शनिवार, 9 अगस्त 2014

समाजवाद को समझने का सूत्र

उमेश चतुर्वेदी
कई प्रखर नामों के बिना भारतीय समाजवाद के विकास और भारतीय राजनीति में गरीबों-मजलूमों की मजबूत आवाज की कल्पना नहीं की जा सकती। आजादी का पूरा आंदोलन गरीबी और भुखमरी को दूर करके भारत को स्वराज के जरिए सुराज तक पहुंचाने के मकसद से ओतप्रोत रहा। लेकिन भारतीय संसद में दिल से गरीबों के समर्थन में आवाज कम ही उठी। भारतीय संसद में गरीबों की आवाज पहली बार संजीदा ढंग से 1963 में उठी। यही वह साल है, जब डॉक्टर राम मनोहर लोहिया पहली बार फर्रूखाबाद के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लोकसभा में लोहिया के पहुंचते ही पहली बार कांग्रेस सरकार को अहसास हुआ कि संसद में सचमुच कोई विपक्ष है।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

सोनिया पर किताबी विवाद


उमेश चतुर्वेदी
राजनीति चाहे कहीं की भी हो..लगता है एक नियम पूरी शिद्दत से हर जगह लागू होता है..अपने प्रतिद्वंद्वी और विरोधी पर तब जोरदार हमले करो, जब उसकी हालत सबसे ज्यादा कमजोर हो..यूपीए की चुनावी हार और संसद में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के बाद गांधी-नेहरू परिवार के खिलाफ जिस तरह पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के किताबी हमले की वजह भी राजनीति का यह नियम ही है..  किताब के प्रकाशन के बाद जिस तरह नटवर सिंह लगातार बयान दे रहे हैं और खुलासे पर खुलासे करते जा रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि विदेश मंत्री पद से हटाए जाने की उनकी टीस उन्हें खाए जा रही है। तेल के बदले अनाज योजना में 2005 में नाम आने के बाद नटवर सिंह को विदेश मंत्री पद से हटाकर काफी दिनों तक बिना विभाग का मंत्री बनाये रखा गया। किताब में जिस तरह उन्होंने खुलासे किए हैं, उससे अगर यह माना जाने लगे कि उन्होंने अपने गुस्से को अपनी किताब का शक्ल दिया है तो इसकी वजह उनके कांग्रेस छोड़ने के बाद के राजनीतिक पराभव में तलाशा जा सकता है। इसीलिए उनकी आत्मकथा वन लाइफ इज नॉट एनफ भी चर्चा में है। 

फ्रांस का औपन्यासिक चित्रण


उमेश चतुर्वेदी
(यथावत में प्रकाशित)
हिंदी पाठकों के लिए सुनील गंगोपाध्याय का नाम अनजाना नहीं है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे गंगोपाध्याय के रचनात्मक संसार को हिंदी पाठकों ने ज्यादातर कहानियों और उनके उपन्यासों के जरिये ही जाना है। बांग्ला साहित्य के अप्रतिम हस्ताक्षर रहे सुनील गंगोपाध्याय गजब के साहित्यिक पत्रकार भी रहे हैं। साहित्यिक पत्रकारिता का संस्कार और साहित्यिक मन जब मिलते हैं तो उसके प्रभाव से जो भ्रमण वृत्तांत सामने आता है, वह उपन्यास और कई बार तो कविता जैसा आनंद देने लगता है। सुनील गंगोपाध्याय का हिंदी में अनूदित होकर आए भ्रमण वृत्तांत चित्रकला, कविता के देशे को पढ़ते हुए बार-बार ऐसा अनुभव होता है। सुनील गंगोपाध्याय ने साठ के दशक में अमेरिका में एक लेखन प्रोग्राम के तहत अमेरिकी शहर आयोवा की यात्रा की थी। इस यात्रा से पहले वे कलकत्ता, अब कोलकाता के साहित्यिक समाज में अपना स्थान बना चुके थे। बांग्ला में लगातार जारी उनके लेखन ने उन्हें इस यात्रा का मौका दिलाने में भूमिका निभाई थी। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के उस घर घुस्सू युवा के लिए यह आमंत्रण ही चौंकाऊ था। जिसके लिए विदेश यात्रा पर जाना तो एक सपना तो था, लेकिन उसका उससे भी बड़ा सपना था अपने निम्नमध्यवर्गीय माहौल में ही जीते हुए अपने ही परिवार के बीच अपने ही शहर में रहना। लेकिन इस सपने में एक यह सपना भी था कि वह महान साहित्यकारों और चित्रकारों के साथ ही पूरी दुनिया में अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों और संभ्रांत समाज के लिए विख्यात फ्रांस का दर्शन भी करे। लेकिन यह दर्शन इतना जल्दी हो सकता है, युवा गंगोपाध्याय सोच भी नहीं पाते। आयोवा जाते वक्त जब हवाई जहाज पेरिस हवाई अड्डे पर रूका तो फ्रांस दर्शन का सपना जैसे पूरा होता नजर आया और पेरिस हवाई अड्डे से ही फ्रांस के दर्शन में इतना निमग्न हुए कि वहां से अमेरिका जाने वाली फ्लाइट ही छूट गई। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं..खुद लेखक के शब्दों में हमारी दृष्टि में उस वक्त फ्रांस स्वर्ग के समान था। असंख्य शिल्पी-साहित्यकार-कवियों की लीला भूमि....यहां ही देगा, मोने,माने, गोगा, मातिस-रूयो, जैसे महान शिल्पी..आज भी यहां चित्र बनाते हैं पिकासो.