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रविवार, 22 अगस्त 2010
साहित्यिक पत्रकारिता- सवाल सिर्फ पाठकों का नहीं
उमेश चतुर्वेदी
पचास करोड़ हिंदी भाषियों के देश में अगर हिंदी की सबसे लोकप्रिय पत्रिका हंस बारह हजार के आसपास ही बिकती हो तो, हिंदीभाषियों के साहित्यिक संसार पर सवाल उठेंगे ही। किसी भी भाषा की रचनाशीलता की सबसे बेहतर प्रतिनिधि उसकी साहित्यिक पत्रिकाएं ही होती हैं। निश्चित तौर पर इस मोर्चे पर हिंदी का पूरा परिदृश्य निराशाजनक है। हिंदी की लोकप्रिय पत्रकारिता में जिस तरह दैनिक अखबारों की भूमिका बढ़ती जा रही है, वह निश्चित तौर पर हिंदी के लिए बेहतर संकेत तो है। लेकिन इस लोकप्रियता के बरक्स हिंदी में कम से कम साहित्यिक पत्रकारिता को लेकर पाठकों में संस्कार विकसित नहीं हो पाए हैं। हिंदी में जब भी इसकी तरफ ध्यान दिया जाता है, सबसे पहला ध्यान राजभाषा को लेकर सरकारी उदासीनता की ओर ही जाता है। राजभाषा बनने के बावजूद नीति नियंताओं और सत्ता विमर्श में हिंदी की भूमिका वैसी नहीं हो पाई है, जैसी अंग्रेजी की है। रचनाशीलता और रचनात्मकता से जुड़े विमर्श को लेकर हिंदीभाषी राज्यों को छोड़ दें तो केंद्रीय स्तर पर हिंदी सापेक्ष माहौल अभी बनना बाकी है। लेकिन सिर्फ इसी वजह से यह मान लिया जाय कि हिंदी के लिए साहित्यिक पत्रकारिता का माहौल नहीं रहा तो यह निष्कर्ष अधूरा ही माना जाएगा।
हिंदी में आज भी लोकप्रिय किताबों का संस्करण हजार से दो हजार तक ही होता है। साहित्यिक पत्रकारिता पर चर्चा के वक्त हिंदी प्रकाशन जगत की उदासीनता पर भी ध्यान जाना सहज ही है। यह सच है कि हिंदी की कमाई खाने वाले प्रकाशकों ने भी हिंदी के साहित्यिक संस्कार को विकसित करने में कोई खास योगदान नहीं दिया। आजादी के तत्काल बाद चूंकि माहौल राष्ट्रीयता से ओतप्रोत था, लिहाजा उस वक्त हिंदी के लिए सोचने-मरने वाले लोग थे। उस माहौल का ही असर था कि उस वक्त हिंदी में साहसिक पहल करने की जिद्द का बोलबाला था। लेकिन जैसे-जैसे उदारीकरण की तरफ हमारे कदम बढ़ते गए, हिंदी की रचनाशीलता को लेकर जिद्दीपन में कमी आती गई। साहसिक पहल तो अब सिर्फ अंग्रेजी की ही बात है। यह कहना कि सिर्फ इसके चलते ही हिंदी में लोकप्रिय साहित्यिक पत्रकारिता के क्षितिज का फैलाव नहीं हुआ तो यह भी अतिशयोक्ति ही होगी। हालांकि यह भी एक कारण जरूर हो सकता है।
आज हिंदी के कुछ उत्साही कार्यकर्ता तर्क देते नहीं थक रहे हैं कि जब भास्कर, जागरण, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, हिंदुस्तान, सरस सलिल, प्रतियोगिता दर्पण, गृहशोभा लाखों की संख्या में बिक सकते हैं तो हिंदी की कोई साहित्यिक पत्रिका क्यों सात से दस हजार की संख्या तक भी नहीं पहुंच पाती। लेकिन यह तर्क भी एकांगी ही है। क्योंकि जो सामग्री सरस सलिल में छप सकती है, वह किसी साहित्यिक पत्रिका की सामग्री नहीं हो सकती। दरअसल हर प्रकाशन और विषय विशेष का अपना अनुशासन होता है। बच्चों की पत्रिका में समोसे बनाने की विधियां या फिर लिपस्टिक लगाने के तरीके की जानकारी नहीं दी जा सकती। वैसे ही महिला पत्रिकाओं में राजनीतिक भंडाफोड़ की सामग्री देना भी अटपटा ही लगेगा। कुछ यही हालत साहित्यिक पत्रकारिता की भी है। वहां हर तरह की सामग्री देना संभव ही नहीं होगा। ऐसे में किसी साहित्यिक पत्रिका की किसी लोकप्रिय पत्रिका से तुलना ही बेमानी होगा। लेकिन दिल्ली में हाल ही में हुई ऐसी एक गोष्ठी में ऐसी तुलना की गई तो हंगामा मच गया।
हिंदी में साहित्यिक पत्रकारिता के सामने आज प्रसार का जो संकट दिख रहा है, उसके दो कारण हैं। पहला तो विचारशीलता को भौतिक यानी आर्थिक प्रश्रय देने वाले उदार हाथों की कमी हो गई है। उदारीकरण के दौर में इस तथ्य पर गौर फरमाने की कहीं ज्यादा जरूरत है। वैचारिकता से ओतप्रोत साहसिक पहल करने वाले लोगों की कमी भी हमारे इस पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है। वैसे तो हर तरह की पत्रकारिता पाठक केंद्रित ही होती है। लेकिन साहित्यिक पत्रकारिता पर पाठक को संस्कारित करने और वैचारिकता से लैस करने की जिम्मेदारी भी होती है। वैसे यह काम क्षेत्र विशेष के नियंताओं और भाषा की कमाई खाने वाले वर्ग का भी है, ताकि वे अपनी भाषा को जिम्मेदार और वैचारिक रचनाशीलता का वाहक बना सकें। दुर्भाग्य से इस मोर्चे पर कोई काम नहीं हुआ है। जाहिर है कि पाठकीय संस्कारहीनता भी आज साहित्यिक पत्रकारिता की राह में रोड़ा बनकर खड़ी है। जिस अंग्रेजी में किताबों की बिक्री के आंकड़े गिनाते हम अपनी हिंदी में ऐसे भविष्य की चिंता करते रहते हैं, पैसा, पाठकीयता और उदारीकरण के बावजूद वहां भी साहित्यिक पत्रकारिता की कोई बहुत ज्यादा बेहतर स्थिति नहीं है। वहां भी अगर कला अकादमियां या ट्रस्ट और विश्वविद्यालय मदद नहीं करते तो ग्रांटा या न्यूयार्कर जैसी पत्रिकाओं के सहज प्रकाशन का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। जबकि भारत में ही अंग्रेजी की किसी किताब का पांच हजार से ज्यादा का संस्करण निकलता है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में सर्वत्र घटाटोप अंधेरा ही अंधेरा है। फिलहाल भले ही ऐसा लग रहा हो, लेकिन सच तो यह है कि एक बार फिर हिंदी की कमाई खा रहे लोगों पर ही इस अंधेरे से बाहर निकलने की जिम्मेदारी है। बड़े अखबार समूह, संस्थानिक घराने और विश्वविद्यालय अगर पूंजी का आधार मुहैया कराएं तो हिंदी साहित्यिक पत्ररकारिता में रचनाशीलता को नया आयाम मिलेगा। तब शायद हमें पाठकों का रोना न रोने का कोई कारण भी नहीं रह पाएगा।
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