उमेश चतुर्वेदी
अमेरिका और यूरोप में जैसे-जैसे इंटरनेट का प्रसार बढ़ता जा रहा है, अखबारों के प्रसार में गिरावट देखी जा रही है। इसके चलते वहां अखबारों के अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगा है। चार साल पहले ब्रिटेन की पत्रिका द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित कवर स्टोरी- हू किल्ड द न्यूजपेपर – के बाद ये सवाल जबर्दस्त तरीके से उछला। ऐसी हालत में प्राइसवाटर हाउसकूपर की ताजा रिपोर्ट अखबारी दुनिया को राहत दे सकती है। वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज पेपर्स की पहल पर प्राइसवाटर हाउसकूपर ने हाल ही में अमेरिका और ब्रिटेन के 4900 पाठकों, तीस बड़े मीडिया घराने और दस बड़ी विज्ञापनदाता कंपनियों से सर्वे के बाद एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट से साफ हुआ है कि भले ही पश्चिमी दुनिया में अखबारों की बजाय इंटरनेट को ज्यादा तरजीह दी जाने लगी है। लेकिन अब भी ज्यादातर लोगों को प्रिंट पर ही भरोसा है। जबकि सिर्फ बासठ फीसदी लोग ही पैसे देकर इंटरनेट पर उपलब्ध या अखबारों के डिजिटल संस्करणों को पढ़ने के लिए तैयार हैं। पश्चिमी अखबारी जगत के लिए ये रिपोर्ट जहां चौंकाने वाली है, वहीं इंटरनेट के प्रति अखबारी संस्थानों के बढ़ते भरोसे को संतुलित करने के लिए भी काफी है। अखबारी प्रसार में गिरावट के बाद मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक के प्रकाशनों समेत द टाइम्स न्यूयार्क जैसे प्रकाशन भी अपने इंटरनेट संस्करणों की पाठकों के बीच मुफ्त पहुंच को सीमित करने के लिए जरूरी सॉफ्टवेयर के विकास में जुट गए हैं। ताकि इन प्रकाशनों के इंटरनेट संस्करणों तक उन्हीं पाठकों की पहुंच हो, जो इसके लिए कीमत चुकाने को तैयार हों। लेकिन प्राइसवाटर हाउसकूपर की इस रिसर्च रिपोर्ट से साफ है कि विकसित दुनिया के पाठकों में इंटरनेट के प्रति वैसा भरोसा नहीं है, जैसा कि प्रिंट के प्रति है। क्योंकि प्रिंट के लिए अब भी शत-प्रतिशत लोग कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं।
परंपरा की पूंजी के चलते चाहे पूरब का समाज हो या पश्चिम का, प्रिंट बड़ी ताकत बना हुआ है। यही वजह है कि पाठकों का उसमें भरोसा बना हुआ है। यही वजह है कि विज्ञापनदाताओं का भी उन पर भरोसा बरकरार है। इसकी तस्दीक प्राइसवाटर हाउस कूपर की रिसर्च रिपोर्ट भी करती है। रिपोर्ट के मुताबिक डिजिटल माध्यमों की ओर विज्ञापन का प्रवाह बढ़ रहा है। लेकिन विज्ञापनदाता गंभीर और भरोसेमंद पाठकों को लुभाने के लिए अखबारों पर ही ज्यादा भरोसा जता रहे हैं। इसमें उन अखबारों की संभावना ज्यादा बेहतर नजर आ रही है, जिन्होंने अपने डिजिटल या इंटरनेट या फिर दोनों तरह के संस्करण शुरू कर रखे हैं। यानी उन अखबारों पर विज्ञापनदाताओं का भरोसा बना हुआ है, जो बदलते दौर में नई तकनीक को आत्मसात करने में पीछे नहीं हैं। हालांकि इस रिपोर्ट में ये अफसोस भी जताया गया है कि यह चलन अभी ज्यादातर अखबार समूहों में शुरू नहीं हो पाया है। बहरहाल रिपोर्ट ने उम्मीद जताई है कि बाजार में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए देर-सबेर सभी प्रकाशनों को अपने डिजिटल या इंटरनेट संस्करणों को बेहतर बनाना ही पड़ेगा।
