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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009
क्या है इस राहत पैकेज का मकसद !
उमेश चतुर्वेदी
लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदलाव नहीं आता। आज अगर लोहिया जी होते तो वे देखते कि माला पहनाने वाली इस कौम की तरह सरकारी व्यवस्था और रवायत में कोई बदलाव नहीं आता। भले ही सरकारें बदल जाती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो ऐन चुनावों से पहले भारत निर्माण का अभियान केंद्र की यूपीए सरकार नहीं शुरू करती।
शाइनिंग इंडिया की याद है आपको....2004 के आम चुनावों से ठीक पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने शाइनिंग इंडिया यानी चमकते भारत को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करने का अभियान छेड़ दिया था। तब आज की सरकार चला रही कांग्रेस ने इस अभियान की जमकर खिंचाई की थी। आपको इंडिया शाइनिंग की याद है तो आपको 2004 में आम चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का रोड शो भी याद होगा। इस शो का मकसद ही था कि इंडिया शाइनिंग की हकीकत दुनिया को दिखाई जाए और इसका सियासी फायदा उठाया जाय। कहना ना होगा, सोनिया गांधी अपने मकसद में कामयाब रहीं और बीजेपी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हवा निकल गई थी।
मंदी के इस दौर में भारत निर्माण अभियान मीडिया के लिए अच्छी संजीवनी बन कर आया है। अखबारों से लेकर टेलीविजन तक हर जगह यूपीए की अगुआई में भारत निर्माण का दर्शन हो रहा है। कभी अपने शाइनिंग इंडिया अभियान की आलोचना झेल और बर्दाश्त कर चुकी बीजेपी भारत निर्माण के विरोध में नहीं दिख रही। इसका ये मतलब नहीं है कि वह भारत निर्माण के कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार के दावे से सहमत है। हकीकत तो ये है कि मंदी के दौर में मीडिया भी पिस रहा है। ना सिर्फ प्रिंट, बल्कि टेलीविजन संस्थान भी आर्थिक दिक्कतों से दो-चार हो रहे हैं। शायद ही कोई मीडिया समूह बचा है, जहां कर्मचारियों की छंटनी नहीं हो रही है या फिर उनके सिर छंटनी की तलवार नहीं लटक रही है। फिर चुनावी साल है...इतनी आर्थिक दिक्कतों के बावजूद अब भी मीडिया संस्थान इतने ताकतवर हैं कि उन्हें कोई भी राजनीतिक दल नजरंदाज करने की हालत में नहीं है। लिहाजा बीजेपी भी इस अभियान का विरोध करके खुद को मीडिया के निशाने पर लाने से बच रही है।
भारत निर्माण अभियान के जरिए भारत सरकार दरअसल अपने दो लक्ष्य साधने की कोशिश कर रही है। उसे पता है कि इसके जरिए मीडिया घरानों के पास पैसा पहुंचेगा। लिहाजा उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत रहेगी और वे कम से कम मंदी के नाम पर उसे घेरने से बचेंगे। मंदी के चलते देशभर में नौकरियों का संकट बढ़ता जा रहा है। रोजाना रोजगार के तमाम क्षेत्रों से छंटनी की खबरें आ रही हैं। लेकिन मीडिया में इसे लेकर कहीं गुस्सा नहीं दिखता..भारत निर्माण अभियान अगर गुस्से की थोड़ी – बहुत झलक कहीं है भी तो उसे कम करने में अपनी बेहतर भूमिका निभा सकता है।
मंदी की मार से उबरने के लिए उद्योगों के लिए सरकार वैसे ही कई योजनाएं लागू कर चुकी है। रिजर्व बैंक कई बार रैपो रेट घटा चुका है। ऐसे में मीडिया को राहत मिलनी ही चाहिए। इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता। मीडिया के लिए भी राहत पैकेज की मांग को लेकर पिछले दिनों प्रिंट मीडिया के दिग्गजों ने सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री आनंद शर्मा से मुलाकात की। इस मुलाकात में हिंदुस्तान टाइम्स की संपादकीय निदेशक शोभना भरतिया, इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता और बिजनेस स्टैंडर्ड के टी एन नैनन भी शामिल थे। इस बैठक में आनंद शर्मा से मीडिया घरानों ने अपने लिए राहत पैकेज की मांग के साथ ही अखबारी कागज के आयात शुल्क में छूट देने की भी मांग रखी। ये सच है कि अखबारी कागज की बढ़ती कीमतों ने भी प्रिंट मीडिया संस्थानों की कमर तोड़ रखी है। पिछले साल इसकी कीमत छह सौ डालर प्रति टन से बढ़कर 960 डालर तक पहुंच गई। फिर मंदी के चलते विज्ञापनों में गिरावट आई। एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक इस देश में तकरीबन साढ़े चार हजार बड़े विज्ञापनदाता हैं। विज्ञापनों के लिहाज से नवंबर और दिसंबर मीडिया के लिए सबसे ज्यादा मसरूफियत वाला महीना रहा है। लेकिन मंदी के चलते इस बार वैसी व्यस्तता नहीं दिखी। बड़े विज्ञापनदाताओं के बजट में भी कटौती दिखी। ऐसा नहीं कि इस पर सरकार का ध्यान नहीं रहा है और मीडिया घरानों से मुलाकात के बाद ही उसका इस समस्या की ओर ध्यान गया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक बड़े अफसर के मुताबिक भारत निर्माण अभियान की शुरूआत में इसका भी ध्यान रखा गया था।
मीडिया उद्योग को राहत पैकेज की पहली बार मांग पत्रकार से राजनेता बने राजीव शुक्ला ने संसद के पिछले सत्र में ही रखी थी। उसके बाद से ही मीडिया घरानों में इसे लेकर सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति बनने लगी थी। आनंद शर्मा से मुलाकात इसी रणनीति का नतीजा है, जिसका फायदा कुछ दिनों में मिलने वाला है। जिसमें अखबारी कागज के आयात टैक्स पर छूट भी हो सकती है। हालांकि सरकार ने खबरिया चैनलों के लिए किसी राहत का ऐलान नहीं किया है। लेकिन भारत निर्माण के जरिए उनकी भी मदद तो की ही जा रही है।
एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया हर तिमाही में मीडिया को मिलने वाले विज्ञापनों के आंकड़े जारी करता है। इस बार जो आंकड़ा आएगा, ये तय है कि उसमें केंद्र सरकार सबसे बड़े विज्ञापनदाता के तौर पर उभरेगी। ऐसा 2004 की पहली तिमाही में भी हुआ था। तब भी अपने इंडिया शाइनिंग अभियान के चलते सरकार सबसे बड़ी विज्ञापनदाता थी। ये बात और है कि तब सरकारी खजाने के दुरूपयोग को लेकर उस वक्त की केंद्र सरकार की जमकर लानत-मलामत की गई थी। जिसका खामियाजा वाजपेयी सरकार को हार के तौर पर भुगतना पड़ा था। मंदी की मार झेल रहे मीडिया को सरकारी राहत से फायदा तो जरूर मिलेगा। लेकिन वोटों की खेती में इसका कितना फायदा केंद्र की यूपीए सरकार उठा पाती है, इस पर सबकी निगाह लगी रहेगी।
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