(प्रथम प्रवक्ता पाक्षिक में प्रकाशित)
उमेश
चतुर्वेदी
दुनिया के ज्यादातर देशों में संवैधानिक दर्जा
हासिल ना होने के बावजूद अगर आम लोगों के उम्मीदों के चिराग अगर किसी संस्था से
जलते हैं तो निश्चित तौर पर वह मीडिया ही है। लोकतंत्र के तीन अंगों से निराश और
हताश लोगों को अगर इंसाफ की उम्मीद मीडिया से बना हुआ है तो इसकी बड़ी वजह यह है
कि मीडिया को लोकतंत्र का पहरेदार माना जाता है। मीडिया के साथ पहरेदारी की यह
खासियत उसके आचरण और नैतिकता पर आधारित होती है। लेकिन क्या आज के मीडिया से चौकस
पहरेदारी की उम्मीद की जा सकती है? यह सवाल खास
तौर पर उदारीकरण के दौर में ज्यादा पूछा जाने लगा है। समाज में बदलाव के पैरोकारों
को भले ही यह निष्कर्ष नागवार गुजरे, लेकिन कड़वी हकीकत है कि हम आज के घोर
चारित्रिक क्षरण के दौर में जी रहे हैं। इसका असर मीडिया पर पड़े बिना कैसे रह
सकता है। अरविंद केजरीवाल के खुलासों के साथ मीडिया के रवैये को देखकर इसे आसानी
से समझा जा सकता है। देश के लिए अपने रक्त का आखिरी कतरा तक बहा देने वाली इंदिरा
गांधी के शहादत दिवस 31 अक्टूबर को पता नहीं रिलायंस और उससे जुड़े खुलासों के लिए
अरविंद केजरीवाल ने जानबूझकर चुना या नहीं, लेकिन यह सच है कि उस दिन अरविंद
केजरीवाल के खुलासों को लेकर मीडिया ने खास उत्साह नहीं दिखाया।