हिंदी आलोचना के छोटे मगर जरूरी अध्याय
उमेश चतुर्वेदी
क्या साहित्य को राजनीति के निकष पर कसा जा सकता है, आदर्श और यथार्थ की साहित्य में कितनी भूमिका होनी चाहिए, हिंदी साहित्य में बहस-चर्चा होती रहती है। साहित्य के बारे में कहा जाता रहा है कि वह समाज से ही मिट्टी-पानी ग्रहण करता है। जाहिर है, इसी मिट्टी पानी के एक रूप राजनीति भी है। इस तर्क के आधार पर तो साहित्य को राजनीति का अनुगामी और दर्पण भी होना चाहिए। लेकिन साहित्य समाज का दर्पण होते हुए भी वैसा दर्पण नहीं है, जो समाज के चेहरे को हू-ब-हू पेश कर दे। साठ के दशक के महत्वपूर्ण साहित्य आलोचक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा साहित्य को ऐसा दर्पण मानते हैं, जो कुछ और भी दिखाता है और आगे की बात करता है। वे कहते हैं – “ साहित्य मिट्टी से पोषक तत्व प्राप्त करता है, किंतु अगर उसे मिट्टी से ज्यादा कुछ बनना है तो उसे आकाश की ओर उपर उठना ही पड़ता है। ”इस तरह वे साहित्य और राजनीति की सीमाएं भी निर्धारित कर देते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर और आलोचक गोपेश्वर सिंह के संपादन में आई पुस्तक ‘नलिन विलोचन शर्मा- संकलित निबंध ’ से गुजरते हुए नलिन विलोचन शर्मा की ऐसे कई साहित्यालोचन और उसकी सैद्धांतिकता से रूबरू हुआ जा सकता है।