शनिवार, 26 जनवरी 2008

ये कैसा मीडिया !

उमेश चतुर्वेदी
गुजरात के हालिया विधानसभा चुनाव में एक बड़ी पार्टी के बड़े नेता को भी जिम्मेदारी दी गई थी। अपनी पार्टी के प्रचार में उन्होंने गुजरात के जिले-जिले का दौरा किया था। इस दौरान उन्हें जो अनुभव हुआ- वह चौंकाने वाला था। उन्होंने हैरतभरे लहजे में बताया कि हर जिले में उनकी प्रेस कांफ्रेंस को कवर करने के लिए भारी संख्या में पत्रकार आते थे। उन्हें गौर से सुना भी जाता था, सवाल-जवाब भी खूब होते। लेकिन प्रेस कांफ्रेंस खत्म होने के बाद उनसे घुमा - फिराकर सवाल पूछा जाता, उनके अखबार या फिर पत्रिका को वे कितनी रकम देंगे। दिल्ली में अपना अधिकांश वक्त बड़े पत्रकारों और समाचार पत्रों के मालिकों के साथ गुजारने वाले एक बड़ी पार्टी के प्रवक्ता के लिए पत्रकारों द्वारा पैसा मांगे जाने का ये अनुभव पहला था। मजे की बात ये है कि पूरे गुजरात में उनसे ऐसे सवाल किए गए- ऐसी अपेक्षाएं पाली गईं। ये बात और है कि उन्होंने किसी को पैसा नहीं दिया। दिल्ली लौटकर ये अनुभव साझा करते वक्त भी उनका आश्चर्य कम नहीं हुआ था। उन्हें लगा कि ऐसा पहली बार हुआ। ये बताते वक्त वे ये भी बताना नहीं भूले कि जब उन्होंने इसके लिए तहकीकात किया तो पता चला कि हर पत्रकार का अखबारों ने लक्ष्य तय कर दिया था। कई बार ये भी हुआ था कि अखबार ने अपनी जिला यूनिट को भी टारगेट दिया था।
उस पार्टी प्रवक्ता के लिए ये भले ही पहला अनुभव हो – लेकिन ये खेल बहुत पहले से चल रहा है। पत्रकारिता की दुनिया में आने वाले शावक पत्रकारों को पहले ही समझा दिया जाता था कि चुनाव अखबारों के लिए उत्सव के समान होते हैं। लेकिन ये बातें सिर्फ कंटेंट के स्तर पर होती थीं। तब अखबारों में होड़ रहती थी कि कौन कितनी ज्यादा कवरेज करता है। पत्रकारों की कोशिश रहती थी कि वे ये साबित कर सकें कि जनता की नब्ज उन्होंने सबसे गहराई से पकड़ा। लेकिन उदारीकरण की हवा में अब ये सब अब बीते दिनों की बातें होती जा रही हैं। ऐसा नहीं कि चुनाव में पहली बार पैसा खाने की बात सामने आ रही है। पहले भी ऐसा होता रहा है। लेकिन कम से कम सीधे-सीधे पैसे मांगने की हिम्मत विरले पत्रकार ही करते रहे हैं। वैसे दिल्ली की 1998 के विधानसभा चुनाव में एक बड़े नेता से एक पत्रकार ने सीधे-सीधे पैसे मांगने की जुर्रत की थी। जिसकी शिकायत उस बड़े नेता ने उस पत्रकार के दफ्तर को कर दी थी। पत्रकारिता जगत में ये चर्चा तब छाई रही थी। लेकिन तब भी ये चलन नहीं बन पाया था। लेकिन अब ये संस्थानिक दर्जा हासिल कर चुका है।
हिंदी में पहली बार मध्य भारत के एक अखबार ने 1999 के आम चुनाव से शुरू किया था। उसने अपनी सभी यूनिटों के लिए उसकी क्षमता के मुताबिक लक्ष्य तय कर दिया था। उम्मीदवारों के बारे में खबरें छापने के लिए उनकी यूनिटों ने पैसे तय कर दिए थे। तब उस अखबार के इलाके में इसकी आलोचना हुई थी। तब अखबार की दलील थी कि जब चुनाव लड़ने वाले नेता से पत्रकार पैसे खाने की कोशिश करते हैं तो अखबार ही सीधे-सीधे क्यों न पैसे लें। तब इस चलन पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले अखबार भी देर-सवेर नैतिकता के इस उहापोह से निकल गए। 2004 के आम चुनावों और 2003 के विधानसभा चुनावों में इस प्रवृत्ति को कुछ – एक बड़े अखबारों को छोड़कर – संस्थानिक दर्जा मिलने लगा था। पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी अखबारों ने ऐसा किया।
