के समर्थन के लिए विश्व रंजन का विरोध होना तय था। लेकिन विश्वरंजन नहीं आए। अकेले विभूति नारायण राय को ही लानत-मलामत झेलनी पड़ी। लानत-मलामत करने वाले वही लोग थे, जिनके विचारों की झलक राजेंद्र यादव के लेखन में भी दिखती है और जिसके समर्थक राजेंद्र यादव भी हैं। लेकिन इस विरोध प्रदर्शन से राजेंद्र यादव दुखी थे। उन्होंने कहा भी कि लोकतांत्रिक समाज में सक्रिय संवाद की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए, चाहे वह संवाद विरोधी विचार से ही क्यों न हो।
हंस में प्रकाशित कहानियों की चर्चा के बिना ये लेख अधूरा ही रहेगा। हंस ने सृंजय जैसे कथाकार की कहानी कामरेड का कोट छापकर जैसे हिंदी साहित्य में नया भूचाल ही ला दिया था। उदय प्रकाश की कहानी और अंत में प्रार्थना तो जैसे बदलते दौर का दस्तावेज ही है। इस कहानी को भी पाठकों की कचहरी में लाने का श्रेय हंस को ही जाता है। उदय प्रकाश की ही कहानी पीली छतरी वाली लड़कियां और मोहनदास- जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला- भी हंस ने ही प्रकाशित किया। गीतांजलिश्री, लवलीन, महेश कटारे, प्रियंवद, सारा रॉय जैसे ढेरों कहानीकारों की उद्वेलित करती कहानियों से हिंदी पाठकों को परिचित कराने का जरिया हंस ही बना। साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रकारिता विरोधी माहौल में हंस ने हिंदी पाठकों को संस्कारित करने और उनकी जरूरतें पूरी करने का भी बड़ा काम किया है। आर्थिक और राजनीतिक झंझावातों को झेलने के बावजूद अगर हंस जिंदा है तो उसके लिए राजेंद्र यादव की जीजिविषा ही बड़ी वजह है।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

इस राह का अंत नहीं


उमेश चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू अपने सामाजिक सरोकारों वाले फैसले के लिए जाने जाते हैं। कानून की नीरस किताबों और पेंचीदगियों से उलझने वाले न्यायविद के अलावा भी उनकी एक छवि है। कम से कम मध्य प्रदेश के जिस मालवा इलाके से वे आते हैं, वहां के साहित्यिक और सांस्कृतिक हलकों में उनकी संवेदनशील उपस्थिति नजर आती है तो इसकी वजह यह है कि साहित्य की गंग-जमुनी धारा में उनकी दिलचस्पी है। लेकिन हाल ही में इंदौर में भरोसा न्यास के एक कार्यक्रम की अध्यक्षता करते वक्त उन्होंने जो मांग रखी है, उसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस कार्यक्रम में निदा फाजली जैसे नामचीन शायर की मौजूदगी के बीच उन्होंने हिंदवी संस्कृति के मशहूर शायर गालिब को भारत रत्न देने की मांग दोहरा डाली। दरअसल वे दिल्ली में हर साल होने वाले अंतरराष्ट्रीय मुशायरा जश्न ए बहार में अपनी ये मांग पहले ही कर चुके हैं। मजे की बात यह है कि इंदौर में उन्होंने इसके लिए एक प्रस्ताव भी रख दिया और मालवा के तमाम बड़े पत्रकारों ने इसे लगे हाथों समर्थन भी दे डाला। प्रबुद्ध समझे जाने वाले लोगों ने इस मांग की जरूरत और उसके निहितार्थों को समझे बिना जिस तरह समर्थन दिया, उससे साफ है कि लोग इस मांग के दूरगामी असर को नहीं समझ पा रहे हैं।
