उमेश चतुर्वेदी
दुनिया का काम है बदलना...लेकिन जिंदगी में कई परंपराएं ऐसी होती हैं, जिनका बदलना कम से कम संवेदनशील मन को परेशान कर देता है। शस्य परंपरा से जुड़े हमारे त्यौहारों की पारंपरिक निरंतरता हमारी जिंदगियों में हर बार नया रस भरती रही हैं। जिंदगी की जड़ों से जुड़े रहने का यह जज्बा ही रहा है कि ये त्यौहार अपनी निरंतरता में बने पारंपरिक ही रहे हैं। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह पारंपरिक निरंतरता भी एक दिन बदल जाएगी। लेकिन उदारीकरण ने वह कर दिखाया, जिससे सदियों की सांस्कृतिक विरासत में भी बदलाव नजर आने लगा। बहरहाल यह मौका इस बदलाव की मीमांसा का नहीं है। जब से हिंदी पत्रकारिता का विकास हुआ है, सांस्कृतिक रस-गंध से जैसे-जैसे वह जुड़ती गई, सदियों पुराने त्यौहारों को भी साहित्यिक तरीके से मनाने की परंपरा विकसित होती गई। यह बदलाव नहीं, बल्कि खुद में उदात्त परंपराओं को आत्मसात होना था। हर बार जैसे ही त्यौहार आते, उनकी तैयारियां आम जिंदगी में तो होती ही थीं, पत्रकारिता और साहित्यकारिता भी इसे अपने अंदाज में मनाने की तैयारियों में जुट जाती थी। लेकिन जैसे-जैसे उदारीकरण का बिरवा पेड़ बनने की दिशा में बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे कम से कम हिंदी साहित्यकारिता और पत्रकारिता अपनी इस उदात्त परंपरा से दूर होती जा रही है। जाहिर है कि इसका असर होली-दीवाली पर भी दिखने लगा है।
स्मृतियों के गलियारों में अभी-अभी धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, नंदन, पराग जैसी पत्रिकाओं के होली-दीवाली विशेषांक याद हैं। अपनी प्रति सुरक्षित कराने के लिए हम बार-बार स्टॉल वाले को याद दिलाते रहते थे। होली पर पारिवारिक पत्रिकाओं में जहां हास्य व्यंग्य से भरपूर गद्य और पद्य रचनाएं प्रकाशित की जाती थीं, वहीं बच्चों की पत्रिकाओं में स्वस्थ हास्य वाली कहानियां छापी जाती थीं। स्कूलों-कॉलेजों में होली की लंबी छुट्टियां भी होती थीं। रंग-पानी के बाद थकान इन पत्रिकाओं के साथ ही मिटाई जाती थी। पुए और गुझिया खाते हुए इन पत्रिकाओं का पारायण होता था। इस पारायण का आनंद ऐसा था कि उससे वंचित होने का खतरा उठाने को शायद ही कोई तैयार होता। पत्रिकाएं अदल-बदल कर पढ़ीं जातीं। इसके अलावा अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्ट भी होली – दीवाली पर सुसज्जित अंक निकालते, जिनमें सुपठनयोग्य रचनाएं प्रकाशित की जाती थीं। इन अंकों और उनमें लिखने वाले लेखकों का प्रचार महीनों पहले ही शुरू हो जाता। इसी अंदाज में अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्ट भी दो हफ्ते पहले से ही अपने अंकों का प्रचार करने लगते। दूसरे शब्दों में कहें तो साहित्यिकारिता और पत्रकारिता का अपने तरीके से होली-दीवाली मनाने का यह अंदाज था। लेकिन दुर्भाग्यवश अब यह परंपरा खत्म होती जा रही है। कहा तो जा रहा है कि उदारीकरण ने यह सब बदल कर रख दिया है। बाजार की बढ़ती पैठ ने हिंदी साहित्यिकारिता को सिर्फ बाजारोन्मुखी बनाकर रख दिया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच बाजार ही इसके लिए उत्तरदायी है। अगर ऐसा है तो बांग्ला और मराठी में भी ऐसा बदलाव दिखता। लेकिन बांग्ला में वहां के सबसे उल्लासमय त्यौहार दुर्गापूजा को मनाने की साहित्यिक और पत्रकारीय तैयारियों में कमी नहीं आई है। बांग्ला पत्रिकाएं और अखबार अपने पूजा विशेषांकों की तैयारी महीनों पहले से शुरू कर देते हैं। बांग्ला प्रकाशनों में अपने लिए लेखकों को आरक्षित करने की होड़ महीनों पहले से ही शुरू हो जाती है। जहां पाठक का इतना खयाल रखा जाता है, वहां पाठक भी अपने प्रकाशनों के लिए इसी तरह तैयार रहते हैं। हमारे कई जानने वाले ऐसे हैं, जो विदेशों में रहते हैं लेकिन देश(बांग्ला पत्रिका) के पूजा विशेषांक के लिए हमें परेशान करते रहते हैं। उनकी मांग पूरी करने के लिए स्टॉलों की खाक छाननी पड़ती है।
होली को अपने अंदाज में कुछ स्वतंत्र तरीके से ही पत्रकारिता और साहित्य जगत के लोग मनाते रहे हैं। बनारस में फटीचर नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित की जाती रही है। निश्चित तौर पर उसमें फूहड़ हास्य सामग्री नहीं प्रकाशित की जाती थी। लेकिन अब स्वस्थ हास्य वाले पत्रों और होलियाना पत्रिकाओं का प्रकाशन या तो खत्म हो गया है या आखिरी सांसें ले रहा है। लेकिन इस बीच अश्लील प्रकाशनों की बाढ़ आ गई है। जिन्हें बाजार की मांग के नाम पर परोसा जा रहा है। सच तो यह है कि मनुष्य के अंदर हमेशा एक राक्षस बैठा रहता है। मर्यादाएं और संस्कार ही उसे मनुष्य बनाए रखते हैं। बाजारवाद ने इसी राक्षस को आगे आने का बहाना दे दिया है। सांस्कृतिक रस-गंध से जुड़े रहे हमारे त्यौहार इन राक्षसी वृत्तियों पर लगाम लगाते रहे हैं। लेकिन बाजारवाद के नाम पर यह कड़ी भी कमजोर हुई है। ऐसे में साहित्यकारिता और पत्रकारिता पर सबसे अहम उत्तरदायित्व आ जाता है। सांस्कृतिक रस-गंध की परंपरा को बनाए रखते हुए ऐसे माहौल की तरफ आगे बढ़ना, ताकि जिंदगी से राक्षसी वृत्तियां दूर हो सकें। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऐसे साहस दिखाने वाली आत्माएं हमारे बीच से लगातार कम होती जा रही हैं।
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