ऐसा नहीं कि पहले पैसे लेकर खबरें नहीं प्रकाशित की जाती थीं। लेकिन तब अखबार या पत्रिका पत्रकारिता के नैतिक दबावों के चलते कहीं कोने में ये जरूर छाप देते थे – ये एडवर्टोरियल है। लेकिन उदारीकरण की आंधी में एडवर्टोरियल लिखने- बताने का नैतिक दबाव भी नहीं रहा। इसके लिए अब तो बाकायदा विज्ञापन के तौर पर पैसे कमाने वाली यूनिटों को बाकायदा कमीशन भी देते हैं। ये जानकारी लेनी है तो इन अखबारों के दफ्तरों में काम करने वाले पत्रकारों से संपर्क किया जा सकता है।
मीडिया का काम सही खबरें लोगों तक पहुंचाना है। सही मायने में न्यूज बिजनेस की जो अवधारणा है – उसमें मौजूदा चलन की कोई जगह नहीं है। सवाल ये उठता है कि जब अपने लक्ष्य के मुताबिक पैसा जुटाने के लिए पत्रकार पर दबाव होगा तो वह कैसे निष्पक्ष खबरें दे पाएगा। इसका जवाब देर-सवेर प्रिंट मीडिया को ही ढूंढ़ना होगा। आजकल एक चलन ने जोर पकड़ लिया है – टेलीविजन पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा करना। लेकिन प्रिंट माध्यम में ये जो बदलाव आता जा रहा है – उस पर विचार करने की जहमत नहीं उठाई जा रही। माना टेलीविजन चैनल पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं – लेकिन प्रिंट माध्यमों की इस पत्रकारिता को सही कैसे ठहराया जाएगा। इस सवाल का जवाब फिलहाल उस राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी ढूंढ़ रहे हैं। लेकिन अभी तक उन्हें कोई जवाब नहीं सूझ पाया है।

स्टिंग का खेल और टीवी पत्रकारिता

गीता
1991 में जब उदारीकरण की बयार इस देश में बहाए जाने की तैयारी थी- तब उसके विरोधियों का एक तर्क ये भी था कि उदारीकरण की बयार देश की संस्कृति और परंपरा पर भी असर डालेगी। कहना ना होगा कि पत्रकारिता पर भी इसका खासा असर देखने को मिल रहा है। झटपट चर्चित ओने और पैसा कमाने का मोह आज पत्रकारिता पर भी हावी हो गया है। चूंकि भारत में टेलीविजन पत्रकारिता चूंकि इसी दौर में पनपी है- इसलिए भौतिकवादी जीवनधारा (मैटरलिस्टिक लाइफ स्टाइल) पर इसका कुछ ज्यादा ही असर दिख रहा है। स्टिंग पत्रकारिता भी इसी की एक कड़ी है।
पिछले दिनों दो स्टिंग मीडिया में बेहद चर्चित रहे। पहला स्टिंग रहा - जनमत के परिवर्तित नाम वाले चैनल इंडिया लाइव का- जिसके असर से एक अच्छी-भली अध्यापिका की जिंदगी सूली पर चढ़ गई। उमा खुराना स्कूली छात्राओं से वेश्यावृत्ति नहीं कराती थी- पुलिस जांच से ये साबित भी हो गया है। लेकिन एक चैनल ने सनसनी बटोरने के लिए ये पड़ताल करना जरूरी नहीं समझा कि स्टिंग की हकीकत क्या है। यहीं पर अनुभव की बात आती है। इस चैनल के युवा कर्ताधर्ताओं को सनसनी चाहिए थी और उनकी इस चाहत का ही फायदा उठाया नए पत्रकार प्रकाश ने। मजे की बात ये है कि इसमें स्कूली छात्रा की भूमिका निभाने वाली भी लड़की पत्रकार रही है। सनसनी और पैसे कमाने की चाहत ने साध्य की पवित्रता का कोई खयाल नहीं रखा और उमा खुराना को सूली पर चढ़ाने में कोई कसर नहीं रखी गई। जब तक टेलीविजन नहीं थे- सिर्फ अखबारी दुनिया थी- तब पत्रकारों के बीच एक कहावत प्रचलित थी- नो न्यूज इज बेटर न्यूज यानी खबर का ना होना बेहतर खबर है। लेकिन आज के पत्रकार के पत्रकारीय मुंह को