उमेश चतुर्वेदी
पिछले दिनों एक शैक्षिक प्रकाशक पीछे ही पड़ गए थे। उनकी मांग थी कि पत्रकारिता पर एक पाठ्यपुस्तक लिख कर दें। खबर और ग्लैमर के कैरियर के तौर पर विकसित हो रहे मीडिया पाठ्यक्रमों में खासकर हिंदी माध्यम की स्तरीय किताबों का भारी अभाव है। हिंदी के बड़े से बड़े प्रकाशकों ने भी इस धारा को दुहने के लिए किताबों की ढेर मैदान में उतार दी है, लेकिन उनमें से ज्यादातर उबाऊ और दुहराऊ विशुद्ध अकादमिक किताबें हैं। जिनसे छात्रों को न तो आम पढ़ाई में, न ही मीडिया की असल जिंदगी में कोई फायदा मिल पाता है। खैर इस विषय पर बहस इस वक्त मकसद नहीं है। बहरहाल इसी बहाने प्रकाशक महोदय से हिंदी में किताबों के दाम तय करने के फार्मूले की जानकारी हो गई। उनके मुताबिक अगर किसी किताब की कीमत 300 रूपए रखी गई है तो तय है कि उसके प्रोडक्शन पर महज 120 रूपए ही खर्च हुए हों। प्रकाशक महोदय के मुताबिक किताबों को बेचने और खपाने के लिए उन्हें तरह-तरह के कमीशन और घूस देने होते हैं। अगर अकादमिक किताब हुई तो पाठ्यक्रम संयोजक से लेकर महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में किताबें तय करने वाले अध्यापकों और पुस्तकालय अध्यक्षों तक को उन्हें चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। अगर आम फहम किताब हुई तो उसे सरकारी दफ्तरों के जिम्मेदार लोगों को चढ़ावा देकर ही लाइब्रेरी का मुंह दिखाया जा सकता है। लिहाजा किताबों का दाम महंगा रखना पड़ता है।
प्रकाशक महोदय की इन बातों से पता चलता है कि असल में हिंदी प्रकाशन की दुनिया आम पाठकों की मर्जी की बजाय हिंदी के मठाधीशों के अधीन है। ज्यादातर प्रकाशक अपनी किताबें इसी वजह से सिर्फ पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने के लिए ही आज प्रकाशित कर रहे हैं। हालांकि कुछ प्रकाशक ऐसे भी हैं, जिनका उद्देश्य लाइब्रेरी की बजाय आम पाठकों तक किताब पहुंचाना है। लेकिन उनकी चिंता सिर्फ किताब की पाठ्य सामग्री की गुणवत्ता पर ही ज्यादा रहती है। जबकि आज जमाना बदल गया है। आज किताब का प्रोडक्शन भी उसकी बिक्री पर खासा असर रखता है। लेकिन हकीकत यह है कि हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक अब भी पारंपरिक ढंग से ही किताबें छाप रहे हैं। उनके यहां स्थायी संपादक, डिजायनर तो हैं ही नहीं, स्थायी प्रूफ रीडर तक नहीं हैं। जाहिर है कि प्रोफेशनल संपादक, डिजायनर और प्रूफ रीडर रखने का खर्च प्रकाशक को भारी लगता है। यही वजह है कि हिंदी की ज्यादातर किताबों में अब भी संपादन की कमियां, प्रूफ की गलती और बोझिल- बासी डिजाइन दिखती है। इसके बावजूद हिंदी में किताबों का दाम ज्यादा ही है। साफ है कि प्रकाशक अपने मोटे मुनाफे के साथ लाइब्रेरी परंपरा में जारी चढ़ावे की प्रक्रिया में भागीदार बने हुए हैं। इसका सीधा नुकसान हिंदी को हो रहा है, प्रकाशनों के बावजूद किताबें पाठकों तक नहीं पहुंच रही हैं। तार्किक तौर पर बेहद महंगी किताबों को कौन पूछेगा। वैसे हिंदी का आम लेखक अब भी चाहता है कि उसकी प्रकाशित होने वाली किताब सस्ती हो, ताकि पाठकों तक उसकी सीधी पहुंच बन सके। हालांकि इस बहस में पेंगुइन जैसे प्रकाशक दूसरे तरीके से सोच रहे हैं। पेंगुइन यात्रा बुक के संपादक सत्यानंद निरूपम उलटे सवाल उठाते हैं कि हिंदी में किताबें आखिर क्यों न महंगी हों। सत्यानंद जब यह सवाल उठाते हैं तो जाहिर है कि उनके सामने उनके प्रकाशन से निकली किताबों की गुणवत्ता रहती है। दरअसल पेंगुइन यात्रा बुक जैसे प्रकाशक अपनी एक-एक किताब की डिजाइन, उसके संपादन और उसके प्रोडक्शन पर खासा ध्यान रखते हैं। इस प्रक्रिया में श्रम और पैसे दोनों खर्च होते हैं। जाहिर है कि इसीलिए वे उनकी किताबें बाकी लोगों की तुलना कहीं ज्यादा सुघड़ और आकर्षक होती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी किताबों का लक्ष्यवर्ग पाठक हैं, लाइब्रेरियां नहीं हैं।
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