शनिवार, 29 दिसंबर 2007

फिल्म पर कुछ नए विचार

क्या फिल्म और क्लासिक में भी कोई रिश्ता हो सकता है?
जब-जब गंभीर सिनेमा की चर्चा होती है, एक सवाल बड़ी शिद्दत से उठता है। हिंदी में गंभीर सिनेमा का भविष्य है भी या नहीं ..हिंदी सिनेमा की जो मुख्यधारा है—उसे पढ़े-लिखे लोग बाजारू कह देते हैं। एक दौर था- जब बाजार शब्द सतही था। लेकिन आज विद्वत्तजनों की तमाम चिंताओं और अरण्य रूदन के बावजूद ना सिर्फ बाजार शब्द स्थापित हो चुका है, बल्कि इसने पर्याप्त ताकत भी हासिल कर ली है। और तो और ..असल में जो बाजार है भी, वह भी बाजार से उठकर किताब, साहित्य,संस्कृति और क्लासिक की दुनिया में प्रतिष्ठित होता जा रहा है। बहरहाल बाजार चर्चा यहीं तक...आज हिंदी में मुख्यधारा का जो सिनेमा है, उसे अब बाजारू नहीं कहा जा सकता। अगर किसी प्रबुद्ध ने कह भी दी तो हो सकता है, आज के संजय लीला भंसाली, फरहान अख्तर और करण जौहर सामने वाले का मुंह नोंच लें। रूमानियत और असलियत से दूर का जो संसार आज मुख्यधारा का सिनेमा रचता है, ये सच है कि उसमें कम से कम हिंदीभाषी समाज के जीवन की संवेदना और उसकी जिंदगी की कड़वी हकीकतें नहीं ही होतीं। शायद यही वजह है कि आज के हिंदी के मुख्यधारा के सिनेमा को कम से कम क्लासिक की दुनिया में नहीं रखा जाता।
एक सवाल ये भी है कि किसी बेहतरीन किताब को पढ़ते वक्त जो सुख – जो आनंद मिलता है, वैसा ही क्या किसी फिल्म को देखते हुए आनंद उठाया जा सकता है। आज हिंदी के कुछ अखबारों में ऐसी चर्चाएं हो रही हैं। कुछ मशहूर हस्तियों से पूछा जा रहा है कि उन्हें कौन सी फिल्म किसी किताब जैसा आनंद देती है। लोग जवाब दे भी रहे हैं। नामचीन हस्तियां कभी किसी हालीवुड की फिल्म को तो कभी किसी मुंबईया फिल्म को इस श्रेणी में रखती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या किसी फिल्म के बारे में ऐसा सवाल पूछा जा सकता है। इसलिए भी कि – ये दोनों अभिव्यक्ति की दो भिन्न विधाएं हैं और जाहिर है, जिस तरह एक कविता पढ़ने या सुनने से जो आनंद मिलता है, वह आनंद किसी कहानी या उपन्यास को पढ़ने से हासिल नहीं किया जा सकता। आपने से अधिकांश ने अपनी मनपसंद किताब, कहानी या कविता पढ़ते हुए देखा-महसूस किया होगा। हम अपनी तरह से किताब या कहानी के पात्रों का एक रोमानी संसार अपने मन-मस्तिष्क में रचते हैं। साहित्य के पंडित इसे ही बिंब विधान कहते हैं। प्रेमचंद ने गोदान लिखते वक्त होरी-धनिया या गोबर के चरित्रों को जिस अंदाज में भोगा-समझा या फिर देखा होगा, ये जरूरी नहीं कि हम सब पढ़ते हुए गोबर-धनिया या होरी का वैसा ही चरित्र और बिंब अपने मन में रचें। हम सबका गोबर-होरी या धनिया हमारे मनों में अलग-अलग होते हैं।
दुनिया की सभी भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य पर फिल्में बनती और चलती भी रही हैं। हिंदी में दुर्भाग्यवश क्लासिक पर बनी फिल्में नहीं चलीं। उन्हें व्यापक दर्शक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया। चाहे फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम या लाल पान की बेगम पर बनी फिल्म तीसरी कसम हो या फिर राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर बनी फिल्म सारा आकाश, दर्शकों का वह प्यार उन्हें नहीं मिला, जैसा कि किसी दूसरी भाषा के क्लासिक पर बनी फिल्मों को उन भाषाओं में मिलता रहा है। हां, एक अपवाद है – केशव प्रसाद मिश्र के