वैसे वैश्विक मंदी और आर्थिक संकट के चलते ये भी सच है कि अखबारों की राह कठिन हुई है। प्राइसवाटर हाउस कूपर की इस रिपोर्ट में भी अनुमान लगाया गया है कि समाचार पत्रों के ग्लोबल बाजार में इस साल 10.2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जाएगी। और 2013 तक इसमें हर साल करीब दो प्रतिशत की गिरावट देखी जाएगी। प्राइसवाटर हाउसकूपर की रिपोर्ट ने विज्ञापनों में गिरावट की भी उम्मीद जताई है। यही वजह है कि अखबारों के लिए विज्ञापनों में कमी आई है। कूपर की रिपोर्ट के ही मुताबिक खुद मीडिया संस्थान ही मानते हैं कि वैश्विक मंदी और विज्ञापनों में गिरावट के चलते वे अपना घाटा 2011 में ही पूरा कर पाएंगे। यानी उम्मीद की किरणें बनी हुई हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि अखबार कैसे बचे रह सकते हैं। प्राइसवाटर हाउसकूपर की रिपोर्ट से साफ है कि पाठकों के भरोसे के चलते विज्ञापन उद्योग का प्रिंट पर भरोसा बना रहेगा। लेकिन यह भी सच है कि पाठकों के भरोसे को बनाए रखने के लिए प्रिंट को नए-नए प्रयोग भी करने होंगे। इसकी तस्दीक द इकोनॉमिस्ट को दिए अपने एक इंटरव्यू में मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने भी की थी। उन्होंने कहा था कि मीडिया हाउसों ने अपने प्रिंट संस्करणों के जरिए अकूत कमाई तो की, लेकिन अपने इन दुलारे प्रकाशनों के टिकाऊ विकास के लिए अनुसंधान और नये प्रयोगों पर पैसे खर्च करने के बारे में कभी नहीं सोचा। कहना ना होगा कि भारत के भी बड़े मीडिया संस्थान मर्डोक की इस बात से सहमत नजर आ रहे हैं। हाल ही में एक कार्यक्रम आईएनएस के अध्यक्ष और बॉम्बे समाचार समूह के प्रमुख होर्म्सजी कामा को भी कहना पड़ा कि बदलते दौर के मुताबिक खुद को नए रूप में ढालने के लिए समाचार-पत्रों को तैयार होना पड़ेगा। इसके लिए शोधपरक अध्ययन भी करना होगा। और तो और उन्होंने माना कि वही अखबार बाजार में मजबूती के साथ खड़े रहेंगे, जो अपनी डिजाइन, ले-आउट और स्वरूप में नयापन लाने की सफल कोशिश करेंगे।
जब-जब कोई नया माध्यम आता है, पुराने की मौत की आशंका जताई जाने लगती है। रेडियो- टीवी के आने के दौरान भी ऐसा ही हुआ था। लेकिन नई चुनौतियों से जूझते हुए प्रिंट माध्यम ने खुद को मजबूती से खड़ा होने का रास्ता तलाश लिया था और आगे बढ़ते रहे। ये सच है कि एक बार फिर उनके सामने ऐसी चुनौती आ खड़ी हुई है, लेकिन यह भी सच है कि इससे निबटने और खड़ा होने का रास्ता तलाश ही लेंगे।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
शनिवार, 9 जनवरी 2010
बुधवार, 6 जनवरी 2010
टैम की माया के सामने खुलते जिंदगी के राज
उमेश चतुर्वेदी
मौजूदा प्रतिस्पर्धा में कुछ नया करके अपनी पहचान बनाए रखते हुए टीआरपी की दौड़ में अहम स्थान बनाए रखने की अंतहीन कवायद में मनोरंजन चैनल भी जुट गए हैं। इसके लिए हर चैनल नए-नए आइडिया को लेकर आगे आ रहा है। बुद्धू बक्से के पर्दे पर रियलिटी शो की भरमार इसी का नतीजा है। इसी कड़ी में एक और नाम जुड़ा है एनडीटीवी इमैजिन के शो - राज पिछले जन्म का। पास्ट लाईफ रिग्रेशन सिस्टम यानी पिछली जिंदगी को याद करके पिछली जिंदगी के राज खोलने वाले इस शो की शुरूआत सात दिसंबर से हो गई है। इसकी शुरूआत में टीवी और फिल्म की दुनिया की प्रमुख और बिकाऊ चेहरों वाली हस्तियां मसलन शेखर सुमन, सेलिना जेटली, संभावना सेठ, मोनिका वेदी आदि भी अपनी जिंदगी के राज खोल चुकी हैं, लिहाजा इसकी चर्चा जमकर हो रही है। नए-नए आइडिया की बाजीगरी दिखाने वाली भारतीय टीवी की दुनिया में चूंकि ये बिल्कुल ताजा और अपनी तरह का अनूठा आइडिया है, लिहाजा इसकी ओर दर्शक आकर्षित भी हो रहे हैं। लेकिन इस शो और इसमें पेश किए जाने वाली तकनीक और उसके जरिए संयोगों को जोड़ने को लेकर सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
