उमेश चतुर्वेदी
तीन दिसंबर को बांग्लादेश को बने 39 साल हो जाएंगे। यूं तो बरसी और सालगिरह पर किसी महत्वपूर्ण घटना का याद आना असहज नहीं है। लेकिन बांग्लादेश की याद सिर्फ रस्मी तौर पर नहीं आ रही है। हर साल जब तीन दिसंबर आता है, बचपन में पढ़े एक रिपोर्ताज की स्मृतियां जाग उठती हैं। ब्रह्मपुत्र के मोर्चे पर शीर्षक इस रिपोर्ताज को तो किसी संकलन में पढ़ा था। जब साहित्य और पत्रकारिता से गहरा रिश्ता बना तो पता चला कि यह रिपोर्ताज पहले धर्मयुग में छपा था। बांग्लादेश के गठन की तैयारियों के बीच भारतीय सेना की पाकिस्तानी सेना से भिड़ंत भी हुई थी। उसी लड़ाई के एक मोर्चे से हिंदी के यशस्वी कवि और पत्रकार डॉक्टर धर्मवीर भारती ने यह रिपोर्ताज लिखा था। ब्रह्मपुत्र नदी के दोनों तरफ से जारी गोलाबारी के बीच धर्मवीर भारती खुद भी मौजूद थे। यह लेखन इसलिए ज्यादा याद आता है, क्योंकि युद्ध के मोर्चे से लिखे इस रिपोर्ताज में भाषा के जबर्दस्त प्रयोग दिखते हैं। पढ़ते वक्त लगता है जैसे हम सीधे-सीधे लड़ाई के दृश्यों से दो-चार हो रहे हैं। आज का जमाना होता तो धर्मवीर भारती का वह रिपोर्ताज भी खारिज कर दिया जाता यह कहते हुए कि पेस और मूवमेंट लड़ाई के मोर्चे की रिपोर्ट कैसी ? लेकिन ब्रह्मपुत्र के मोर्चे से लिखा यह रिपोर्ताज उन लोगों को जरूर सुकून पहुंचाता है और हिंदी की भाषाई ताकत को महसूस भी कराता है, जिन्हें भाषा में खिलंदड़ापन पसंद हैं।
धर्मवीर भारती ही क्यों, मैला आंचल और परती-परिकथा जैसी कृतियों के मशहूर लेखक फणीश्वर नाथ रेणु के उन रिपोर्ताजों को भी पढ़ना अपने आप में सुखद अनुभव है, जो ऋणजल-धनजल शीर्षक से संग्रहीत हैं। मूलत: दिनमान के लिए इन्हें लिखा गया था। 1973 की बिहार की भयंकर बाढ़, उसके पहले का सूखा, बाढ़ और सूखे के बीच पिसती बिहार की जनता, 1967 में पहली बार बिहार में संयुक्त सरकार बनना, उस सरकार की पहली कैबिनेट बैठक का विवरण...ऐसी कई घटनाओं पर रेणु ने रिपोर्ताज लिखे। दिनमान संपादक रघुवीर सहाय ने रेणु से आग्रह करके खासतौर पर ये रिपोर्ताज लिखवाए थे। उन्हें पढ़कर लोगों का दिल न पसीज जाए, गुस्से से मुट्ठियां न तन जाएं या फिर गर्व ना हो...ऐसा हो ही नहीं सकता। भाषाई चमत्कार और खास घटनाओं के लिए खास शब्दों का इस्तेमाल....इसकी बेहतरीन बानगी है रेणु के ये रिपोर्ताज. अस्सी के दशक तक भाषाई खिलंदड़ी के साथ रिपोर्ताज लेखन की यह परंपरा चलती रही। 1980 के दशक के आखिरी दिनों में भाषाई खिलंदड़ापन का यह प्रयोग टूटने लगा। क्योंकि बाद में आए हिंदी के कर्णधार संपादकों को इस खिलंदड़ापन में पंडिताऊपन नजर आने लगा था। उन्हें हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े दुश्मन हिंदी से साहित्यकार पत्रकार नजर आने लगे थे। उनके खिलाफ जमकर अभियान चलाया गया। जिन धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अज्ञेय ने हिंदी को मांजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे सब के सब नए संपादकों की नजर में हिंदी पत्रकारिता के खलनायक थे। खलनायकत्व का यह प्रचार अंतत: हिंदी की नवोन्मेषी विधाओं पर पड़ा। अब तो हालत यह है कि उनके दर्शन भी नहीं होते। 