आंचलिक उपन्यास कोहबर की शर्त पर बनी फिल्म नदिया के पार। लेकिन जो किताब से रूबरू हुए हैं और उन्होंने फिल्म भी देखी है – उन्हें पता है कि फिल्म के लिए उपन्यास की मूल कथा में कितना नाटकीय तत्व डाला गया है। शायद फिल्म चलाने के लिए ये जरूरी भी था। क्योंकि फिल्म बनाना किताब लिखने जैसा सहज पूंजीहीन धंधा नहीं है। बहुत कम लोगों को पता है कि अस्सी के दशक में बीआर चोपड़ा ने एक फिल्म तवायफ बनाई थी। ये फिल्म उर्दू के ही एक क्लासिक बहुत देर कर दी पर आधारित है। इस उपन्यास के लेखक अलीम मसरूर थे। लेकिन इस फिल्म में भी उपन्यास की कहानी से थोड़ा अलग किया गया है। कई लेखक होते हैं- जो इसे स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें लगता है कि फिल्म विधा के लिए ये बदलाव जरूरी हैं। लेकिन अपना खून जलाकर लिखी रचना से छेड़छाड़ कई रचनाकार बर्दाश्त नहीं कर सकते। आप में से कई लोगों ने ए के हंगल के अभिनय वाली फिल्म सुराज देखी होगी। हिंदी कथाकार हिमांशु जोशी की रचना पर ये फिल्म आधारित है। लेकिन हिमांशु जी की कलम से निकली रचना इस फिल्म में कुछ हेरफेर के साथ दिखती है। यहां ये बताना गलत नहीं होगा कि हिमांशु जी भी ये बदलाव सहन नहीं कर पाए और भविष्य में किसी फिल्म के लिए अपनी कोई कहानी देने से ही इनकार कर दिया।
वैसे रचनाकार चाहे जिस भाषा का हो, उसके मन में एक दबीकुचली आकांक्षा तो रहती है कि उसकी रचना ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। इसके लिए वे टेलीविजन या फिर फिल्म विधा का भी सहारा लेते हैं। आर्थिक पक्ष तो खैर है ही, लेकिन सिनेमा की भाषा के मुताबिक खासतौर पर क्लासिक लेखक स्वीकार नहीं कर पाते और फिर उनकी दुनिया सिमट कर रह जाती है। हर किसी को सत्यजीत रे,श्याम बेनेगल, या सागर सरहदी तो मिल नहीं सकते। प्रकाश झा ने भी दामुल फिल्म से क्लासिक रचनाओं को सेल्युलायड पर उतारने की शुरूआत की थी। लेकिन कोयला और गंगाजल की दुनिया तक आते-आते उनकी सेल्युलायड की रचनाओं को देखिए, उनकी भी भाषा बदल जाती है।
हिंदी का लेखक अपनी रचनाओं से छेड़छाड़ भले ही बर्दाश्त नहीं कर पाता हो, और इस वजह से अपनी रचनाओं पर फिल्म बनाने की अनुमति ना देता हो। लेकिन आप जानते हैं, आज के दौर के दुनिया के मशहूर रचनाकार, उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्ख्वेज ने अपने मशहूर उपन्यास पर फिल्म बनाने के अरबों डॉलर के बीसीयों प्रस्ताव अब तक नकार चुके हैं। उनके उपन्यास वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालिट्यूड की अब तक दुनियाभर में करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। जाहिर है इस उपन्यास की लोकप्रियता को भुनाने के लिए कई निर्माताओं ने मार्क्वेज के दरवाजे पर दस्तक दी, लेकिन मार्क्वेज ने इसे मंजूरी नहीं दी। वजह जानकर आप चौंक जाएंगे। मार्क्वेज का कहना है कि उनके इस उपन्यास को पढ़कर हर पाठक अपनी-अपनी तरह से इसके पात्रों और वातावरण की दुनिया अपने अंतर्मन में रचता है। लेकिन अगर एक बार फिल्म जो बन गई – तो उसके पात्रों को उनकी भूमिका निभा चुके कलाकारों की दुनिया तक ही सिमट जाएगी। आप इसे यूं समझ सकते हैं कि रामायण या महाभारत सीरियल आने से पहले राम, कृष्ण या ऐसे ही दूसरे पात्रों के बारे में हमारे मन में जो चित्र था, वह बहुत हद तक राजा रवि वर्मा के बनाए चित्रों पर आधारित था। लेकिन टेलीविजन सीरियल बनने के बाद हमारे मन में राम-सीता का जो बिंब बनता है, वह अरूण गोविल और दीपिका चिखलिया के आधार पर ही बनता है। गैब्रियल का कहना है कि अगर फिल्म बन गई तो उनके वन हंड्रेड इयर ऑफ सालिट्यूड की दुनिया हर पाठक के लिए सिमट जाएगी। उसका बिंब सिमट जाएगा और दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी रचना ही सिमट जाएगी।
