उमेश चतुर्वेदी
वैचारिक असहमति और उन असहमतियों के आधार पर
विमर्श होना लोकतांत्रिक समाज का भूषण होता है..लेकिन कथित असहिष्णुता के खिलाफ
जारी साहित्यिक-सांस्कृतिक-फिल्मी और वैज्ञानिक जगत में जारी वैचारिक आलोड़न को
क्या इसी कसौटी पर देखा-परखा जा सकता है ? सम्मान वापसी के
विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि भले ही सम्मान वापस करने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही
है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक विचार और ताकतें काम कर रही हैं। इसके लिए सम्मान
वापसी विरोधियों को एक पर एक होती रही घटनाओं ने तार्किक सवाल उठाने का मौका दे
दिया है...प्रतिरोध की आवाजों के उठने के अगले ही दिन देश की सबसे पुरानी पार्टी
कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी असहिष्णुता के खिलाफ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
के दरबार पहुंच गईं। यह तो उनकी व्यक्तिगत मुलाकात थी। इसके ठीक अगले दिन उन्होंने
सवा सौ नेताओं के लाव-लश्कर समेत बाकायदा जुलूस निकालकर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
से शिकायत कर डाली। मौजूदा दौर में एजेंडा तय करना और किसी भी घटना या हादसे को
उत्सवी रंग देना मीडिया का काम हो गया, लिहाजा असहिष्णुता का यह लाव-लश्करी विरोध
मीडिया के लिए आकर्षक बन गया और इस नाते कांग्रेस खबरों की केंद्र में बनी रही।
इससे साफ है कि पहले लेखकों का विरोध और फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी का कदम
कहीं न कहीं सोची-समझी रणनीति के तहत हुए। अव्वल तो होना चाहिए कि इन घटनाओं के
बीच जुड़े तंतुओं की पड़ताल की जाती, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।