खबरों का खून लग गया है। ऐसे में नो न्यूज की चिंता ही उसे खाए डालती है। उदारीकरण की कोख से निकले टेलीविजन पत्रकारों को ये खून कुछ ज्यादा ही लग गया है। इसी का असर है कि किसी शिक्षिका को भी बदनाम करने के पहले सोचा नहीं जाता और दंगे हो जाते हैं। वैसे भी इंडिया लाइव के जो कर्ताधर्ता हैं- उनका वैसे भी कोई साफ पत्रकारीय रिकॉर्ड नहीं रहा है। ऐसे में ये कहना कि प्रकाश ने उसे झांसे में रखा- सहज भरोसेमंद नहीं है। सच तो ये है कि आज के दौर में पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखने वाले हर नौजवान की एक ही पसंद है- टेलीविजन के पर्दे पर छा जाना। एक-दो नौजवान ही मिलते हैं- जिनकी दिलचस्पी सोच-विचार वाले माध्यम अखबार और पत्रिका में काम करने में होती है। असलियत तो ये है कि उमा खुराना का स्टिंग करने वाला प्रकाश पहले आईबीएन सेवेन नाम के नवेले हिंदी चैनल में इंटर्नशिप कर रहा था और उसे इस स्टिंग के सहारे बुद्धू बक्से वाले पत्रकारिता पर छा जाने की उम्मीद थी। लेकिन जब उसका मकसद आईबीएन में साबित होता नहीं दिखा तो वह इंडिया लाइव में आ गया। उसका ऑपरेशन सफल भी रहा- रातोंरात इंडिया लाइव छा भी गया- उसके कर्ताधर्ताओं के फोटो और इंटरव्यू अखबारों में चस्पा होने लगे। लेकिन पुलिस की जांच ने उनके सारे गुब्बारे की हवा निकाल दी।
दूसरा स्टिंग भी इसी तरह का रहा। झारखंड के सांसद रामेश्वर उरांव को फर्जी पत्रकारों की एक टीम ने फंसाने की कोशिश की। लेकिन आज का हर राजनेता बंगारू लक्ष्मण नहीं रहा। अब राजनेता भी सतर्क हो गए हैं। उरांव भी सावधान थे तो उन्होंने पुलिस ही बुला ली और तीन फर्जी पत्रकार -दूसरे शब्दों में कहें तो स्टिंगबाज धरे गए। जब पुलिस ने उनसे पूछताछ की तो उन्होंने एक-दो चैनलों को छोड़कर तकरीबन सभी बड़े दबंग स्टिंग और खोजी संपादकों का नाम ले डाला। उनका कहना था कि उन्होंने सबसे तेज से लेकर सबसे आक्रामक चैनल के खोजी संपादकों के लिए स्टिंग किए हैं। जब उन्होंने पुलिस को ये बयान दिए तो संबंधित संपादकों के हाथों से तोते उड़ते नजर आए। फिर शुरू हुआ आननफानन में हर एक चैनलों को फोन करके ये खबर न चलाने की गुजारिश का खेल। इसमें उनकी बदनामी जो होनी थी। ऐसा हुआ भी। अपनी बिरादरी का पत्रकारों ने खयाल रखा भी। लेकिन इससे एक सवाल तो उठ खड़ा हुआ ही कि आखिर टेलीविजन के पर्दे पर क्या किया जा रहा है। वैसे भी जिस जनता के नाम पर खबरों का खेल दिखाया जाता है- वह जनता भी अब चैनलों के इस खेल का रस लेकर आनंद उठाने लगी है। इसका असर है कि आज टेलीविजन को खबरों के लिए नहीं- बकवासबाजी का आनंद उठाने के लिए देखा जा रहा है। इससे टेलीविजन पत्रकार शायद ही सहमत होंगे- लेकिन हकीकत ये है कि जनता से उनका भी कोई सीधा साबका नहीं रहा। लिहाजा उन्हें पता ही नहीं है कि जिस जनता के नाम पर वे स्टिंग कर रहे हैं, उसका खयाल भी कुछ और ही है। इसे जानने के लिए पान वाले से लेकर अखबारों और चायवालों की दुकानों की खाक छाननी पड़ेगी। लाख टके का सवाल ये है कि चैनलों के कर्ताधर्ता इसे समझने की कोशिश करेंगे या नहीं। लेकिन ये भी सच है कि अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो टेलीविजन की साख को बचा पाना आसान नहीं होगा- साख के संकट से जूझ रही टेलीविजन पत्रकारिता के लिए ये बहुत ही महंगा सौदा होगा।