1970 के दशक में वाराणसी से निकलने वाले आज अखबार की तूती पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार में बोलती थी। उसमें विवेकी राय का साप्ताहिक स्तंभ मनबोध मास्टर की डायरी छपती थी। भले ही इस स्तंभ के नाम में डायरी शब्द जुड़ा था, लेकिन हकीकत में यह डायरी की बजाय रिपोर्ताज ही था। मजे की बात यह है कि इसे पढ़ने वालों का अपना बड़ा पाठक वर्ग था। इन प्रकीर्ण विधाओं (बाद में पाठ्यक्रमों में रिपोर्ताज और डायरी के लिए प्रकीर्ण शब्द का ही इस्तेमाल किया जाता था।) ने पाठकों के ज्ञान के भंडार में वृद्धि तो की ही, उनका स्तरीय मनोरंजन भी किया। लेकिन इन विधाओं का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भाषा को नए-नए शब्द दिए। ऐसा नहीं कि आज ऐसी विधाओं में लोग सक्रिय नहीं हैं। उदयन वाजपेयी, विवेकी राय, नर्मदाप्रसाद उपाध्याय जैसे नाम सक्रिय तो हैं, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता में ऐसी रचनात्मकता को मंच उपलब्ध कराने की जगह ही नहीं रही। इसका असर यह हो रहा है कि हमारी नई पीढ़ी के शब्द भंडार में कमी होती जा रही है। हिंदी का हर चौथा शब्द उनकी भौंहों पर बल डालने के लिए काफी होता है। मजे की बात यह है कि मौजूदा पत्रकारिता नएपन और प्रगतिशीलता के नाम पर इसे ही बढ़ावा दे रही है। आज की शहराती पीढ़ी अपने भारत से ही परिचित नहीं है, रही-सही कसर उसे भाषा से भी काट कर पूरा किया जा रहा है।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
शनिवार, 27 नवंबर 2010
सोमवार, 22 नवंबर 2010
नकारात्मक प्रतिभाओं की मशहूरियत का दौर
उमेश चतुर्वेदी
झांसी जिले के प्रेम नगर निवासी लक्ष्मण की मौत ने टेलीविजन की चंचल और मुंहफट बाला के रियलिटी शो राखी का इंसाफ को सवालों के घेरे में ला दिया है। लक्ष्मण के घरवालों के मुताबिक खुलेआम टीवी कैमरे के सामने राखी द्वारा उसे नामर्द कहे जाने के सदमे को वह झेल नहीं पाया। लक्ष्मण की मौत ने एनडीटीवी इमैजिन के इस शो को विवादों में ला दिया है और इसे बंद किए जाने की मांग उठने लगी है। पंजाब सरकार के एक मंत्री हीरा सिंह गाबड़िया तक इसे बंद करने की सलाह दे चुके हैं। मुंबई हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका भी दायर की जा चुकी है। ये पहला मौका नहीं है, जब राखी का यह शो विवादों में आया है। अभी कुछ ही हफ्तों पहले राखी के इसी शो में भोजपुरी फिल्मों की एक स्ट्रगलर और एक कास्टिंग डाइरेक्टर के बीच खुलेआम गालीगलौज हुआ और दोनों ने कैमरे के सामने एक-दूसरे पर हाथ उठा दिया।
दरअसल यह नकारात्मक प्रचार का दौर है। उदारीकरण ने जिंदगी के तमाम मूल्यों को किनारे रखने में मदद दी है। नकारात्मकता को प्रचार मिलता है और इस प्रचार के चलते दर्शकों की भीड़ ऐसे कार्यक्रमों की ओर टूट पड़ती है। इस दौर में नकारात्मक शख्सियतों को ही पसंद किया जा रहा है। लिहाजा टेलीविजन चैनलों को भी दर्शक जुटाने का यह नकारात्मक तरीका ही पसंद आ रहा है। चूंकि राखी के शो पर आरोप है कि एक शख्स की मौत हो