आप कहेंगे कि विदेशी धरती पर कैसे-कैसे रचनाकार हुए हैं। अब तक अगर किसी क्लासिक पर फिल्म बनी है तो वह सिर्फ फिक्शन यानी कथा-कहानी पर ही बनी है। वह अपनी मूल साहित्यिक कृति से कितनी अलग रही या कितनी बेहतर, इस पर सवाल खड़े हो सकते हैं। लेकिन ये भी सच है कि फिक्शन से अलग किसी विषय पर कोई फिल्म ना तो बनी और ना ही बनाने का विचार भी हुआ। लेकिन तारकोव्स्की ने तय किया था कि वे दास कैपिटल पर फिल्म बनाएंगे। क्लासिकल फिल्म की दुनिया में रूस के तारकोव्स्की का बड़ा नाम है। उन्होंने कार्ल मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक दास कैपिटल को फिल्म बनाने के लिए चुना था। दास कैपिटल मूलत: विचार और दर्शन की किताब है। इसी दर्शन के आधार पर आज दुनियाभर में मार्क्सवाद का विस्तार हुआ है। जिस विचार ने पूरी दुनिया का नजरिया ही बदल डाला, उस पर भी फिल्म बन सकती है – ऐसा तारकोव्स्की ही सोच सकते थे। लेकिन दुनिया ये देखने से वंचित ही रह गई कि विचार प्रधान साहित्य पर भी कोई क्लासिक फिल्म कैसे बन सकती है और अगर बनती भी है तो वह कैसी होगी। क्योंकि ये फिल्म बनाने से पहले ही तारकोव्स्की इस दुनिया से ही कूच कर गए।
साहित्य और किताब से फिल्मों के रिश्ते पर फुटनोट तो लिखे ही गए हैं, बड़ी-बड़ी चिंताएं भी जाहिर की गई हैं। लेकिन इस रिश्ते का क्या मानक हो सकता है ? अभी तक कोई ठोस रूप नहीं बन सका है। लेकिन ये सच है कि पाठक और दर्शक की जो मूल भावना है, किसी रचना का आनंद लेना, वह अपनी तरह से उठा ही रहा है। लेकिन उसने कभी फिल्म और क्लासिक रचना के आपसी रिश्ते के नजरिए से अब तक शायद ही कोई रचना पढ़ी है या फिर कभी फिल्म को देखा है। लेकिन सच कहूं तो अगली बार आप इस नजरिए से फिल्म देखकर या किताब पढ़कर देखें, आपका रोमांच भी बढ़ जाएगा, अनुभव तो खैर अलग होगा ही।

पत्रकारिता पर विचार -2

साक्षात्कार-2
दिनमान के सहायक संपादक रहे जितेंद्र गुप्त से उमेश चतुर्वेदी की बातचीत।

नई पीढ़ी के पत्रकारों को जितेंद्र गुप्त का नाम भले ही अनजाना हो, लेकिन एक पूरी की पूरी पीढ़ी जितेंद्र गुप्त को पढ़ते हुए आगे बढ़ी है। जितेंद्र हमेशा सहकारी ही रहे- कुछ वैसे ही जैसे सरस्वती पत्रिका में हरिभाऊ उपाध्याय महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहकारी हुआ करते थे। जितेंद्र जी 1967 में दिनमान के शुरू होने के बाद से बतौर मुख्य उपसंपादक जुड़े और उनके बाद रघुवीर सहाय के भी सहायक संपादक रहे। बाद में कन्हैयालाल नंदन और घनश्याम पंकज के भी सहायक संपादक रहे। आखिरी दो-चार अंकों में दिनमान की प्रिंट लाइन में नाम भी छपा, लेकिन बतौर सहायक संपादक ही और 1992 में सहायक संपादक रहते ही रिटायर भी हो गए। इन पच्चीस वर्षों में उन्होंने पत्रकारिता, राजनीति और समाज को करीब से देखा है। आजादी के बाद से अब तक पत्रकारिता पर उनके अपने विचार हैं, अपनी चिंताएं भी हैं और जानकारी भी। पेश है उनसे उमेश चतुर्वेदी की बातचीत के प्रमुख अंश---
हिंदी पत्रकारिता की साठ साल की इस यात्रा को आप किस तरह से देखते
हैं ?