इसकी वजह बने हैं मशहूर हस्तियों के पूर्व जन्म के कथित खुलासे। मनोचिकित्सक डॉ. तृप्ती जेईन की मदद से मोनिका वेदी के पिछले जन्म का जो राज खुला, वह चौंकाने वाला है। ये पूरी दुनिया जानती है कि मोनिका वेदी को माफिया डॉन अबू सलेम से संबंधों के चलते सुर्खियों में रहीं। उन्हें पुर्तगाल से प्रत्यर्पण के जरिए भारत लाया गया। उन पर अबू सलेम के साथ कई मामलों में मुकदमे भी चले। पूरी दुनिया जानती है कि उन्होंने अबू सलेम के साथ पुर्तगाल में शरण इसलिए ली थी, क्योंकि पुर्तगाल से भारत की प्रत्यर्पण संधि नहीं थी। फिर पुर्तगाल उन देशों में शामिल हैं, जहां भयंकर अपराधियों को भी मौत की सजा नहीं दी जाती। उन्हें और उनके पुराने दोस्त अबू सलेम को कानून की ये बारीकियां पता थीं। इसका फायदा वे उठाते रहे। ना जाने कितने पापड़ बेलने के बाद ही भारत सरकार उन्हें यहां लाने में कामयाब हो पाई। लेकिन राज पिछले जन्म में हिस्सा लेने के बाद उन्हें पता चला कि पूर्व जन्म में वह ईसाई थीं। इतना ही नहीं, उनके तीन बच्चे भी थे। जिनमें से एक बेटी का नाम नीमा था। उन्हें लग रहा है कि वह
ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हो रही हैं। मोनिका का दावा है कि पहले उन्हें इसकी वजह पता नहीं थी। लेकिन शो में आने के बाद उन्हें पता चला कि अपने पिछले जीवन में वह ईसाई थीं।
भोजपुरी फिल्मों की हेलन और बॉलीवुड की आइटम गर्ल के तौर पर विख्यात संभावना सेठ को इस शो में आने के बाद पता चला कि वह पूर्व जन्म में मुस्लिम लड़की थीं। उनका पिछला जन्म अच्छा नहीं था। उनके घरवाले उनपर काफी अत्याचार करते थे और बहुत कम उम्र में ही उनकी मौत भी हो गई। बाबा रामदेव को चुनौती देने वाली संभावना सेठ अपनी आक्रामक छवि के लिए भी जानी जाती हैं। अच्छी और बोल्ड डांसर के तौर पर विख्यात संभावना को अब अपनी असल जिंदगी के तार भी पिछली जिंदगी में दिखने लगे हैं। इस शो में पता चला कि वे पूर्व जन्म में बार डांसर थीं। जाहिर है कि इस जन्म के बोल्ड डांस के पीछे उनकी पूर्व जन्म की ये कहानी ही वजह नजर आ रही है।
टेलीविजन की दुनिया के सुपर स्टार शेखर सुमन भी इस शो के जरिए अपने पूर्व जन्म का राज जान चुके हैं। इसके मुताबिक पूर्व जन्म में वे ब्रिटिश नागरिक थे और उनके यहां जबर्दस्त आग लगी थी, जिसमें उनके बच्चों की मौत हो गई थी। यहां ये बता देना जरूरी है कि करीब पंद्रह साल पहले शेखर सुमन के एक बच्चे की हृदय की बीमारी के चलते मौत हो गई थी। इस शो में उन्हें इस मौत के पीछे भी पूर्व जन्म की वह आग ही नजर आई। ये तो हुई शो में शामिल हस्तियों की बात। चैनल का कहना है कि इस शो में नील नितिन मुकेश समेत कई और हस्तियां भी शामिल होंगी। इस शो में भोपाल की स्वाति सिंह भी शामिल हो चुकी हैं। जिन्हें 1966 में एक विमान हादसे से गुजरना पड़ा था। इसका डर उन पर इस कदर बैठ गया कि वे विमान में बैठने से ही घबराने लगीं। लेकिन इस शो में आने के बाद पता चला कि उनके पिछले जन्म की कई घटनाएं उनके व्यक्तित्व पर हावी रही हैं।