गई है, लिहाजा उस पर इन दिनों उंगलियां खूब उठ रही हैं। लेकिन भारतीय टेलीविजन की दुनिया में दिखने वाला यह एक मात्र रियलिटी शो नहीं है, जिसका कंटेंट जिंदगी के तमाम मूल्यों को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ रहा है। बिग बॉस सीजन – 4 भी इन दिनों कलर्स पर छाया हुआ है। टैम की रेटिंग रिपोर्टें बताती हैं कि जिस दिन सलमान खान इस कार्यक्रम की एंकरिंग कर रहे होते हैं, उस दिन हिंदी मनोरंजन चैनलों को देखने वाले दर्शकों का सबसे ज्यादा हिस्सा इसी चैनल के पास होता है। बिग बॉस में हो रही घटनाएं पहले से तय हैं या नहीं, यह तो बाद के बहस का विषय है। लेकिन इतना तय है कि यहां भी जमकर ऐसे मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं, जिनकी शिक्षा लोग इस बदलाव के दौर में भी शायद ही अपने बच्चों को देना चाहें। डॉली बिंद्रा की खुलेआम जारी बदतमीजी और चीख-चिल्लाहट, पाकिस्तान की असफल अभिनेत्री वीना मलिक की अश्लीलता भरी अदाएं और उनके प्यार में अश्लीलता की हद तक डूबे महान समाजवादी नेता रजनी पटेल के पोते अस्मित पटेल को देखना आज उस समाज को पसंद आ रहा है, जिसके ड्राइंग या बेडरूम में टेलीविजन की अबाध पहुंच है। नकारात्मकता आज प्रचार पाने का माध्यम बन गई है। इसलिए रियलिटी शो को नकारात्मक विषय और नकारात्मक चरित्र पसंद आ रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कलर्स को महान चोर बंटी को क्यों चुनना पड़ता। उसे डॉली बिंद्रा की चीख-पुकार क्यों पसंद आती। बीना मलिक पर आरोप है कि उनके क्रिकेट के खेल के सटोरियों से संबंध हैं। इस आरोप वाले व्यक्ति को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। उसकी साख सवालों के घेरे में होनी चाहिए। लेकिन वह एक प्रतिष्ठित चैनल के जरिए घर-घर पहुंच तो रही ही है, बदले में उसे मोटा माल भी मिल रहा है। सीमा परिहार बीहड़ों की धूल फांकते हुए अपनी जो पहचान नहीं बना पाईं, वे अब कलर्स के जरिए देश के सभ्य परिवारों के ड्राइंग रूम की शोभा बन चुकी हैं। रियलिटी शो का एक मकसद तो यही है कि मशहूर या कुख्यात शख्सियतों की जिंदगी में झांका जाय। राखी सावंत, डॉली बिंद्रा या ऐसी ही हस्तियों से किसी अच्छेपन की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। ब्रेड के टुकड़े या एक सेव और चाय की एक प्याली के लिए भी ये शख्सियतें किस हद तक गिर सकती हैं, इसकी असल तस्वीर ये शो पेश तो कर ही रहे हैं। गालियों को तो जैसे टेलीसमाज में स्वीकृति हासिल हो गई है। तभी तो बिग बॉस की एंकरिंग करते हुए सलमान खान कुछ भी बोल देते हैं और दर्शक फिर भी तालियां बजा रहे होते हैं। एमटीवी रोडीज और यूटीवी के बिंदास भी बिंदासपन की ही असल तस्वीर पेश करते हैं। जहां गालियां नवाचार के तौर आराम से दी जाती हैं और सुनी भी जाती हैं। इन रियलिटी शो ने हमारे हास्य बोध को भी बदलकर रख दिया है। जहां द्विअर्थी संवादों की भरमार है। सोनी टीवी पर भी एक हास्य शो आता है। रियलिटी शो की तरह के इस शो में जितने द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल होता है, उससे दादा कोंडके की फिल्मों की याद आ जाती है। लेकिन दिलचस्प यह है कि उत्सव जैसी फिल्म में अभिनय से विख्यात हुए शेखर कपूर को ऐसे संवादों को हंसने का बहाना ही होते हैं। समाज तालियां पीट रहा है और कंपनियां इन तालियों के चलते विज्ञापनों की माया से भरी हुई हैं।
