विवादों की किताबें
उमेश चतुर्वेदी
नई आर्थिकी और उदारीकरण के दौर में जिंदगी के जब सारे फलसफे अमेरिकी तर्ज पर
तय हो रहे हों, ऐसे में अगर वहां की ही तरह इतिहास की हकीकत से पर्दे हटाने की
कोशिशों का स्वागत किया ही जाना चाहिए। शासन और प्रशासन में पारदर्शिता लाने के
दावों के बीच सचाई तो यही है कि अब तक भारतीय समाज को विगत के फैसलों की जानकारी
सिर्फ और सिर्फ मिथकीय अंदाज में सुनी-सुनाई बातों से ही होती रही है।
लेकिन इन
दिनों राजनीति के ऊंचे मुकाम पर पहुंचे लोगों ने अपनी राजनीतिक जिंदगी से जुड़े
ऐतिहासिक पलों को उजागर करना शुरू कर दिया है। कायदे से इतिहास की अंधेरी कोठरी के
खुलते दरवाजों के भीतर स्थित सच पर भरोसा किया जाना चाहिए, उनका स्वागत भी होना
चाहिए। लेकिन भारतीय समाज में इन सचाइयों को लेकर दिलचस्पी अमेरिकी समाज जैसी तो
है, लेकिन बाहर आ रहे सच पर अमेरिकी समाज जैसा भरोसा नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति
डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम की किताब को ही लीजिए। उनकी किताब 'टर्निंग पॉइंट्स: अ जर्नी थ्रू चैलेंजेज' राजनीति में नया टर्निंग प्वाइंट ही लेकर आ गई
है। अब तक देश यही मानता रहा है कि 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बन
पाने की वजह उनका विदेशी मूल का होना रहा है। लेकिन कलाम की किताब ने उन्हें त्याग
की देवी के तौर पर स्थापित कर दिया है। इससे जहां कांग्रेसी खेमे में खुशी है,
वहीं विदेशी मूल का सवाल उठाते रहे एनडीए के प्रमुख घटक दलों में मायूसी है। कलाम
की किताब से देश के सामने सोनिया गांधी की जबर्दस्त मार्केटिंग हुई है। उनका नाम
त्याग के ब्रांड के तौर पर निश्चित तौर पर जनता के एक वर्ग में स्वीकार्य हो सकता
है। लेकिन यह किताब कुछ सवालों का जवाब नहीं दे पाती है कि आखिर 1999 में जब
जयललिता की समर्थन वापसी के बाद वाजपेयी सरकार गिर गई थी, तब सोनिया गांधी क्यों प्रधानमंत्री
बनने की उतावली में थी। तब उनके अंदर त्याग की यह भावना तो नजर नहीं आई थी। बहरहाल
इस किताब पर जमकर चर्चा हो रही है। लेकिन विवाद एक और किताब के अंशों से उठ रहा
है। यह किताब है सोनिया गांधी के समर्थन में नरसिंह राव की कांग्रेस से नाता
तोड़कर नारायण दत्त तिवारी के साथ तिवारी कांग्रेस बना चुके गांधी-नेहरू परिवार के
शुभचिंतक अर्जुन सिंह की। अर्जुन सिंह इस दुनिया से कूच कर गए हैं। लेकिन उन्होंने
अपनी किताब 'अ ग्रेन ऑफ सैंड इन द आवरग्लास ऑफ टाइम ' के जरिए नया विवाद छोड़ गए
हैं। उनकी किताब के अब तक जितने भी अंश मीडिया में आए हैं, उससे लगता है कि यह
किताब एक ऐसे थके हुए नेता का उच्छवास और भावुक तकलीफ है, जिसे उसका वाजिब उसके
आकाओं ने कभी नहीं दिया। अर्जुन सिंह के अजीज रहे वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने
अपने एक लेख में लिखा है कि प्रतिभा पाटिल का जब राष्ट्रपति पद के लिए चयन हो रहा
था, तब अर्जुन सिंह खुद राष्ट्रपति बनना चाहते थे। उन्हें लगता था कि पार्टी और
गांधी नेहरू परिवार की सेवाओं के बदले उन्हें मैडम(सोनिया गांधी) रायसीना हिल्स
बतौर इनाम में जरूर देंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 2007 की यह कसक असहनीय पीड़ा में 2009
में तब बदल गई, जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल ही नहीं किया गया। रामशरण
जोशी ने अर्जुन सिंह के निधन के बाद लिखे श्रद्धांजलि लेख में लिखा था कि अर्जुन
सिंह की पत्नी ने खुद जोशी से कहा था कि अगर मैडम उन्हें राष्ट्रपति बना देतीं तो
क्या हो जाता। अर्जुन सिंह की उम्मीद की वजह रही उनका गांधी और नेहरू परिवार के
प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति। राजीव गांधी की पहल पर उन्होंने उस पंजाब के
राज्यपाल का दायित्व संभाला, जो आतंकवाद की आग से जल रहा था। जहां उम्मीद की कोई
किरण नहीं थी। बाद में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रहे। लेकिन खुद एक रजवाड़े
से आने वाले अर्जुन सिंह यह भूल गए कि राजनीति में परिवार की भक्ति के बावजूद कमान
वाली शख्सीयत के बदलते ही भक्तों और भरोसेमंदों का नया दौर शुरू हो जाता है।
बहरहाल अर्जुन सिंह इस झटके से उबर नहीं पाए और दुनिया से ही कूच कर गए। उन्होंने
लिखा है – “2009 में यूपीए को बहुमत मिला। 22 मई 2009 को मनमोहन सिंह दोबारा
प्रधानमंत्री बने। सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बने रहने का फैसला लिया।
कैबिनेट पर फैसला लिए जाने पर मेरा दिल बैठ गया जब मुझे पता चला कि