देखिए, मैं साठ साल की पत्रकारिता को मुख्यत: तीन हिस्सों में बांटता हूं। 1947 से पहले की पत्रकारिता मिशनरी भाव की पत्रकारिता थी। लेकिन मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि आजादी के पहले भी आर्थिक हितों का ध्यान जरूर रखा जाता है। ऐसे भी पत्र और पत्रकार थे, जिन्होंने जुर्माना देकर अखबार निकाला, लेकिन अपने आर्थिक हितों का ध्यान रखने वाले भी लोग थे। शायद यही वजह है कि 1947 से 1962 तक की पत्रकारिता आशाओं और संभावनाओं की पत्रकारिता रही है। इसे आशाओं का दौर भी कह सकते हैं। आजादी के आंदोलन के दौरान जो सपने देखे गए थे, उन्हें पूरा करने का दौर था। पूरा देश नेहरू पर निगाह लगाए हुए था। इसी दौर में रिहंद, भाखड़ा, हीराकुंड जैसे बांध बने, भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना हुई, एलआईसी का राष्ट्रीयकरण हुआ, जमींदारी उन्मूलन हुआ। तो देश में हर तरफ एक नया उत्साह था। लेकिन 1962 में चीन ने आक्रमण किया तो पता चला कि हम लोग तो कुछ कर ही नहीं सकते, और फिर पूरा परिदृश्य ही बदल गया।
तो क्या 1962 के बाद से पत्रकारिता भी बदल जाती है ?
जी हां, 1962 के बाद पूरी भारतीय पत्रकारिता बदलने लगती है। मैं 1962 से 1980 तक को एक दौर की पत्रकारिता मानता हूं। मोहभंग का दौर शुरू होने लगता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि चीन के हमले के बाद जो देश पस्त पड़ा था- उसमें नया संचार आ जाता है। लाल बहादुर शास्त्री की अगुआई में देश पाकिस्तान पर 1965 में ऐतिहासिक जीत हासिल करता है। इसी दौर में गैर कांग्रेसवाद का बोलबाला बढ़ा। इसका असर दिखा भी। 1967 में हिंदी भाषी राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनती हैं और देश में एक नई चेतना का संचार होता है। 1971 आता है और बांग्लादेश का निर्माण होता है। इसी दौर में दिनमान का प्रकाशन शुरू होता है और एक दौर ऐसा आता है कि पूरे हिंदीभाषी बौद्धिकों और राजनीतिक वर्ग का प्यारा साप्ताहिक बन गया। इमर्जेंसी इसी दौर में लगी। लोगों को जयप्रकाश नारायण और जनता पार्टी से नई उम्मीद जागती है। लेकिन उनसे भी मोहभंग होता है। क्योंकि जनता का ये प्रयोग भी नहीं चला।
1980 के बाद की पत्रकारिता को आप किस नजरिए से देखते हैं ?
इस दौर को मैं व्यवसायिकता को हावी होने का दौर मानता हूं। इसी दौर में इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियां बदलनी शुरू हुईं। राजीव के आते-आते तक तो देश में उदारीकरण का बीज रोपा जा सकता था। जिस पेप्सी और कोका कोला को 1977 में जार्ज फर्नांडिस की अगुआई में भगाया गया था, उसी पेप्सी को 1988-89 में राजीव गांधी ने भारत में काम करने की अनुमति दे दी। इस उदारीकरण ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। राजनीति की दुनिया में भी बदलाव दिखने लगे। इसका असर पत्रकारिता पर भी दिखने लगा। इसी दौर में अखबारी संस्थानों में मालिकों की नई पीढ़ी आने लगी। जिसे ये देखकर कोफ्त होती थी कि उनके वेतनभोगी संपादकों को तो प्रधानमंत्री से मुलाकात का वक्त मिल जाता है। लेकिन उन्हें नहीं मिलता। तो उन्होंने संपादक नाम की संस्था पर ही हमला शुरू कर दिया। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। टाइम्स ऑफ इंडिया में उन दिनों गिरिलाल जैन जी संपादक थे और उनकी तूती बोलती थी। लेकिन नए मालिकों को गिरिलाल जी पसंद नहीं थे। टाइम्स ग्रुप में अमेरिका से पढ़कर समीर जैन आकर काम संभालना शुरू कर चुके थे। टाइम्स ग्रुप में एक परंपरा थी। साल के पहले रविवार को मुख्य उप संपादक रैंक से लेकर उपर तक के लोगों को टाइम्स प्रबंधन एक लंच पार्टी देता था। 1987-88 की बात है। एक ऐसी ही लंच पार्टी में तब के टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक दिलीप पडगांवकर से गिरिलाल जैन की नकल उतारने को कहा गया और उन्होंने किया भी। बाद में वे टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक बनाए गए। तो जाहिर है कि किस तरह संपादक संस्था पर मैनेजमेंट का शिकंजा कस रहा था। जाहिर है इस दौर में मालिकों की नई पीढ़ी ऐसे संपादक ढूंढ़ रही थी, जो उनके इशारे पर काम करे। इसका असर पत्रकारिता पर पड़ना ही था। यानी व्यवसायिकता हावी होनी शुरू हुई और इसका असर अब साफ नजर आ रहा है।
तो क्या इसी दौर में मालिक- संपादकों की परंपरा शुरू हुई ?