पश्चिमी दुनिया में भी ढेरों रियलिटी शो चल रहे हैं। वहां भी वे लोकप्रिय हैं। लेकिन शोध रिपोर्टें बताती हैं कि ये शो बच्चों में नकारात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जर्मनी की मीडिया शिक्षक माया गेयोत्स ने इस विषय पर शोध किया है। उनका कहना है कि 9 से 22 साल के लोग अनजाने में ही इन शोज़ से बहुत कुछ सीख जाते हैं। उनके मुताबिक बच्चे और युवा इन शोज़ से बहुत कुछ सीखते हैं। मिसाल के तौर पर जर्मनीज़ नेक्सट टॉप मॉडल में प्रतियोगियों से कई तरह के टास्क कराए जाते हैं, मसलन बिना कपड़ों के अपना फोटोशूट कराना। जब बच्चे यह सब देखते हैं तो वे सोचते हैं कि वे भी ऐसा कुछ कर सकते हैं। माया कहती हैं कि इन रियलिटी शो को देखते-देखते बच्चों को लगने लगता है कि जीवन में सफल होने और आगे बढ़ने के लिए खूबसूरत दिखना और अच्छे कपड़े पहनना बेहद ज़रूरी है। बच्चों को लगने लगता है कि ऐसा स्टार या फिर मॉडल बनना ही तरक्की कहलाता है।
माया के इन निष्कर्षों की तसदीक अपने देश में भी हो चुकी है। एक रियलिटी शो में हिस्सा लेते वक्त दो साल पहले इंदौर में एक नौजवान अपनी जान गंवाते-गंवाते बचा। वह पानी के टब में ज्यादा से ज्यादा देर तक डूबे रहे कर स्टार बनने की दौ़ड़ में शामिल था। स्टार बनने के चक्कर में रियलिटी शो में शामिल हुई कोलकाता की एक स्कूली लड़की को उस शो के निर्णायकों ने इतना डांटा कि वह अस्पताल पहुंच गई और उसे लकवा मार गया। वह अपनी आवाज भी खो चुकी थी। काफी इलाज के बाद ही वह स्वस्थ हो सकी। जब रामायण-महाभारत का दौर चल रहा था, तब राम और रावण की तरह तीर से लड़ाई करने का चलन बढ़ गया था। हालांकि वे रियलिटी शो नहीं थे। पूरी तरह से महाकाव्यात्म कथाओं पर आधारित वे धारावाहिक थे। आस्था और सांस्कृतिक इतिहास से जुड़ा होने के बावजूद उन धारावाहिकों पर सवाल उठे। बच्चों को समझाने और उन्हें चेताने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। हालांकि उनमें जीवन मूल्यों की स्थापना पर जोर था। लेकिन तब से लेकर करीब दो दशक का वक्त बीत चुका है। इसके बावजूद अब के रियलिटी शो को लेकर चेताने की कोई कार्यवाही होती नहीं दिख रही। वैसे राखी का इंसाफ जैसे शो भारतीय कानून व्यवस्था का भी मजाक उड़ा रहे हैं। अगर राखी जैसे लोग ही इंसाफ कर सकते हैं तो कानून व्यवस्था संभालने और न्याय करने वाली संस्थाओं की क्या जरूरत रह जाती है। राखी अपने हावभाव के जरिए इंसाफ चाहें जितना भी करती हों, उनकी ये हरकत दर्शकों को पसंद आती है। बिग बॉस की डॉली बिंद्रा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। नकारात्मक प्रचार की ताकत बढ़ रही है और बाजार चूंकि इसी के सहारे बढ़ रहा है, लिहाजा इसे बढ़ावा देने में उसकी भूमिका बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि तमाम टेलीविजन चैनलों पर ऐसे शो की बाढ़ आई हुई है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाजार को भले ही ये चीजें पसंद आती हैं। लेकिन समाज के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसे निर्धारित करने का काम व्यवस्था संभालने वाली संस्थाओं का है, जिनसे ऐसे मसलों पर निर्मम और गंभीर कदमों की उम्मीद की जाती है। बीबीसी के चैनल फोर पर प्रसारित बिग ब्रदर कार्यक्रम में जेड गुडी ने शिल्पा शेट्टी पर नस्ली टिप्पणियां की थीं, तो उसका ब्रिटेन की मीडिया की सबसे बड़ी निगरानी संस्था ब्रा़डकास्टिंग रेग्युलेटरी अथॉरिटी ने संज्ञान लिया था और चैनल फोर को नोटिस जारी किया था। जिसका वहां के नागरिकों तक ने स्वागत किया था। लेकिन खेद का विषय यह है कि अपने यहां ऐसी पहल होती नहीं दिख रही।
झांसी जिले के प्रेम नगर निवासी लक्ष्मण की मौत ने टेलीविजन की चंचल और मुंहफट बाला के रियलिटी शो राखी का इंसाफ को सवालों के घेरे में ला दिया है। लक्ष्मण के घरवालों के मुताबिक खुलेआम टीवी कैमरे के सामने राखी द्वारा उसे नामर्द कहे जाने के सदमे को वह झेल नहीं पाया। लक्ष्मण की मौत ने एनडीटीवी इमैजिन के इस शो को विवादों में ला दिया है और इसे बंद किए जाने की मांग उठने लगी है। पंजाब सरकार के एक मंत्री हीरा सिंह गाबड़िया तक इसे बंद करने की सलाह दे चुके हैं। मुंबई हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका भी दायर की जा चुकी है। ये पहला मौका नहीं है, जब राखी का यह शो विवादों में आया है। अभी कुछ ही हफ्तों पहले राखी के इसी शो में भोजपुरी फिल्मों की एक स्ट्रगलर और एक कास्टिंग डाइरेक्टर के बीच खुलेआम गालीगलौज हुआ और दोनों ने कैमरे के सामने एक-दूसरे पर हाथ उठा दिया।
दरअसल यह नकारात्मक प्रचार का दौर है। उदारीकरण ने जिंदगी के तमाम मूल्यों को किनारे रखने में मदद दी है। नकारात्मकता को प्रचार मिलता है और इस प्रचार के चलते दर्शकों की भीड़ ऐसे कार्यक्रमों की ओर टूट पड़ती है। इस दौर में नकारात्मक शख्सियतों को ही पसंद किया जा रहा है। लिहाजा टेलीविजन चैनलों को भी दर्शक जुटाने का यह नकारात्मक तरीका ही पसंद आ रहा है। चूंकि राखी के शो पर आरोप है कि एक शख्स की मौत हो गई है, लिहाजा उस पर इन दिनों उंगलियां खूब उठ रही हैं। लेकिन भारतीय टेलीविजन की दुनिया में दिखने वाला यह एक मात्र रियलिटी शो नहीं है, जिसका कंटेंट जिंदगी के तमाम मूल्यों को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ रहा है। बिग बॉस सीजन – 4 भी इन दिनों कलर्स पर छाया हुआ है। टैम की रेटिंग रिपोर्टें बताती हैं कि जिस दिन सलमान खान इस कार्यक्रम की एंकरिंग कर रहे होते हैं, उस दिन हिंदी मनोरंजन चैनलों को देखने वाले दर्शकों का सबसे ज्यादा हिस्सा इसी चैनल के पास होता है। बिग बॉस में हो रही घटनाएं पहले से तय हैं या नहीं, यह तो बाद के बहस का विषय है। लेकिन इतना तय है कि यहां भी जमकर ऐसे मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं, जिनकी शिक्षा लोग इस बदलाव के दौर में भी शायद ही अपने बच्चों को देना चाहें। डॉली बिंद्रा की