कांग्रेस के लिए दशकों से काम करने के बावजूद में कैबिनेट में शामिल नहीं हूं। मैं
राजीव गांधी और इंदिरा गांधी का विश्वास पात्र था , लेकिन मंत्री नहीं बनाए जाने पर
मुझे झटका लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूं। ”
इस दर्द के बावजूद अर्जुन सिंह की भक्ति में कमी नहीं आई है। पूरी दुनिया
मानती है कि दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन
वारेन एंडरसन को केंद्र सरकार यानी राजीव गांधी के इशारे से भोपाल से विशेष विमान
से भगाया गया था। जहां से वह दिल्ली पहुंचा और फिर दिल्ली से उसे अमेरिका रवाना कर
दिया गया। लेकिन अर्जुन अपनी किताब में इसके लिए तब के गृहमंत्री नरसिंह राव को
जिम्मेदार बताते हैं। उनका कहना है कि नरसिंह राव के निर्देश पर वारेन एंडरसन को
भगाया गया। लेकिन उनकी किताब में इस सवाल का जवाब नहीं है कि बतौर मुख्यमंत्री वे
किसके कहने पर इतने मजबूर थे कि उन्होंने वारेन एंडरसन को भाग जाने दिया। अब तक के
तथ्यों से यही जाहिर हुआ है कि वारेन एंडरसन को भोपाल के एयरपोर्ट पर डीएम की कार
से ले जाया गया था। तीन हजार लोगों की मौत का आरोपी भाग रहा है और देश का
प्रधानमंत्री इस तरफ ध्यान नहीं दे पाता, यही सवाल है जो अर्जुन सिंह के इस कथन पर
सवालिया निशान खड़ा करता है। अर्जुन सिंह अपनी किताब में बार-बार नरसिंह राव को
कांग्रेसी सियासत का खलनायक साबित करने से नहीं चूकते। अर्जुन सिंह ने लिखा है कि राजीव गांधी की 21 मई, 1991 को हत्या के बाद पी वी नरसिंहा राव ने
सोनिया गांधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाये जाने के सुझाव पर तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। अर्जुन सिंह के मुताबिक राव ने कहा था कि
कांग्रेस पार्टी को क्यों नेहरू गांधी
परिवार के साथ उसी तरह अटके रहने की जरूरत है, जैसे कि ट्रेन के डिब्बे इंजन से जुड़े होते हैं। अर्जुन सिंह के मुताबिक राव की इस
प्रतिक्रिया के बाद वे हक्के-बक्के रह गए थे। अर्जुन के मुताबिक सोनिया गांधी को
अध्यक्ष बनाये जाने के सुझाव पर राव की प्रतिक्रिया सुनकर
उनका ‘राजनीति के वीभत्स’ चेहरे से सामना हुआ। अर्जुन सिंह की इस किताब में कई और खुलासे हैं, मसलन शरद
पवार को उन्होंने कभी भरोसा लायक नहीं माना और कांग्रेस में उन्हें शामिल करते
वक्त राजीव गांधी को उनसे चेताया भी था। अर्जुन सिंह ने कुल मिलाकर इस किताब में
गांधी-नेहरू परिवार से अपनी वफादारी को साबित करने की ही कोशिश की है। यह बात है
कि उनकी इस वफादारी के बावजूद 2009 के चुनाव में रीवा से उनकी बेटी को टिकट नहीं
मिल पाया। इसका भी मलाल उन्हें रहा। हालांकि उनके बेटे अजय सिंह इन दिनों मध्य
प्रदेश कांग्रेस विधायक हैं। ऐसी किताबें राजनीतिक भूचाल लाती रही हैं। लेकिन अजय
सिंह उम्मीद कर सकते हैं कि उनके पिता की इस किताब से उनके कांग्रेसी राजनीतिक
जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए ना सिर्फ संघ
परिवार, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को भी बराबर का जिम्मेदार ठहराया
जाता है। इसकी तसदीक वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब ‘बियांड द लाइन्स’ में की है। नैयर ने लिखा है कि वरिष्ठ समाजवादी
नेता मधु लिमये ने उन्हें बताया था कि जब बाबरी मस्जिद ढहाई जानी शुरू हुई, तब
नरसिंह राव पूजा पर बैठ गए और बाबरी ध्वंस के बाद ही उठे। कुलदीप नैयर के इस दावे
को नरसिंह राव के बेटे पीवी रंगाराव ने खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि बाबरी
ध्वंस की रात राव काफी बेचैन रहे। मधु लिमये इस दुनिया में नहीं हैं। लिहाजा नैयर
की बात पर भरोसा किया ही जाना चाहिए। लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें यह तथ्य पच
नहीं रहा। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो मानते हैं कि ऐसे तथ्यों का इस्तेमान किताब की
बिक्री बढ़ाने की कोशिश भी हो सकती है। भारतीय अर्थव्यस्था इन दिनों भले ही
हिचकोले खा रही हो, लेकिन यह सच है कि नई आर्थिकी और उदारीकरण के फायदों का गुणगान
करते कांग्रेसी नहीं थकते। लेकिन इसकी शुरूआत करने वाले नरसिंह राव के लिए शायद ही
सार्वजनिक तौर पर कोई कांग्रेसी प्रशंसा के दो बोल बोलता हो। बहरहाल यह तय है कि
अर्जुन सिंह और कुलदीप नैयर की किताबों ने नरसिंह राव को कम से कम कांग्रेसी
इतिहास का खलनायक तो साबित कर ही दिया है। अब यह जनता पर है कि वह इन तथ्यों को
किस रूप में लेती है।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें