शनिवार, 7 जुलाई 2012


पुस्तक समीक्षा
पेड न्यूज के खेल को तार-तार करता दस्तावेज
उमेश चतुर्वेदी
पत्रकारिता क्या है, उसका मकसद क्या है...क्या पक्षधर होना पत्रकारिता की जरूरत नहीं है..क्या इस पक्षधरता की कीमत वह भी सीधे-सीधे वसूली जानी जरूरी है...जब-जब पेड न्यूज की चर्चा होती है, इसे समस्या के तौर पर देखा और उसे पत्रकारिता के अब तक के निकष पर कसा जाना शुरू होता है, ये सारे सवाल उठ खड़े होते हैं। इन सवालों के जवाब में ही पत्रकारिता का असल दायित्व और मकसद छिपा हुआ है। लेकिन इन सवालों पर चर्चा से पहले कम से कम अब तक मीडिया के छात्रों को पढ़ाए जाते रहे पत्रकारिता के मकसद की चर्चा कर लेते हैं। पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया जाता है कि उसका मकसद समाज को सूचनाएं देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना है। इन सबका मकसद सिर्फ सामाजिक मूल्यों को बचाए रखते हुए समाज का भला करना। यदि ऐसा नहीं होता तो
गणेश शंकर विद्यार्थी जैसा पत्रकार बलवाइयों के सामने सीना तान कर खड़ा नहीं हो जाता और अपने खून से दंगाइयों के दिमाग की गरमी नहीं निकाल देता। यहीं पर याद आता है लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का वह बयान, जब उन्होंने मराठा और केसरी निकालते वक्त दिया था। इन पत्रों को निकालने के पहले वे कॉलेज में पढ़ाते थे। अपने एक मित्र को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था कि अब तक वे कुछ लोगों के शिक्षक थे, अब पूरी दुनिया को वे शिक्षित करेंगे। इन दो उद्धरणों से साफ है कि पत्रकारिता का असली लक्ष्य क्या रहा है और किन पायदानों से होकर भारतीय पत्रकारिता आगे बढ़ी है। लेकिन जब हम मौजूदा पत्रकारिता को देखते हैं तो लगता है कि यह इन संस्कारों और मूल्यों से पूरी तरह विचलित हो गई है। चुनावों के दौरान पेड न्यूज के खेल ने पत्रकारिता की इस छद्म पक्षधरता और उसके पीछे छिपे पैसे के खेल और उसके नापाक मकसद को उजागर कर दिया है। ऐसे में अगर पत्रकार संजीव पांडेय पेड न्यू को मीडिया का काला चेहरा कहते हैं तो कोई गलतबयानी नहीं करते। उनकी पुस्तक पेड न्यूज मीडिया का काला चेहरा में हर पन्ने पर मीडिया की ये काली हक़ीकत बार-बार उजागर होती है।
यह सच है कि 2009 के आम चुनावों के बाद मीडिया के इस काली हकीकत की तरफ दुनिया का सबसे ज्यादा ध्यान गया है। लेकिन हकीकत तो यही है कि पहले भी मीडिया और पत्रकारों के एक वर्ग को ऐसा करने में कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन यह भी सच है कि तब लोकलाज और मूल्यों का दबाव इतना था कि ऐसा करने वाले पत्रकार दबे-ढंके ही ऐसा करते थे। लेकिन 2009 के आमचुनावों के बाद निर्लज्जता की हद कहें कि इसे सार्वजनिक तौर पर अखबारी ही नहीं, टेलीविजन के घरानों ने स्वीकार कर लिया। 2009 के आम चुनावों में प्रमुख टीवी चैनलों ने एक-दूसरे के लिए दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी से विज्ञापनों का सौदा किया। बल्कि उन्होंने यह शर्त भी रखी कि अगर उनके साथी चैनल को विज्ञापन नहीं मिला तो वह भी संबंधित पार्टी का विज्ञापन प्रसारित नहीं करेंगे। राजनीति के मैदान में एक-दूसरे के विरोध में किसी भी हद तक जाने वाली कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने चैनलों की इस मनमानी के खिलाफ हाथ मिला लिया। लेकिन सरकार बनाने के उतावलेपन भरे अपेक्षा के चलते जल्द ही उनका संकल्प टूट गया। दोनों बड़े दल अगर कड़ाई से अपने संकल्प पर कायम रहते तो शायद पेड न्यूज की पेंदी में यह बड़ा कील होता, जो उसके जहाज को उलथे पानी में ही डूबो देता। संजीव पांडेय की इस किताब में इसकी जानकारी छूट गई है। इसके बावजूद इस किताब में पेड न्यूज को लेकर जारी अखबारी घरानों के खेल को संजीव अपनी इस पुस्तक में बेनकाब करने में कामयाब रहे हैं। इसके साथ ही पेड न्यूज के खिलाफ पत्रकारिता जगत से उठी आवाजों पर भी उन्होंने पूरी गंभीरता से ध्यान दिया है।
पेड न्यूज का धंधा पहले पत्रकार चलाते थे। 1997 के दिल्ली नगर निगम के चुनावों में एक राष्ट्रीय दैनिक के पत्रकार ने भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता से कवरेज की कीमत मांग ली थी। तब खुराना ने उस पत्रकार की खुलेआम शिकायत की थी। लेकिन बाद मे अखबार मालिकों को अपने भ्रष्ट पत्रकारों की यह कमाई बहुत खलने लगी और खुद भी वे इस खेल में शामिल हो गये। जब पेड न्यूज के खिलाफ हंगामा बढ़ा तो दिल्ली से प्रकाशित एक अखबार ने आचार संहिता नाम का एक खेल किया। लेकिन यह सिर्फ दिल्ली में ही दिखा। उसके दूरदराज के संस्करणों में पैसे लेकर एक ही पृष्ठ पर एक ही दिन एक ही सीट के उम्मीदवारों को जीताने का खेल जारी रहा। बिहार-झारखंड के एक अखबार के स्थानीय संस्करणों के रिपोर्टरों को भी बाकायदा कमाई का लक्ष्य दिया गया। जिसकी चर्चा कई नामी लोग भी कर चुके हैं। अखबार मालिकों ने भले ही पेड न्यूज को रोकने का छद्म दिखाया, लेकिन प्रेस परिषद की इस विषय में बनी रिपोर्ट को बदलवाने में वे कामयाब रहे। यानी मूल्यों को स्थापित करने और उन्हें तार-तार करने दोनो का खेल जारी रहा। कहना न होगा कि संजीव इस खेल को भी अपनी पुस्तक में बेनकाब करने में कामयाब रहे हैं।
कुल मिलाकर यह किताब पेड न्यूज के कुछ प्रमुख उदाहरणों और उससे जुड़ी सूचनाओं से ओतप्रोत है। इस किताब की सबसे बड़ी उपलब्धि पेड न्यूज के खिलाफ प्रभाष जोशी, राम बहादुर राय, पी साईंनाथ और पुरंजय गुहा ठाकुर्ता के विचार और प्रयास भी हैं। जिन्हें पत्रकारिता और समाज से सरोकार रखने वाली पीढ़ी का जानना जरूरी है। तभी उसे पता चल पाएगा कि भारतीय राजनीति के साथ भ्रष्ट होती पत्रकारिता को साफ करने की लड़ाई कितनी लंबी रही है और उसके लिए किन-किन विभूतियों ने कैसे-कैसे प्रयास किए हैं।
पेड न्यूज – मीडिया का काला चेहरा
लेखक संजीव पांडेय
प्रकाशक- संवाद मीडिया प्रा. लि., नई दिल्ली
मूल्य – 250 रूपए

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