खुलेआम जारी बदतमीजी और चीख-चिल्लाहट, पाकिस्तान की असफल अभिनेत्री वीना मलिक की अश्लीलता भरी अदाएं और उनके प्यार में अश्लीलता की हद तक डूबे महान समाजवादी नेता रजनी पटेल के पोते अस्मित पटेल को देखना आज उस समाज को पसंद आ रहा है, जिसके ड्राइंग या बेडरूम में टेलीविजन की अबाध पहुंच है। नकारात्मकता आज प्रचार पाने का माध्यम बन गई है। इसलिए रियलिटी शो को नकारात्मक विषय और नकारात्मक चरित्र पसंद आ रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कलर्स को महान चोर बंटी को क्यों चुनना पड़ता। उसे डॉली बिंद्रा की चीख-पुकार क्यों पसंद आती। बीना मलिक पर आरोप है कि उनके क्रिकेट के खेल के सटोरियों से संबंध हैं। इस आरोप वाले व्यक्ति को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। उसकी साख सवालों के घेरे में होनी चाहिए। लेकिन वह एक प्रतिष्ठित चैनल के जरिए घर-घर पहुंच तो रही ही है, बदले में उसे मोटा माल भी मिल रहा है। सीमा परिहार बीहड़ों की धूल फांकते हुए अपनी जो पहचान नहीं बना पाईं, वे अब कलर्स के जरिए देश के सभ्य परिवारों के ड्राइंग रूम की शोभा बन चुकी हैं। रियलिटी शो का एक मकसद तो यही है कि मशहूर या कुख्यात शख्सियतों की जिंदगी में झांका जाय। राखी सावंत, डॉली बिंद्रा या ऐसी ही हस्तियों से किसी अच्छेपन की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। ब्रेड के टुकड़े या एक सेव और चाय की एक प्याली के लिए भी ये शख्सियतें किस हद तक गिर सकती हैं, इसकी असल तस्वीर ये शो पेश तो कर ही रहे हैं। गालियों को तो जैसे टेलीसमाज में स्वीकृति हासिल हो गई है। तभी तो बिग बॉस की एंकरिंग करते हुए सलमान खान कुछ भी बोल देते हैं और दर्शक फिर भी तालियां बजा रहे होते हैं। एमटीवी रोडीज और यूटीवी के बिंदास भी बिंदासपन की ही असल तस्वीर पेश करते हैं। जहां गालियां नवाचार के तौर आराम से दी जाती हैं और सुनी भी जाती हैं। इन रियलिटी शो ने हमारे हास्य बोध को भी बदलकर रख दिया है। जहां द्विअर्थी संवादों की भरमार है। सोनी टीवी पर भी एक हास्य शो आता है। रियलिटी शो की तरह के इस शो में जितने द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल होता है, उससे दादा कोंडके की फिल्मों की याद आ जाती है। लेकिन दिलचस्प यह है कि उत्सव जैसी फिल्म में अभिनय से विख्यात हुए शेखर कपूर को ऐसे संवादों को हंसने का बहाना ही होते हैं। समाज तालियां पीट रहा है और कंपनियां इन तालियों के चलते विज्ञापनों की माया से भरी हुई हैं।
पश्चिमी दुनिया में भी ढेरों रियलिटी शो चल रहे हैं। वहां भी वे लोकप्रिय हैं। लेकिन शोध रिपोर्टें बताती हैं कि ये शो बच्चों में नकारात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जर्मनी की मीडिया शिक्षक माया गेयोत्स ने इस विषय पर शोध किया है। उनका कहना है कि 9 से 22 साल के लोग अनजाने में ही इन शोज़ से बहुत कुछ सीख जाते हैं। उनके मुताबिक बच्चे और युवा इन शोज़ से बहुत कुछ सीखते हैं। मिसाल के तौर पर जर्मनीज़ नेक्सट टॉप मॉडल में प्रतियोगियों से कई तरह के टास्क कराए जाते हैं, मसलन बिना कपड़ों के अपना फोटोशूट कराना। जब बच्चे यह सब देखते हैं तो वे सोचते हैं कि वे भी ऐसा कुछ कर सकते हैं। माया कहती हैं कि इन रियलिटी शो को देखते-देखते बच्चों को लगने लगता है कि जीवन में सफल होने और आगे बढ़ने के लिए खूबसूरत दिखना और अच्छे कपड़े पहनना बेहद ज़रूरी है। बच्चों को लगने लगता है कि ऐसा स्टार या फिर मॉडल बनना ही तरक्की कहलाता है।