जहां तक टाइम्स ऑफ इंडिया की बात है तो 1980 के दौर में हिंदी प्रेमी रमारानी जैन और शांति प्रसाद जैन की मौत हो चुकी थी। इसका असर टाइम्स ग्रुप की हिंदी पत्रकारिता पर पड़ना शुरू हुआ। हिंदी पत्र तो पहले भी दूसरी प्राथमिकता पर थे। लेकिन दोनों की मौत के बाद ये प्रवृत्ति और बढ़ती गई। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी में इसी दौर में दो अखबार ऐसे भी निकल रहे थे – जिनकी साख और गुणवत्ता राष्ट्रीय स्तर पर भी थी और ये दोनों अखबार मालिक संपादक ही निकाल रहे थे। जयपुर से कर्पूरचंद कुलिश और इंदौर से लाभचंद छजलानी नई दुनिया निकाल रहे थे। लेकिन मालिक संपादकों की परंपरा इसी दौर में शुरू होती है। इसी दौर में व्यवसायिकता हावी होने लगी। अखबारों के सरोकार बदलने लगे।
क्या आपको लगता है कि मौजूदा दौर में अखबार खबरिया टेलीविजन चैनलों के दबाव में हैं ? कहा तो ये भी जा रहा है कि आजकल आम आदमी के सरोकारों से अखबार दूर होते जा रहे हैं।
हां, दबाव में हैं। लेकिन ये कहना गलत होगा कि अखबारों से आम आदमी के सरोकार दूर हो रहे हैं। कम जरूर हो रहे हैं। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह अखबार बिल्कुल ही आम आदमी से दूर हो जाएंगे। इसकी एक वजह ये भी है कि अखबारों को आखिरकार आम आदमी के बीच ही बिकना है। इसलिए अखबारों की दुनिया से आम आदमी के सरोकार कम नहीं होने वाले। हां, टीवी के दबाव में चिकने पेज पर अर्द्धनग्न फोटो आजकल जरूर छपने लगे हैं। हां, ये जरूर है कि अखबारों में भी आम आदमी की बातें कम हो रही हैं। 27 हजार भूमिहीनों का एक जत्था गांधी जयंती पर ग्वालियर से अपनी पदयात्रा शुरू किया और राजघाट पर खत्म हुआ। लेकिन जैसी कवरेज इसकी होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई। टीवी का दबाव अखबारों पर भी दिख रहा है। आज अखबारों में तस्वीरें दे रहे हैं।
आज के दौर में मध्यवर्ग सबसे बड़ा नियामक हो गया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उसका ज्यादा ध्यान रखता है, क्या अखबार भी मध्य वर्ग का ध्यान रखते हैं ?
हां, अखबार भी ध्यान रखते हैं। प्रियदर्शिनी मट्टू केस हो या फिर जेसिका लाल केस, ये विषय मध्य वर्ग को हिट करते हैं। इसलिए अखबारों ने इसे उछाला और इसका असर भी दिखा। मध्य वर्ग ही आज के दौर का प्रमुख खरीददार है। जाहिर है आज विज्ञापन भी उसके लिए बन रहे हैं और अखबारों को मिल रहे हैं। ऐसे में उनकी पसंद की चीजें और उनकी जिंदगी पर असर डालने वाली चींजें भी प्रकाशित होंगी ही और अखबार इससे मुंह नहीं मोड़ सकते।
आज मीडिया का एजेंडा कौन तय कर रहा है, राजनीति, बाजार की ताकतें या फिर मीडिया संस्थान ?

