उमेश चतुर्वेदी
(यथावत में प्रकाशित)
हिंदी पाठकों के लिए सुनील गंगोपाध्याय का नाम अनजाना नहीं
है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे गंगोपाध्याय के रचनात्मक संसार को हिंदी पाठकों
ने ज्यादातर कहानियों और उनके उपन्यासों के जरिये ही जाना है। बांग्ला साहित्य के
अप्रतिम हस्ताक्षर रहे सुनील गंगोपाध्याय गजब के साहित्यिक पत्रकार भी रहे हैं।
साहित्यिक पत्रकारिता का संस्कार और साहित्यिक मन जब मिलते हैं तो उसके प्रभाव से
जो भ्रमण वृत्तांत सामने आता है, वह उपन्यास और कई बार तो कविता जैसा आनंद देने
लगता है। सुनील गंगोपाध्याय का हिंदी में अनूदित होकर आए भ्रमण वृत्तांत चित्रकला,
कविता के देशे को पढ़ते हुए बार-बार ऐसा अनुभव होता है। सुनील गंगोपाध्याय ने
साठ के दशक में अमेरिका में एक लेखन प्रोग्राम के तहत अमेरिकी शहर आयोवा की यात्रा
की थी। इस यात्रा से पहले वे कलकत्ता, अब कोलकाता के साहित्यिक समाज में अपना
स्थान बना चुके थे। बांग्ला में लगातार जारी उनके लेखन ने उन्हें इस यात्रा का
मौका दिलाने में भूमिका निभाई थी। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के उस घर घुस्सू युवा
के लिए यह आमंत्रण ही चौंकाऊ था। जिसके लिए विदेश यात्रा पर जाना तो एक सपना तो
था, लेकिन उसका उससे भी बड़ा सपना था अपने निम्नमध्यवर्गीय माहौल में ही जीते हुए
अपने ही परिवार के बीच अपने ही शहर में रहना। लेकिन इस सपने में एक यह सपना भी था
कि वह महान साहित्यकारों और चित्रकारों के साथ ही पूरी दुनिया में अपनी सांस्कृतिक
गतिविधियों और संभ्रांत समाज के लिए विख्यात फ्रांस का दर्शन भी करे। लेकिन यह
दर्शन इतना जल्दी हो सकता है, युवा गंगोपाध्याय सोच भी नहीं पाते। आयोवा जाते वक्त
जब हवाई जहाज पेरिस हवाई अड्डे पर रूका तो फ्रांस दर्शन का सपना जैसे पूरा होता
नजर आया और पेरिस हवाई अड्डे से ही फ्रांस के दर्शन में इतना निमग्न हुए कि वहां
से अमेरिका जाने वाली फ्लाइट ही छूट गई। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं..खुद लेखक के
शब्दों में “ हमारी दृष्टि में उस
वक्त फ्रांस स्वर्ग के समान था। असंख्य शिल्पी-साहित्यकार-कवियों की लीला
भूमि....यहां ही देगा, मोने,माने, गोगा, मातिस-रूयो, जैसे महान शिल्पी..आज भी यहां
चित्र बनाते हैं पिकासो”.