जिन्होंने महान मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड को पढ़ा है, उन्हें पता है कि फ्रायड ने करीब एक सदी पहले ही बता दिया था कि हर व्यक्ति का मन दरअसल दो स्तरों पर सक्रिय रहता है। एक चेतन, जिसमें व्यक्ति को पता होता है कि वह क्या कर रहा है या फिर क्या पढ़ रहा है। मन का एक स्तर होता है अवचेतन। इसमें व्यक्ति का मन अनजाने में ही अपनी जिंदगी और अपने आसपास की घटनाओं को रिकॉर्ड करते जाता है। फ्रायड कहते हैं कि सबकांशस या अवचेतन की जब भी अवस्था आती है या फिर व्यक्ति कभी सपने देखता है तो अवचेतन की ये घटनाएं ही उसे दिखाई पड़ती हैं। मनोचिकित्सक सम्मोहन के जरिए अवचेतन में बैठी धारणाओं को मनोरोगियों के मन से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो राज पिछले जन्म का – फ्रायड के उसी सिद्धांत के आधार पर काम कर रहा है। इस लिहाज से यह विषय नया तो नहीं है, लेकिन इसे अभी सार्वजनिक तौर पर पहले कभी पेश नहीं किया गया है, इस अर्थ में ये शो नया तो जरूर है। वैसे भी आज की शहरी जिंदगी में इतने उतार-चढ़ाव हैं, इतनी समस्याएं हैं कि अच्छे-भले लोग भी मानसिक विकारों के शिकार हो जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इस देश में करीब दो करोड़ लोग मानसिक रोगों से परेशान हैं। जाहिर है, ऐसे में इस शो को लोगों की उत्सुकता की वजह तो बनना ही था और बना भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो इस शो में हिस्सा लेने के लिए अब तक आठ हजार लोग रजिस्टर्ड नहीं हो पाते। वैसे किसी की निजी जिंदगी में झांकना और उसे लेकर व्याख्याएं सबके सामने करना, उस व्यक्ति की निजीपन में सेंध का ही मामला है। लेकिन जब सामने वाला खुद ही अपनी जिंदगी के राज पूरी दुनिया के सामने खोलने को उतावला हो तो इस पर सवाल उठाना ही बेमानी है। लेकिन ये भी सच है कि कई लोग अब भी हैं, जो अपनी पुरानी या पिछली जिंदगी के राज खोलने को तैयार नहीं हैं। और तो और, इस कार्यक्रम को पेश कर रहे भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता रवि किशन अब तक इसके लिए तैयार नहीं हो पाए हैं। कहा तो ये जा रहा है कि वे अपनी पिछली जिंदगी के खुलासे को लेकर डरे हुए हैं। लेकिन एक सच तो ये भी है कि उन्हें कहीं ना कहीं ये लगता है कि उनके विगत के खुलासे से उनकी अब तक की बनी-बनाई छवि पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
चैनलों की आपसी गलाकाट प्रतियोगिता में अब पत्रकारिता की पुरानी मान्यताएं धूमिल पड़ती जा रही हैं। कीहोल यानी बेडरूम में झांकने वाली पत्रकारिता सभ्य समाज में अब भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन बाजार में बने रहने और टीआरपी वाली नांव की पहली सीट पर सवारी करने का दबाव इतना ज्यादा बढ़ गया है कि मान्यताओं की परवाह कोई नहीं करता। चैनल पर अपने अस्तित्व और आर्थिक संकट का दबाव काम करता है तो व्यक्ति की निजी जिंदगी में चमत्कार की उम्मीदें उसे सब कुछ करने के लिए मजबूर करती हैं। राज पिछली जिंदगी का जैसा शो भी दोनों तरह के दबावों के कोलाज से तैयार है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अभी कुछ ही महीने पहले सच का सामना नाम का एक शो आया था। वहां सचाई का सामना करना और देखना तो शुरू में दर्शकों और प्रतिभागियों को अच्छा तो लगा, लेकिन अब उसकी चर्चा भी कभी-कभार ही हो पाती है। सच का सामना का मौजूदा हश्र इस बात का गवाह है कि अगर राज पिछले जन्म का में भी अगर समस्याओं का दुहराव होता रहा तो ताजा आइडिया वाला भी ये शो ज्यादा दिन तक लोगों को ड्राइंग रूम में साथ बैठने की वजह बना नहीं रह सकेगा।
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