मीडिया का एजेंडा तो सोलह आने कोई नहीं तय कर रहा है। राजनीति कई बार अपने ढंग से कुछ एजेंडा तय करती है। व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी अपने ढंग से तय करते हैं। बाजार की ताकतें भी अपनी तरह से एजेंडा तय करती हैं। लेकिन ये सब एक सीमित मात्रा में ही होता है और हो सकता है। इसकी वजह ये है कि अखबार आखिरकार आम आदमी के लिए ही उत्पाद है। और जिस दिन उसे लगेगा कि उस पर एजेंडा थोपा जा रहा है तो वह उस अखबार – पत्रिका को नापसंद कर सकता है। इसलिए कई बार तो पाठक के हिसाब से भी एजेंडा तय होता है।
आप लंबे समय तक दिनमान से जुड़े रहे हैं। दिनमान के बंद होने की क्या वजहें रहीं?
देखिए, अस्सी के दशक में जब समीर जी(समीर जैन) ने टाइम्स ग्रुप की कमान संभाली तो उन्होंने एक बैठक बुलाई। उसमें मैं भी शामिल था। तब प्रिंट माध्यम का कुल विज्ञापन बजट 800 करोड़ का था। इनमें सबसे ज्यादा हिस्सा अखबारों को मिलता था, जबकि पत्रिकाओं का हिस्सा बेहद कम था। समीर जी ने कहा कि अगर हम पत्रिकाओं पर जोर देंगे तो अधिक से अधिक एक-आध प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो सकती है। लेकिन इतना ही श्रम और पूंजी अखबारों पर लगाएंगे तो हमारी कमाई बढ़ जाएगी। जो दूसरी बात उन्होंने कही- वह ये कि हमारी बिजनेस फैमिली में जो बेटा एक करोड़ नहीं कमाता, उसे बाप भी बेटा नहीं मानता। यानी उस दौर में टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स करोड़ों की कमाई तो कर रहे थे, लेकिन पत्रिकाओं की कुल कमाई एक करोड़ भी नहीं थी और समीर जैन को इन पर खर्च फिजूल लग रहा था। यानी जिस दिन समीर जी ने टाइम्स को संभाला, उसी दिन दिनमान समेत टाइम्स ग्रुप की सभी पत्रिकाओं के बंद होने की नींव पड़ गई। इसमें तब के संपादक रघुवीर सहाय बाधक थे। लिहाजा कन्हैंया लाल नंदन को संपादक बनाया गया। उन्हें कहा गया कि दिनमान को शहरोन्मुखी पत्रिका बनाओ। उन्होंने स्वीकार कर लिया। यह जानते हुए भी कि दिनमान का प्रमुख पाठक गांवों,छोटे शहरों और कस्बों में रहता है। जिसके यहां रोजाना के अखबार की पहुंच कम थी। जबकि शहरों में स्थिति उलट थी। तो हमें ना शहरी पाठकों ने पसंद किया और गांवों – समकालीन राजनीति पर हमने विचार करना ही छोड़ दिया तो ऐसे में हमें कोई क्यों पसंद करता। यानी ना खुदा मिला और ना बिसाले सनम।
क्या आपको लगता है कि भविष्य में दिनमान जैसी पत्रिका का कोई स्कोप है?
बिल्कुल नहीं, इसकी वजह भी है। आज सिर्फ जानपहचान से विज्ञापन मिलते हैं। कई बार तो पचास प्रतिशत तक कमीशन देना पड़ता है। मुझे पक्की जानकारी है कि इंडिया टुडे और आउटलुक तक का सर्कुलेशन घट रहा है। यही वजह है कि दोनों पत्रिकाएं साल में एक बार सेक्स सर्वे छापती हैं। फिर आज बिल्डर, चिट फंड मालिक और मॉल से पैसे कमाए एक वर्ग का बोलबाला बढ़ा है और वे लगातार पत्रिकाएं, चैनल या अखबार लांच कर रहे हैं। इसके पीछे उनका निहित स्वार्थ भी है। ऐसे में दिनमान जैसी पत्रकारिता को फंडिंग कौन करेगा। ये सबसे बड़ा सवाल है।