माया के इन निष्कर्षों की तसदीक अपने देश में भी हो चुकी है। एक रियलिटी शो में हिस्सा लेते वक्त दो साल पहले इंदौर में एक नौजवान अपनी जान गंवाते-गंवाते बचा। वह पानी के टब में ज्यादा से ज्यादा देर तक डूबे रहे कर स्टार बनने की दौ़ड़ में शामिल था। स्टार बनने के चक्कर में रियलिटी शो में शामिल हुई कोलकाता की एक स्कूली लड़की को उस शो के निर्णायकों ने इतना डांटा कि वह अस्पताल पहुंच गई और उसे लकवा मार गया। वह अपनी आवाज भी खो चुकी थी। काफी इलाज के बाद ही वह स्वस्थ हो सकी। जब रामायण-महाभारत का दौर चल रहा था, तब राम और रावण की तरह तीर से लड़ाई करने का चलन बढ़ गया था। हालांकि वे रियलिटी शो नहीं थे। पूरी तरह से महाकाव्यात्म कथाओं पर आधारित वे धारावाहिक थे। आस्था और सांस्कृतिक इतिहास से जुड़ा होने के बावजूद उन धारावाहिकों पर सवाल उठे। बच्चों को समझाने और उन्हें चेताने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। हालांकि उनमें जीवन मूल्यों की स्थापना पर जोर था। लेकिन तब से लेकर करीब दो दशक का वक्त बीत चुका है। इसके बावजूद अब के रियलिटी शो को लेकर चेताने की कोई कार्यवाही होती नहीं दिख रही। वैसे राखी का इंसाफ जैसे शो भारतीय कानून व्यवस्था का भी मजाक उड़ा रहे हैं। अगर राखी जैसे लोग ही इंसाफ कर सकते हैं तो कानून व्यवस्था संभालने और न्याय करने वाली संस्थाओं की क्या जरूरत रह जाती है। राखी अपने हावभाव के जरिए इंसाफ चाहें जितना भी करती हों, उनकी ये हरकत दर्शकों को पसंद आती है। बिग बॉस की डॉली बिंद्रा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। नकारात्मक प्रचार की ताकत बढ़ रही है और बाजार चूंकि इसी के सहारे बढ़ रहा है, लिहाजा इसे बढ़ावा देने में उसकी भूमिका बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि तमाम टेलीविजन चैनलों पर ऐसे शो की बाढ़ आई हुई है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाजार को भले ही ये चीजें पसंद आती हैं। लेकिन समाज के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसे निर्धारित करने का काम व्यवस्था संभालने वाली संस्थाओं का है, जिनसे ऐसे मसलों पर निर्मम और गंभीर कदमों की उम्मीद की जाती है। बीबीसी के चैनल फोर पर प्रसारित बिग ब्रदर कार्यक्रम में जेड गुडी ने शिल्पा शेट्टी पर नस्ली टिप्पणियां की थीं, तो उसका ब्रिटेन की मीडिया की सबसे बड़ी निगरानी संस्था ब्रा़डकास्टिंग रेग्युलेटरी अथॉरिटी ने संज्ञान लिया था और चैनल फोर को नोटिस जारी किया था। जिसका वहां के नागरिकों तक ने स्वागत किया था। लेकिन खेद का विषय यह है कि अपने यहां ऐसी पहल होती नहीं दिख रही।
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