गालिब की महानता पर किसी को शक नहीं हो सकता। उनकी शायरी के कायल वे लोग भी हैं, जिन पर देश की गंग-जमुनी संस्कृति को नुकसान पहुंचाने का आरोप है। लेकिन सवाल यह है कि क्या डेढ़ सौ साल पहले जिसने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, उसे भारत रत्न जैसे सम्मान की दरकार है। गालिब की मौत 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में हुई थी। फाकामस्ती के इस शायर की अहमियत और इज्जत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके गुजरने के डेढ सौ साल बीतने के बाद भी अपनी बात को गहरे तक पैठाने के लिए आज भी हम में से कई लोग उनकी शायरी का सहारा लेते है। ऐसे में क्या भारत रत्न देकर उनके साथ न्याय किया जा सकता है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू का तर्क है कि जब सरदार पटेल और भीमराव अंबेडकर को उनकी मौत के बरसों बाद भारत रत्न दिया जा सकता है तो मिर्जा गालिब को क्यों नहीं। सरदार पटेल और अंबेडकर की तुलना मिर्जा गालिब से कम से कम एक स्तर पर नहीं की जा सकती। दोनों हालिया इतिहास की हस्तियां रहे हैं और आजाद भारत के बीच उन्होंने भी सांस ली है। अगर सिर्फ महानता के ही आधार पर ऐतिहासिक हस्तियों को भारत रत्न दिए जाने की परंपरा शुरू हो गई तो यह निश्चित जानिए कि भारतीय इतिहास की अंधेरी और उजली दोनों गलियों से ऐसे इतने नाम निकलने शुरू हो जाएंगे, जिन्हें भारत रत्न देते देते हम थक जाएंगे और शायद यह सूची कभी खत्म नहीं हो सकती। अगर मिर्जा गालिब को भारत रत्न सम्मान दिया गया तो हमारे विद्वत जन और संस्कृति प्रेमी बाल्मीकि से लेकर भास, कालिदास, भर्तृहरि लगायत मध्यकाल में सूर-तुलसी-कबीर और तेनाली राम तक पहुंच जाएंगे। कुछ लोगों के लिए मंगल पांडे और कुंवर सिंह तो कुछ के लिए खुदी राम बोस और बंकिमचंद्र भी भारत रत्न के लिए उपयुक्त व्यक्तित्व नजर आने लगेंगे। चाणक्य और चंद्रगुप्त से लेकर अल्लाउद्दीन खिलजी और न जाने कितने नाम भारत रत्न की इस सूची में शामिल करने की मांगें उठने लगेंगी। आज भी एक तबका ऐसा है, जो बार-बार पृथ्वीराज चौहान की अस्थियां अफगानिस्तान से लाने की मांग करता रहता है। उनकी नजर में पृथ्वीराज चौहान भी भारत रत्न के हकदार हो सकते हैं।
भारत में 1990 के दशक से क्षेत्रीय अस्मिताओं की पुनर्पहचान का एक नया दौर चल पड़ा है। राजनीतिक तौर पर ये अस्मिताएं अपनी ताकत हासिल कर भी रही हैं और अपने लिए नए प्रतीक और महानता के नए व्यक्तित्व भी तलाश भी कर रही हैं। भारतीय संविधान के दायरे में ही उनका अस्मिताबोध जारी है। एक – दो बार दबी जबान से महात्मा फुले और पेरियार को भी भारत रत्न देने की मांग उठी भी है। लेकिन भारत रत्न को लेकर कम से कम एक राष्ट्रीय सहमति के बोध की अंतर्धारा हमारे राष्ट्रीय मानस में बह रही है और वह इन शख्सियतों को महान मानते हुए भी कम से कम उन्हें भारत रत्न के विवाद से दूर रखना चाहती हैं। आम धारा तो यही मानती है कि निकट इतिहास में जिस शख्सियत ने भारतीयता को नए पायदान पर पहुंचाया है और अपनी सार्वजनिक सेवा के जरिए भारतीयता के कल्याण में योगदान दिया है, उसे ही भारत रत्न दिया जाना चाहिए। याद कीजिए, जब अंबेडकर और पटेल को भारत रत्न से नवाजा गया था। तब भी भारत में एक वैचारिक धारा ऐसी थी, जिसका मानना था कि पटेल और अंबेडकर की शख्सियत की पहचान भारत रत्न से भी आगे की है। यह भी सच है कि उन्हें राजनीतिक हितों के लिए भारत रत्न से नवाजा गया था। यही वजह है कि तब सवाल भी उठे थे। बेहतर तो यह होगा कि दूरवर्ती इतिहास की शख्सियत को भारत रत्न की परिधि से दूर ही रखा जाय। इससे नए विवादों से दूर रहने में मदद ही मिलेगी। अन्यथा अगर गालिब और तुलसी को भारत रत्न दिया जाना शुरू हो गया तो यकीन मानिए क्षेत्रीय अस्मिताओं की पहचान तलाश रहे समुदाय अपने इतिहास की शख्सियतों को भारत रत्न दिलाने के अभियान पर निकल पड़ेंगी। निश्चित तौर पर तब इन मांगों से निबटना आसान नहीं होगा और ऐतिहासिक शख्सियतों को भी शायद ही यह विवाद पसंद हो।